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कुमाऊँ के विभिन्न व्यापारिक केन्द्रः एक संक्षिप्त विवरण

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कुमाऊँ जनपद व्यापारिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इस जनपद में पर्वतीय, भावर एवं तराई तीन क्षेत्र पड़ते हैं। इन क्षेत्रों में अनेक व्यापारिक केन्द्र हैं जहाँ पर व्यापारी अपनी वस्तुओं का आदान-प्रदान करते हैं। इन केन्द्रों में निम्नलिखित मुख्य हैं.' (1) रामनगर -  प्राचीन समय में बस्ती चिलकिया में थी, तत्पश्चात् कोसी के किनारे रामजे साहब के नाम से सन् 1850 में रामनगर बसाया गया। यह एक अच्छी व्यापारिक मण्डी है, कोसी से नहर निकालकर करीब 8 किलोमीटर की भूमि आबाद की गई है। यहाँ थाना व छोटी तहसील थी। पहले यहाँ पर नोटीफाइड ऐरिया कमेटी भी है। रेल, तार, डाक आदि की व्यवस्था है। फल-फूल विशेषकर, पपीते के बगीचे काफी है। रामनगर ऊँचे टीले में बसा है। यहां से एक मोटर सड़क रानीखेत को जाती है। यहाँ लकड़ी का व्यापार काफी होता है। जंगलात का कार्यालय भी है। बद्रीनारायण के यात्री यहीं से होकर लौटते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों को जाने का यह प्राचीन मार्ग है। ब्रिटिश सेना ने इसी मार्ग से कुमाऊँ के ऊपर आक्रमण किया था। (2) हल्द्वानी भावर की मंडियों में सबसे बड़ी मण्डी हल्द्वानी है। यह कुमाऊँ जनपद ...

गढ़वाल के गोरखपंथी ग्रन्थ

'नौ नाथ और चौरासी सिद्धों वाली उक्ति के समर्थन में 'गोरक्ष-सिद्धांत संग्रह' में नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चन्द्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पट और मलयार्जुन इन नौ मार्ग प्रवर्तक नाथों के नाम गिने गये हैं। चित्रकार व कवि श्री मोलाराम (1740 से 1833 ई०) के 'श्रीनगर राज्य का इतिहास' के आधार पर स्व० भक्तदर्शन मानते हैं कि गढ़वाल में नाथपंथ के प्रवर्तक सत्यनाथ थे तथा गढ़वाल राज्य को सुदृढ़ बनाने में उन्होंने प्रमुखता से भाग लिया था। 'सिद्ध सत्यनाथ द्वारा अजयपाल को सवा सेर गेहूं का दाना देना और आश्विन के महीने में उसकी पूजा करते रहना' कथानक के बाद आपने आगे कहा है- 'सन् 1370 में जब महाराज अजयपाल अपनी राजधानी वहां (देवलगढ़) लाये, तो उन्होंने गुरू सत्यनाथ का मठ स्थापित करने के साथ-साथ अपनी कुलदेवी राजराजेश्वरी के मन्दिर की स्थापना भी वहां पर की। सत्यनाथ का मन्दिर पहले अनुमानतः एक गुफा के रूप में था। बाद में किन्हीं पीर हंसनाथ ने मन्दिर का निर्माण कराया। तद्नुसार 18 गते आषाढ़ संवत् 1683 वि० (जुलाई सन् 1626 ई०) को किन्हीं प्रभातनाथ ने मन्दिर का जीर्णोद्वार करवाया ...

उत्तराखण्ड में वन सम्बन्धी विभिन्न शब्दावलियों को देखेंः-

 यह लेख उत्तराखण्ड गढ़वाल का जनजीवन नामक पुस्तक जिसके लेखक डॉ0 शिवप्रसाद नैथानी जी है से लिया गया है। कुछ अर्थों जैसे कि डॉ0 नैथानी जी ने ढिकाला के सम्बन्ध में लिखा है वह मुझे उचित प्रतीत नहीं होते क्योंकि वास्तविक अर्थ इससे भिन्न होता है। ऐसे ही अन्य शब्दों के साथ भी हो सकता है। कृपया पढ़ें और ऐसे शब्दों के बारे में कमेंट में बतायेंः- चौबीसी छान - जहां वर्षाकाल में पशुओं, चरवाहों के अस्थाई निवास बनते हों। इसे थाच, धाचर भी कहते हैं। डाबड़ - जहां, चट्टानें टूटी पड़ी हैं, पत्चर बिखरे हैं। एक नाम काबड़ भी है। ढंगार - प्रपाती शब्द का गढ़वाली में पर्यायवाची। बुग्याल- ऊँचाई पर दूब जैसी घास का चारागाह। बुग पौष्टिक घास का नाम भी है। काश्मीर में मर्ग नाम है। भुज्याली - भोज वृक्षों का क्षेत्र। रिंगाली- रिंगाल वनों का क्षेत्र। भाबड़ - एक घास, जिससे रस्सी बनती है। इसे बाब्यो भी कहते है। टिपाल - लीसा एकत्र करने का कार्य। छिलका- लीसा वाली चीड़ लकड़ी जो तेजी से आग पकड़ती है। डल्ली- लीसा का ठोस टुकड़ा। डेकाला - लकड़ी के छोटे टुकड़े। संभवतः डेकाला डिपो होने से ही ढिकाला नाम पड़ा है कार्बेट पार्क में। हेकड़ी- ...

उत्तराखंड से द्वितीय पदम् श्री लक्ष्मण सिंह जंगपांगी

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25 जनवरी 1959 को लक्ष्मण सिंह जंगपांगी, जो पश्चिमी तिब्बत के गरतोक नामक स्थान पर भारतीय व्यापार प्रतिनिधि थे, अलमोड़ा में छुट्टी मना रहे थे। इसी दिन विदेश मंत्रालय द्वारा उनकी ढूंढ हो रही थी ताकि उन्हें राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री से नवाजे जाने की सूचना दी जा सके। उसी दिन शाम को जब पद्म पुरस्कारों की घोषणा हुई तो जंगपांगी जी के दोस्त उनकी खोज सिक्किम के राजनीतिक कार्यालय से लेने लगे। अगले दिन तो तार और पत्रों से बधाइयां आने लगीं। तत्कालीन विदेश सचिव ने जंगपांगी को मिली पदमश्री को कठिन परिस्थितियों और निःस्वार्थ सेवा का सम्मान बताया था। जे. एस. मेहता जो विदेश मंत्रालय में निदेशक (चीन मामले) थे, ने भी इसे सराहा। श्री एस.के. राय जो फ्रंटियर सेवा में विशेष अधिकारी थे, 1956 में श्री जंगपांगी के साथ पश्चिमी तिब्बत की ताकलाकोट, दारचिन, ग्यानिमा तथा गरतोक जैसी मंडियों का दौरा कर चुके थे। वह पहले वरिष्ठ अधिकारी थे जो वहां गये। उन्होंने वहाँ की स्थितियों का प्रत्यक्ष अध्ययन किया। जब श्री राय सिप्की दरें से भारत लौटे तो विदाई के समय उन्होंने व्यापार प्रतिनिधि तथा उनके स्टाफ को अतिमानव कहा था। तिब्...

उत्तराखंड में दलितोद्धार के 'ध्वजावाहकः

 गांधीजी द्वारा चलाये जा रहे 'अछूतोद्धार' कार्यक्रमों के रूप में अपने मुक्ति संघर्ष के लिए विशेष प्रेरणा लेकर इन्होंने उत्तराखंड में शिल्पकारों हेतु अद्वितीय योगदान दिया। उत्तराखंड के दलितोद्धार कार्यक्रमों में जिन हरिजन नेताओं की प्रमुख भूमिका रही उनमें अग्रणी थे- श्री खुशीराम शिल्पकार, बचीराम आर्य, भूमित्र आर्य, हरिप्रसाद टम्टा, जयानंद भारती। इनके द्वारा किये गये दलितोद्धार कार्यक्रमों का किंचित् विवरण इस प्रकार है : खुशीराम शिल्पकार(1847-1971ई०) : सन् 1906 में मोतेश्वर में आयोजित 'शिल्पकार सभा' में इनके द्वारा प्रस्तुत यहां के दलितों के लिए 'शिल्पकार' कहे जाने के प्रस्ताव के फलस्वरूप ही सन् 1921 की जनगणना में इसे स्वीकारा गया। 1932 में इसे प्रशासकीय मान्यता प्राप्त हो गयी। बचीराम आर्य (1909-1980 ई०) : खुशीराम द्वारा चलाये गये अछूतोद्धार के कार्यक्रम को सक्रिय सहयोग मिला उत्साही कार्यकर्ता बचीराम आर्य का। इन्होंने 'शिल्पकार' के स्थान पर 'आर्य' उपनाम का प्रचलन किया। आर्य समाज के सहयोग से इन्होंने आर्य होने के नाते हरिजनों के लिए भी यज्ञोपवीत के ...

कुमाऊँ के पारम्परिक बर्तन भाग-2 में पढ़ें लकड़ी के बने बर्तन

(ब) लकड़ी के बने बर्तन मानव काष्ठ का प्रयोग प्राचीन काल से करता आया है, ऐसा इतिहासकार बताते हैं। लकड़ी की प्रकृति नाशवान होने के कारण काष्ठ प्रयोग के प्राचीन साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। अतः अपने बड़े बुजुर्गों से जो भी ज्ञात हो पाया उसी आधार पर पुरातन काल से आज तक प्रयोग में लाये गये काष्ठ बर्तन इस प्रकार हैं। कच्यालः -रिंगाल व बॉस के रेशों से बना यह जालिकावत गोल बर्तन प्राचीन समय में जंगल से सूखी पत्तियों को समेट कर लाने हेतु प्रयुक्त किया जाता था। वर्तमान में न तो कच्याल बनाये जाते हैं न इनका प्रयोग किया जाता है। कुट्टीः - मसाले कूटने का यह बर्तन लकड़ी के चौकोर टुकड़े में एक गोल छेद युक्त होता है तथा साथ में एक कूटने के लिए लकड़ी का मूसल भी होता है। इसमें अदरक, गरम मसाला, इलायची आदि कूटे जाते हैं। चकली, चकई (चकला) एवं बेलनः यह लकड़ी के बने होते हैं। चकले पर आटे की लोई रखकर रोटी बेली जाती है। सामान्यतः पुराने समय में रोटिया हाथ (में लोई रखकर) से, बिना चकले के उपयोग के ही बनाई जाती थी। छपीः - लकड़ी का बना यह बर्तन उपर की ओर से चौडा व गोल एवं नीचे की ओर से संकरा होता है। इसका उपयोग अनाज क...

कुमाऊं में प्रचलित बर्तन

 मध्य हिमालय का हस्त शिल्प अत्यन्त प्राचीन है। प्राचीन बसासतों पर पुरातात्विक सर्वेक्षण आधारित शोधपत्रों से ज्ञात होता है कि कालान्तर में यहाँ के निवासियों को धातु-कार्यों, शिल्पकार्यों, हस्तकलाओं व काष्ठकलाओं आदि में दक्षता प्राप्त थी। वर्तमान में इस प्रकार के कार्यों में दक्ष लोगों की कमी होने के कारण सम्बन्धित दक्षतापूर्ण कार्य भी कम दिखाई देने लगा है। ताम्रकारिता को छोड़ दिया जाय तो अन्य सभी शिल्प कार्य अपने अन्तिम पड़ाव पर दिखाई पड़ते हैं। चर्मकारिता तो समाप्त हो चुकी है। मिट्टी का कार्य भी कुछ ही वस्तुओं तक सीमित है। काष्ठ के उत्कृष्ठ नमूने केवल पुराने भवनों में ही देखने को मिलते हैं। काष्ठ निर्मित बर्तनो का निर्माण भी लगभग समाप्त हो चुका है। लौह निर्मित वस्तुएँ भी बाजार से खरीद कर प्रयुक्त की जा रही हैं। ऐसी दशा में परम्परागत शिल्प कार्यों के विविध आयामों को लिपिबद्ध करना आवश्यक है क्योंकि इससे हमें अतीत की संस्कृति, सामाजिक प्रणाली, रहन-सहन आदि के बारे में जानने हेतु किसी न किसी निष्कर्ष में पहुँचने में मदद मिल सकती है। उक्त बिन्दु को ध्यान में रखकर प्रस्तुत लेख में कुमाउनी...