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बाड़ाहाट शक्ति स्तंभ

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 विश्वनाथ मंदिर के सामने स्थित है. प्राचीन त्रिशूल (21 फीट ऊंचा) है, जिसमें ब्राह्मी एवं शंख लिपि में लेख प्राप्त हुए हैं. इस त्रिशूल में तीन श्लोक उत्कीर्ण हैं. प्रथम श्लोक में गणेश्वर नरेश द्वारा शिव मंदिर के निर्माण का उल्लेख किया गया है. द्वितीय श्लोक में गणेश्वर के पुत्र श्री गुह का उल्लेख है. तृतीय श्लोक में राजा गुह की शत्रुओं पर विजय करने का उल्लेख है. इस त्रिशूल में अशोकचल्ल द्वारा 1193 ई. में केदार भूमि जीतने का उल्लेख किया गया है.

उत्तराखण्ड का राज्य वृक्ष बुरांस: एक संपूर्ण विवरण

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उत्तराखण्ड की प्राकृतिक सुंदरता का प्रतीक, बुरांस (Rhododendron arboreum) न केवल अपनी सुंदरता के लिए बल्कि पारिस्थितिक, औषधीय और सांस्कृतिक महत्व के लिए भी जाना जाता है । यह उत्तराखण्ड के लोगों के लिए गर्व का विषय है। वैज्ञानिक रूप से ‘रोडोडेन्ड्रोन अरबोरियम’ कहलाने वाला बुरांस , स्थानीय बोलियों में बुरांश, लाल बुरांश, ब्रास या बरह-के-फूल जैसे नामों से भी जाना जाता है । बुरांस पूरे हिमालयी क्षेत्र और पड़ोसी देशों में 800 से 3000 मीटर की ऊंचाई तक पाया जाता है । भारत के अलावा, यह भूटान, चीन, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका, थाईलैंड, पाकिस्तान और तिब्बत में भी मिलता है । स्थानीय तौर पर बुरांश के फूल को कफ्फू फूल भी कहा जाता है। हालांकि कफ्फू शब्द का प्रयोग उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में मोनाल के लिए किया जाता है। सम्भवतः कफ्फू का प्रिय भोजन होने के कारण इसे भी कफ्फू फूल कहा गया हो। बुरांस: वानस्पतिक विशेषताएं बुरांस एक सदाबहार झाड़ी या छोटा पेड़ है, जो आमतौर पर 12 मीटर तक ऊंचा होता है । इसके पत्ते गहरे हरे, चमड़े जैसे और 7 से 19 सेमी लंबे होते हैं, जिनकी निचली सतह पर हल्के भूरे र...

अस्कोट-आराकोट अभियान सम्पूर्ण विवरण

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अस्कोट-आराकोट अभियान उत्तराखंड की एक ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण पदयात्रा है, जो हिमालयी समाज, पर्यावरण और संस्कृति को गहराई से समझने का प्रयास करती है।  यह अभियान हर दस वर्षों में आयोजित होता है और 2024 में इसकी छठी यात्रा का आयोजन हुआ, जो इस अभियान की 50वीं वर्षगांठ भी थी।  अस्कोट-आराकोट अभियान: बिंदुवार विवरण 1. उत्पत्ति और प्रेरणा इस अभियान की शुरुआत 25 मई 1974 को श्रीदेव सुमन की जयंती पर हुई थी। गांधीवादी पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा की प्रेरणा से इस यात्रा की रूपरेखा तैयार की गई थी, जिसमें कुमाऊँ और गढ़वाल विश्वविद्यालयों के छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और ग्रामीणों ने भाग लिया।  2. यात्रा मार्ग और विस्तार अभियान की शुरुआत पिथौरागढ़ जिले के पांगू-अस्कोट से होती है और यह उत्तरकाशी जिले के आराकोट में समाप्त होता है। यह यात्रा लगभग 1150 किलोमीटर लंबी होती है और उत्तराखंड के 7 जिलों—पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी, उत्तरकाशी और देहरादून—के लगभग 350 गांवों से होकर गुजरती है। यात्रा के दौरान पदयात्री 35 नदियों, 16 बुग्यालों, 20 खरकों...

वस्त्र-आभूषण सम्बन्धी शब्दावली (बुक्सा जनजाति)

अंगूठी- मुंदरिया ओवर कोट-बरंडी कोट कंगन-करधनी कड़ा, खड़आ- करधनी, टैंगनी कुंडल-बुन्दा घाघरा-चूड़ी जेवर-गुनिया, घाघरो चुरिया-चीज पहुँची-पाँची पाजेब- चेन पट्टी पायजामा- पैजामा, पतलून फ्रॉक-झुगली बिछुए-बिछिया नाक की बाली- लौंग, फुल्ली सतलड़ी माला-हलेम हँसली-हँसलिया सोना-सोनो कर्णफूल- झुमका/पखरे लिहाफ- खतरी कलाई में पहने जाने वाले चाँदी के आभूषण- खडुआ, परिबंध, पहुँची बाँह में पहने जाने वाले चाँदी के आभूषण- खैला, बात्वक

लूंगला उत्सव

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कृषि प्रधान क्षेत्रों में अपने कठिन कार्यों के बीच यहां के लोग किसी न किसी तरह अपने कुछ पल मनोरंजन व खुशी के लिए निकाल देते हैं। ज्येष्ठ-आषाढ़ में उत्तरकाशी के रवांई क्षेत्र में धान की रोपाई का काम जोरों पर होता है जिसको वे त्यौहार के रूप में मनाते हैं। इस त्यौहार को 'लूंगला' नाम से जाना जाता है। क्षेत्र के लोग आज भी रोपाई का कार्य शुरू करने के लिए शुभदिन-शुभ मुहूर्त निकालते हैं। ढोल बाजों के साथ रोपाई का कार्य आरंभ किया जाता है। किसी दिन एक परिवार के खेतों की रोपाई की जाती है तो दूसरे दिन सभी मिलकर दूसरे परिवार की रोपाई पूरी करते हैं। इस परंपरा को 'पडयाला' या 'सटेर' कहा जाता है। इस अवसर पर यह प्रयास रहता है कि एक परिवार की रोपाई एक ही दिन में पूरी हो जाए। इसलिए आवश्यकतानुसार गांव की महिलाओं व पुरुषों को रोपाई के लिए बुला लिया जाता है। जिससे खेतों में रौनक बढ़ जाती है। बाजगी लोग खेतों की मेड़ पर बैठकर ढोल वादन करते हैं। महिलाएं रोपाई करती हुई लायण, छोड़े, पंवाड़े व बाजूबंद गाती हैं। रोपाई के अवसर पर घरों में पकवान के रूप में स्वाले-पकोड़े, हलुवा-पूरी...

क्यूंसर का मेला

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जनपद के जौनपुर विकास खंड का यह एक लोकमान्य देवता है। इसका मंदिर पालीगाड़ पट्टी में बगसील गांव के अन्तर्गत देवलसारी नामक स्थान पर स्थित है। जहां इसकी पूजा नागराज के रूप में की जाती है। इस स्थान पर आश्विन मास की संक्रांति को एक उत्सव का आयोजन किया जाता है। लोक कथा प्रचलित है कि एक बार इस गांव में एक साधु आया। उसे देवलसारी सेरा बहुत पसंद आया किन्तु यहां के सयाणें ने उसकी प्रताड़ना करके उसे भगा दिया। क्रुद्ध होकर साधु ने श्राप दे दिया कि तुम्हारे इस सेरे में धान की जगह देवदारु के वृक्ष उग जायेंगे, ऐसा ही हुआ। लोगों ने देखा कि खेतों में धान की जगह देवदारु उग आए हैं और जिस स्थान पर साधु बैठा हुआ था, वहां पर एक नाग कुंडली मारे बैठा हुआ है। तब भयभीत होकर गांव के लोगों ने दूध, दही, पुष्प-फल लाकर उसकी पूजा की। पश्चात् उस स्थान पर एक मंदिर का निर्माण कर दिया गया। इस मंदिर में स्थित शिवलिंग के निकट जलकुंडी है। इसके जल के सम्बन्ध में लोगों का कहना है कि आश्विन मास की संक्रांति के दिन जब पुजारी उस जलकुंडी के समक्ष शंख ध्वनि करता है तो जलकुंडी से जल स्वतः ही बाहर की ओर प्रवाहित होने लगता ...

चौखुटिया

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चौखुटिया शब्द उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित एक कस्बे का नाम है। यह कस्बा रामगंगा नदी के तट पर बसा हुआ है। उत्पत्ति: यह शब्द कुमाऊंनी भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है:  * चौ (chau): जिसका अर्थ है "चार"।  * खुट (khut): जिसका अर्थ है "पैर"। इस प्रकार, "चौखुट" का शाब्दिक अर्थ "चार पैर" होता है। चौखुटिया के संदर्भ में, इन "चार पैरों" का अर्थ है चार रास्ते या दिशाएँ जो इस स्थान से विभिन्न ओर जाती हैं। ये चार मार्ग चौखुटिया को रामनगर, कर्णप्रयाग, रानीखेत और तड़ाग ताल से जोड़ते हैं। स्थानीय रूप से "चौखुटिया" शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से इस कस्बे और इसके आसपास के क्षेत्र के लिए किया जाता है।   इसके अतिरिक्त, स्थानीय लोक साहित्य और संस्कृति में भी इस शब्द का प्रयोग मिलता है, जैसे कि चौखुटिया-गेवाड़ क्षेत्र में प्रचलित झोड़ा नामक लोकगीत में। संक्षेप में, "चौखुटिया" एक स्थान का नाम है जिसकी उत्पत्ति कुमाऊंनी भाषा के "चार पैर" अर्थ वाले शब्दों से हुई है, जो यहाँ से निकलने वाले चार महत्वपूर्ण रास्तों को इंगित करता...