संदेश

सुखदेव पांडेय : पहला पद्मश्री पाने वाले उत्तराखंडी

चित्र
मूल रूप से अल्मोड़ा जिले के निवासी सुखदेव पांडेय 1893 देहरादून में जन्में. मदन मोहन मालवीय के प्रिय शिष्य सुखदेव पांडेय गणित और भौतिकी ज्यामिति की 4400 शब्दों की शब्दावली लिखी. बीजगणित तथा त्रिकोणमिति की पुस्तकों का प्रणयन कर ख्याति पाने वाले सुखदेव पांडेय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर थे. सुखदेव पांडेय 1956 में उत्तराखंड से पद्मश्री पाने वाले प्रथम व्यक्ति हैं. सुखदेव पांडेय ने अल्मोड़ा से प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर इलाहाबाद के म्योर कॉलेज से 1917 गणित में एम.एस.सी उत्तीर्ण की. 1918 में सुखदेव पांडेय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में गणित के सहायक प्रोफेसर बने. सेवाकाल में सुखदेव पांडेय एनसीसी  के कमांडिंग ऑफिसर भी रहे. उन्होंने प्रसिद्ध गणितज्ञ डॉ. गणेश प्रसाद के निर्देशन में शोध कार्य भी किया. सुखदेव पांडेय अपनी प्रतिभा और कर्तव्यनिष्ठा के कारण मदन मोहन मालवीय के बहुत करीब थे। 1929 में बिरला एजुकेशन ट्रस्ट की स्थापना घनश्याम दास बिरला द्वारा शेखावटी, पिलानी, राजस्थान में की गई. इस ट्रस्ट के तहत एक इंटरमीडिएट स्कूल पिलानी में स्थापित करवाया गया था. जी. डी...

हिमालयी जड़ी बूटियाँ

हिमालयी क्षेत्र की जड़ी-बूटियों द्वारा विभिन्न रोगों के उपचार के सम्बन्ध में, यद्यपि विस्तृत जानकारी देना यहाँ पर सम्भव नहीं है फिर भी संक्षिप्त में उदाहरण स्वरूप कुछ जड़ी-बूटियों के वानस्पतिक नाम तथा स्थानीय नामों के साथ उनके उपयोगों का विवरण निम्नवत् है- 1. रत्ती (एब्रस प्रिकेटोरियस) जड़ तथा पत्तियाँ कफ, दमा, ज्वर, तथा चक्कर में लाभप्रद। 2. अतीस (एकोनिटम हट्रोफिलम)- बड़े ज्वर तथा उदर जनित अनेक असाध्य रोगों में रामबाण। 3. लटजीरा (एकाइरेन्थस एसपरा)- बीज, चर्मरोगों, सिर दर्द तथा श्वांस रोग में उपयोगी। 4. बेंत (एगलमार्मेलोस)- पत्तियाँ कृमिनाशक तथा गले के दर्द में काम आती हैं। फल गठिया बात की प्रसिद्ध दवा है। 5. बासिंग (अघैटोडावैसिका)- जड़ें खून की बिमारियों में तथा पत्तियाँ कफ, श्वास तथा रतौंधी में लाभप्रद होती हैं। 6. जम्बू (एलियमस्ट्रोचि) इसकी पत्तियों का नमक के साथ गरम पानी में बनाया गया रस घाव एवं जख्मी अंगों को सेकने के काम में आता है। 7. गंद्रायन (एंगोलिकाग्लाओका)- सुगन्धित जड़ें मशाले के अतिरिक्त पेटदर्द. क्षुधा एवं स्वास्थ्य वर्धक। 8. 8. कुर्चापाती (आर्टीमिसिया ...

बाईस जतकाव

चित्र
बाइस जतकाव माने 22 बार सन्तान उत्पत्ति होना। उत्तराखण्डी समाज में कुछ विचित्र की सामाजिक प्रथाएँ भी देखने को मिलती हैं, जैसे - यदि किसी महिला की एक ही पति से 22 संतानें (बाईस जतकाव) पैदा होती हैं तो उस महिला का अपने पति के साथ मकान के छत की धुरी (दोनों ओर की ढालू छत का मिलन बिन्दु) में उनका पुनर्विवाह किया जाता था। जोहार की भोटिया जनजाति में यह पुनर्विवाह 20 संतानोत्पत्ति के बाद होता था। इसी तरह यदि किसी व्यक्ति को मृत समझकर उसकी वैतरणी (कालदान) कर दी गई हो और वह चेतनावस्था में लौटकर पुनः जीवित हो जाय या किसी की मृत्यु की सूचना के आधार पर उसका अंत्येष्टि संस्कार सम्पन्न कर दिया गया हो, लेकिन वह पुनः प्रकट हो जाय तो ऐसे व्यक्ति के नामकरण से लेकर विवाह तक के सभी संस्कार पुनः सम्पन्न करने पड़ते हैं, तभी उसे घर-परिवार के सदस्यों में सम्मिलित किया जा सकता है। डॉ. शेर सिंह बिष्ट जी की पुस्तक कुमाऊँ हिमालय समाज एवं संस्कृति का एक अंश.

राईं गढ़ के नाम पर पड़ा रवाँई

चित्र
रवाँई घाटी का पूर्व नाम 'रांई गढ़' था। जो अब हिमाचल प्रदेश का भाग है। यही राई कालान्तर में रवाँई पुकारा जाने लगा। भारत की आजादी के पश्चात गढ़वाल रियासत का 2 अगस्त 1949 को भारतीय संघ में विलय हो गया। और 1960 में टिहरी से उत्तरकाशी को अलगकर सीमान्त जिले का गठन कर दिया गया। इसकी यमुना घाटी में ही रवाँई का विस्तार है। यहां की धार्मिक व सांस्कृतिक परम्पराएं काफी समृद्ध है। रवाँई-जौनपुर व जौनसार-बावर की संरचना, संस्कृति व रीतिरिवाजों में साम्य है इसीलिए अलग-अलग जिलों में फैले इन क्षेत्रों को 'त्रिगुट' यानी एक प्राण, तीन शरीर एक कहा जाता है। मध्य हिमालय क्षेत्र के रवाँई-जौनपुर व जौनसार बावर में आज भी संयुक्त पारिवारिक परम्परा बेहद समृद्ध है, यहां महिलाओं को परिवार में प्रथम दर्जा दिया जाता है जिस कारण इस क्षेत्र में दहेज जैसी कुप्रथा आज तक घुस भी नहीं पाई है। इसीलिए यहां के राजस्व पुलिस व पुलिस थानों में दहेज प्रताड़तना व हत्या के एक घटना ढूंढे नहीं मिलती।    ai निर्मित प्रतीकात्मक फोटो अपनी अनुपम व अद्वितीय छटा के लिए रवाँई-जौनपुर प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है। रा...

बाड़ाहाट शक्ति स्तंभ

चित्र
 विश्वनाथ मंदिर के सामने स्थित है. प्राचीन त्रिशूल (21 फीट ऊंचा) है, जिसमें ब्राह्मी एवं शंख लिपि में लेख प्राप्त हुए हैं. इस त्रिशूल में तीन श्लोक उत्कीर्ण हैं. प्रथम श्लोक में गणेश्वर नरेश द्वारा शिव मंदिर के निर्माण का उल्लेख किया गया है. द्वितीय श्लोक में गणेश्वर के पुत्र श्री गुह का उल्लेख है. तृतीय श्लोक में राजा गुह की शत्रुओं पर विजय करने का उल्लेख है. इस त्रिशूल में अशोकचल्ल द्वारा 1193 ई. में केदार भूमि जीतने का उल्लेख किया गया है.

उत्तराखण्ड का राज्य वृक्ष बुरांस: एक संपूर्ण विवरण

चित्र
उत्तराखण्ड की प्राकृतिक सुंदरता का प्रतीक, बुरांस (Rhododendron arboreum) न केवल अपनी सुंदरता के लिए बल्कि पारिस्थितिक, औषधीय और सांस्कृतिक महत्व के लिए भी जाना जाता है । यह उत्तराखण्ड के लोगों के लिए गर्व का विषय है। वैज्ञानिक रूप से ‘रोडोडेन्ड्रोन अरबोरियम’ कहलाने वाला बुरांस , स्थानीय बोलियों में बुरांश, लाल बुरांश, ब्रास या बरह-के-फूल जैसे नामों से भी जाना जाता है । बुरांस पूरे हिमालयी क्षेत्र और पड़ोसी देशों में 800 से 3000 मीटर की ऊंचाई तक पाया जाता है । भारत के अलावा, यह भूटान, चीन, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका, थाईलैंड, पाकिस्तान और तिब्बत में भी मिलता है । स्थानीय तौर पर बुरांश के फूल को कफ्फू फूल भी कहा जाता है। हालांकि कफ्फू शब्द का प्रयोग उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में मोनाल के लिए किया जाता है। सम्भवतः कफ्फू का प्रिय भोजन होने के कारण इसे भी कफ्फू फूल कहा गया हो। बुरांस: वानस्पतिक विशेषताएं बुरांस एक सदाबहार झाड़ी या छोटा पेड़ है, जो आमतौर पर 12 मीटर तक ऊंचा होता है । इसके पत्ते गहरे हरे, चमड़े जैसे और 7 से 19 सेमी लंबे होते हैं, जिनकी निचली सतह पर हल्के भूरे र...

अस्कोट-आराकोट अभियान सम्पूर्ण विवरण

चित्र
अस्कोट-आराकोट अभियान उत्तराखंड की एक ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण पदयात्रा है, जो हिमालयी समाज, पर्यावरण और संस्कृति को गहराई से समझने का प्रयास करती है।  यह अभियान हर दस वर्षों में आयोजित होता है और 2024 में इसकी छठी यात्रा का आयोजन हुआ, जो इस अभियान की 50वीं वर्षगांठ भी थी।  अस्कोट-आराकोट अभियान: बिंदुवार विवरण 1. उत्पत्ति और प्रेरणा इस अभियान की शुरुआत 25 मई 1974 को श्रीदेव सुमन की जयंती पर हुई थी। गांधीवादी पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा की प्रेरणा से इस यात्रा की रूपरेखा तैयार की गई थी, जिसमें कुमाऊँ और गढ़वाल विश्वविद्यालयों के छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और ग्रामीणों ने भाग लिया।  2. यात्रा मार्ग और विस्तार अभियान की शुरुआत पिथौरागढ़ जिले के पांगू-अस्कोट से होती है और यह उत्तरकाशी जिले के आराकोट में समाप्त होता है। यह यात्रा लगभग 1150 किलोमीटर लंबी होती है और उत्तराखंड के 7 जिलों—पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी, उत्तरकाशी और देहरादून—के लगभग 350 गांवों से होकर गुजरती है। यात्रा के दौरान पदयात्री 35 नदियों, 16 बुग्यालों, 20 खरकों...