गढ़वाली सैनिक जिन्होंने बकिंघम पैलेस में ब्रिटिश राजा एवं रानी के अंगरक्षक बन उत्तराखण्ड की वीरता का लोहा मनवाया।

निम्नवत् चार वीर सैनिक महाराजा ब्रिटेन के साथ

गढ़वाल राइफल्स का संक्षिप्त परिचय- रॉयल गढ़वाल राइफल्स की स्थापना 1887 में लेफ्टिनेंट कर्नल   ई.पी. मेनवारिंग  ने की थी। वह तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड लैंसडाउन के भतीजे थे और छावनी स्टेशन का नाम उनके शानदार मामाजी के नाम पर रखा गया था। कालोडांडा लैंसडाउन बन गया और ब्रिटिश पर्यटकों के आकर्षण को भारतीय परिदृश्य में रोपित किया गया।  इसका आदर्श वाक्य था "Aucto Splendore Resurgo" (मैं वैभव में वृद्धि के साथ फिर से उठता हूं) गरुड़ के साथ यही आदर्श वाक्य है जिसे रॉयल गढ़वाल राइफल्स के शानदार सैनिकों ने बरकरार रखा है।  1891 में, नीति और बर्मा अभियान ने इसे और मजबूत किया।  1904 कर्नल यंगहसबैंड के तहत ल्हासा अभियान और अफगान हार्टलैंड में बाद के अभियानों ने रेजिमेंट को एबटाबाद छावनी में एक स्थायी स्थान दिया जहां बाद में प्रसिद्ध डाकू ओसामा बिन लादेन मारा गया।  रेजिमेंट में केवल ब्रिटिश अधिकारी थे और इसकी प्रतिष्ठा भारतीय सेना रेजिमेंटों में सबसे बड़ी थी।  1910 में, रेजिमेंट के चार सैनिकों को राजा सम्राट एडवर्ड सप्तम से मिलने के लिए चुना गया और राजा सम्राट को मानद एडीसी घोषित किया गया।  वे सूबेदार मेजर अमर सिंह नेगी (बलभद्र सिंह नेगी के पुत्र, भारतीय सेना में क्षेत्र आधारित रेजिमेंट के संस्थापक और कमांडर इन चीफ के एडीसी), सूबेदार बैज सिंह रावत (सीताना के पागल मुल्ला को घुटनों पर लाने वाले सेनानी और ओबीई) थे।  उम्र 28 वर्ष, बडियारगढ़ पट्टी के गांव ग्वाड़ निवासी), सूबेदार बुद्धि सिंह नेगी और सूबेदार गलथी सिंह नेगी, राजा सम्राट की असामयिक मृत्यु के कारण, उन्हें अंतिम संस्कार से पहले रात्रि जागरण के लिए चुना गया था।

आज हम जानेंगे सुबेदार बैज सिंह रावत को जिन्होंने सिताना के मैड मुल्ला को गिरफ्तार किया था।


    सूबेदार बैज सिंह रावत जिन्हें आप उत्तराखण्ड में वीर परम्परा के पुरोधा भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इनका जन्म 18 जनवरी, 1869 को ग्वाड़ गांव बडियारगढ़ पट्टी, टिहरी में फकीरा सिंह रावत के घर में हुआ था।1887 में बैजू रावत 2/3 गढ़वाल राहफल्स में भर्ती हो गये, बाद में यही पलटन 39 रेजिमेंट बनी। 1897 में उत्तर-पश्चिम सीमान्त में भेजा गया। 1897 में इन्हें OBI (आर्डर आफ ब्रिटिश इंडिया) से सम्मानित किया गया। 1914 में इन्होंने फ्रांस के युद्ध में भाग लिया। ने 30 जून, 1932 में बैज सिंह रावत जी का निधन हो गया। सूबेदार बैज सिंह रावत सम्भवतः पहले गढ़वाली सैनिक थे जिन्होंने इंग्लैण्ड की यात्रा की थी। सूबेदार बैज सिंह रावत के नेतृत्व में 3 अन्य गढ़वाली सैनिक भी बंकिघम पैलेस में राजा के अंगरक्षक थे। जिनके नाम एवं विवरण फोटो एवं उपरोक्त दिया गया है। 

    मुख्य कार्य जिसके कारण हम बैज सिंह रावत को वीर परम्परा का पुरोधा कह रहे हैं उसका कारण है सिताना में ब्रिटिशों का कत्लेआम करने वाले वहां के एक मुल्ला जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने मैड मुल्ला घोषित किया था को न केवल पकड़ा बल्कि उसे पकड़कर अम्बाला ले आये। जिस मैड मुंल्ला ने ब्रिटिशों की निर्मम हत्या की थी उसे पकड़कर लाना ठीक उसी तरह है जैसे आपने केसरी फिल्म में सिक्ख रेजीमेंट के कौशल को देखा होगा जो एक किले में कैद हो गये थे। पंजाब सरकार के सहयोग से उसपर तो एक फिल्म बन गई किन्तु उत्तराखण्ड के जागरूक वर्ग एवं सरकार ने इस दिशा में अब तक न तो सोचा न ही कार्य किया। कोशिश हुई भी तो उसे अन्जाम तक नहीं पहुंचने दिया गया।  जो भी हो बैज सिंह रावत जैसे न जाने कितने ही सैनिक एवं वीरों ने हमें गौरवान्वित किया है। 

जय बद्रीविशाल जय हिमाल।




टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उत्तराखंड के लेखक और उनकी प्रमुख पुस्तकें- भाग-1

कुमाऊँनी मुहावरे और लोकोक्तियाँ भाग-01

उत्तराखण्ड भाषा का विकास भाग-02 गढ़वाली भाषा