दल-बदल

दल-बदल

दल-बदल का साधारण अर्थ एक-दल से दूसरे दल में सम्मिलित होना हैं । इसमें निम्नलिखित स्थितियाँ सम्मिलित हैं -

1. किसी विधायक का किसी दल के टिकट पर निर्वाचित होकर उसे छोड़ देना और अन्य किसी दल में शामिल हो जाना ।

2. मौलिक सिध्दान्तों पर विधायक का अपनी पार्टी की नीति के विरुध्द योगदान करना ।
किसी दल को छोड़ने के बाद विधायक का निर्दलीय रहना ।

दल-बदल कानून व संसद सदस्यता

भारतीय संविधान में प्रजातत्रिक मूल्यों एवं सिध्दांतों को विशेष महत्व प्रदान किया गया है। प्रजातांत्रिक प्रक्रिया चुनाव व्दारा चुने गये जन प्रतिनिधियों (सांसद/विधायक) को विशेषाधिकार प्रदान किया गया है तथा उन्हें अपने क्षेत्र की जनता की आव़ज माना जाता है। लोकसभा या विधानसभा (विधायिक) में वे अपने मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

विगत पंचवर्षीय योजना के पूर्व एक जनप्रतिनिधि को वे समस्त अधिकार संविधान व्दारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ ही प्रदान किये गये थे, जिनकी संसद में मान्यता (लोकसभा) में जनप्रतिनिधि अधिनियम में संशोधन करके दलगत मर्यादा एवं संस्कारों में बांध दिया गया। नती़जतन एक जनप्रतिनिधि की वैचारिक अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने हेतु , यह अधिनियम पास कर दिया गया कि यदि जन-प्रतिनिधि वैयक्तिक या वैचारिक कारणों से किसी अन्य दल में चला जाता है तो उसकी संसद सदस्यता समाप्त समाप्त कर दी जाती है। सवैधानिक नियमों एवं जन इच्छाओं की स्वतंत्रता को इससे भले ही कोई क्षति ना हुई हो, विंâतु प्रजातांत्रिक सिध्दांतों एवं मानदण्डों के आधार पर यह उपयुक्त नहीं कहा जायेगा।

संविधान व्दारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से उस जनप्रतिनिधि को वंचित कर दिया जाता है, जिस की संसद सदस्यता दल-बदल के चलते समाप्त कर दी जाती है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि एक प्रत्याशी चुनाव में चुने जाने पर ही सांसद या विधायक बनता है। सभा में उसे चुन कर भेजने में मतदाता अपने मतदान के मौलिक अधिकार का उपयोग करते हैं। मतदाताओं को यह अपेक्षा होती है कि उनके व्दारा चुना गया विधायक या सांसद सभा में उनकी भावनाओं एवं विचारों का प्रतिनिधित्व करेगा। किंतु नवीनतम् दल बदल कानून के तहत मतदाताओं के मतों की अवमानना होती है, जो प्रजातंत्र के लिए एक विकट परिस्थिति है। किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता सभा से निरस्त करने का तात्पर्य मतदाताओं के मतों का अपमान ही कहा जायेगा तथा निरस्त कर्ता अधिकारी पर चुनाव आचार संहिता उल्लंघन का मामला बनता है विंâतु दल-बदल नियंत्रक कानून के तहत यह जाय़ज करार दिया जाता है।

लोगों का मानना है कि एक दलीय उम्मीदवार चुनाव में दल की प्रतिष्ठा पर जीतता है , अध्र्द सत्य है। दलगत प्रतिष्ठा चुनावी जीत का एक मात्र घटक होती है। चुनाव में उम्मीदवार की चरित्र,योग्यता, जननिष्ठा एवं कर्तव्य परायणता का भी भरपूर योगदान होता है। इस लिए मात्र दल का विरोध कर दल बदलने वाले की दलीय सदस्यता ही भंग किया जाना उचित है, संसद सदस्यता नहीं। मतदाता उसे चुन कर संसद में भेजते हैं न कि किसी राजनैतिक दल में। उसकी संसद सदस्यता बरकरार रहनी चाहिए चाहे वह निर्दलीय रुप में हो या नये दल के सदस्य के रुप में । संसद सदस्यता बिना किसी महाभियोग के निरस्त करने का अधिकार मतदाताओं का है। इस निरस्त करण में यदि आवश्यक है तो पन:उसी चुनावी प्रक्रिया से गुजरना प़डता है। मतदाता दलबदल के कारण उसे वापस बुलालें या पुन: उसे बहाल रखें। यही सर्वोत्तम है तथा पजातांत्रिक भी।

राजनीति की बुराई पर अंकुश

1985 में सत्ता संभालने के साथ ही राजीव गांधी ने 52वें संविधान संशोधन के जरिए देश के संसदीय लोकतंत्र की एक बड़ी बुराई दल-बदल पर अंकुश लगाने की कोशिश की थी। इस तरह दसवीं अनुसूची, जिसे आमतौर पर दलबदल विरोधी कानून कहा जाता है, को संविधान में जोड़ा गया था। मगर इस कानून में कमियां बरकरार हैं। इन्हीं का फायदा उठाकर नरसिंह राव ने अपनी अल्पमत सरकार को बचा लिया था। उसके बाद एनडीए सरकार ने 2003 में 90वें संशोधन के जरिए इस कानून को सख्त करने की कोशिश की थी।

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