रम्माण एक लोक संस्कृति


रम्माण क्या है
रम्माण उत्सव उत्तराखंड के चमोली जिलेके सलूड़ गांव में प्रतिवर्ष अप्रैल में आयोजित होता है। इस गांव के अलावा डुंग्री, बरोशी, सेलंग गांवों में भी रम्माण का आयोजन किया जाता है। इसमें सलूड़ गांव का रम्माण ज्यादा लोकप्रिय है। इसका आयोजन सलूड़-डुंग्रा की संयुक्त पंचायत करती है। रम्माण मेला कभी 11 दिन तो कभी 13 दिन तक भी मनाया जाता है। यह विविध कार्यक्रमों, पूजा और अनुष्ठानों की एक श्रृंखला है। इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नृत्य, गायन, मेला आदि विविध रंगी आयोजन होते हैं। इसमें परम्परागत पूजा-अनुष्ठान तथा मनोरंजक कार्यक्रम भी आयोजित होते है। यह भूम्याल देवता के वार्षिक पूजा का अवसर भी होता है एवं परिवारों और ग्राम-क्षेत्र के देवताओं से भेंट करने का मौका भी होता है।

रम्माण नाम की उत्पत्ति

अंतिम दिन लोकशैली में रामायण के कुछ चुनिंदा प्रसंगों को प्रस्तुत किया जाता है। रामायण के इन प्रसंगों की प्रस्तुति के कारण यह सम्पूर्ण आयोजन रम्माण के नाम से जाना जाता है। इन प्रसंगों के साथ बीच-बीच में पौराणिक, ऐतिहासिक एवं मिथकीय चरित्रों तथा घटनाओं को मुखौटा नृत्य शैली के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।

नृत्य शैली-

*.रम्माण उत्सव में जिस नृत्य शैली का उपयोग किया जाता है, वह मुखौटा नृत्य शैली है। इस में नृत्यक अपने मुख में मुखौटा पहनता है, फिर नृत्यकला का प्रदर्शन करते है।

*.इसमें कोई भी संवाद पात्रों के बीच नहीं होता। पूरी रम्माण में 18 मुखौटों, 18 तालों, एक दर्जन जोड़ी ढोल-दमाऊ व आठ भंकोरों के अलावा झांझर व मजीरों के जरिए भावों की अभिव्यक्ति दी जाती है।

        मुखौटों के दो रूप हैं।
■◆ पहला- द्यो पत्तर यानी देवताओं के मुखौटे।
■◆ दूसरा- ख्यल्यारी पत्तर यानी मनोरंजन के मुखौटे।

       रम्माण के विशेष नृत्य
● बण्या-बण्याण :-यह नृत्य तिब्बत के व्यापारियों पर आधारित, जिस में उन पर हुए चोरी व लूटपाट की घटना का विवरण नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करते है।

● म्योर-मुरैण :-यह नृत्य पहाड़ो पर होने वाली दैनिक परेशानीयों जैसे :- पहाड़ों में लकड़ी और घास काटने के लिए जाते समय जंगली जानवरों द्वारा किए जाने वाले आक्रमण का चित्रण होता है।

●माल-मल्ल :- इस नृत्य में स्थानीय लोगो व गोरखाओं के बीच हुए युद्ध का वर्णन होता है।

●कुरू जोगी :- यह एक प्रकार का हास्य नृत्य है, इस में रम्माण का हास्य पात्र, जो अपने पूरे शरीर पर चिपकने वाली विशेष प्रकार की घास (कुरू) लगाकर लोगों के बीच चला जाता है। कुरू चिपकने के भय से लोग इधर-उधर भागते हैं, लेकिन कुरू जोगी उन पर अपने शरीर में चिपके कुरू को निकालकर फेंकता है। सामान्य भाषा में इसे एक जोकर की संज्ञा दी जा सकती है, जो लोगो को हँसाने और मनोरंजन करने का कार्य करता है।

सलूड़-डुंग्रा से विश्ब धरोहर तक का सफ़र>

रम्माण कौथिग (उत्सव) वर्ष 2007 तक सलूड़ तक ही सीमित था। लेकिन गांव के ही शिक्षक डॉ. कुशल सिंह भंडारी की मेहनत का नतीजा था, कि आज रम्माण को विश्व धरोहर में स्थान मिला हुआ है। डॉ. भंडारी ने रम्माण को लिपिबद्ध कर इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। उसके बाद इसे गढ़वाल विविलोक कला निष्पादन केंद्र की सहायता से वर्ष 2008 में दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र तक पहुंचाया। इस संस्थान को रम्माण की विशेषता इतनी पसंद आयी कि कला केंद्र की पूरी टीम सलूड-डूंग्रा पहुंची और वे लोग इस आयोजन से इतने अभिभूत हुए कि 40 लोगों की एक टीम को दिल्ली बुलाया गया। इस टीम ने दिल्ली में भी अपनी शानदार प्रस्तुतियां दीं। बाद में इसे भारत सरकार ने यूनेस्को भेज दिया।

2 अक्टूबर 2009 को यूनेस्को ने पैनखंडा में रम्माण को विश्व धरोहर घोषित किया। तथा आईसीएस (ICS) के दो सदस्यीय दल में शामिल जापानी मूल के होसिनो हिरोसी तथा यूमिको ने ग्रामवासियों को प्रमाण पत्र सौंपे।

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