1822 की क्रांति


🔤ℹ️ 1857 से पहले 1822 में  सर्वप्रथम हरिद्वार जिले के कुंजाबहादुरपुर गांव के गुर्जर क्रांति का बिगुल  बजा चुके थे।
🔤ℹ️ ये गांव हामड़े गोत्र के गुर्जरो का गांव है। 
🔤ℹ️ इस गांव मे सर्वप्रथम गुर्जरो द्वारा अंग्रेजो के विरुद्ध संघर्ष किया इस गांव के कुँए मे अंग्रेजो ने कांच के टुकड़े पीसकर डाल दिए जिससे काफी गुर्जरो की पानी पीने की वजह से मौत हो गई केवल वही बच पाये जो या तो गांव से बाहर थे या माँ के पेट मे थे। 
🔤ℹ️ इस वजह से गांव के बासियो को पीने तक का पानी नसीब नही हुआ। 
🔤ℹ️ ये वही वीर गुर्जरो का गांव है जहा बच्चे बच्चे की रगो मे दौड़ रहा भारत माँ का खून है जिन्होंने समय समय पर अपने देश के लिए अपना सीना आगे कर दिया गोली खाने के लिए आज गांव से बहुत से नौजवान भारतीय सेना मे नौकरी कर रहे है।
 🔤ℹ️ इस गांव मे सेंकडो लोगो को अंग्रेजो ने फ़ांसी पर लटका दिया था।
🔤ℹ️ सर्वप्रथम अंग्रेजो द्वारा फांसी कुंजा बहादुरपुर के हामड़े गोत्र के वीर गुर्जरो को दी गई थी।
🔤ℹ️ इस गांव के वीरो की वीरबानिया (शादीशुदा औरतें) देश के लिए विधवा हुए बहुत-सी माँओं ने अपने बच्चे खोये किसी ने अपना पति खोया किसीने भाई खोया सब देश के लिए ओर देशवासियो के लिए।

कुंजा बहादुरपुर उन दिनों लंढौरा रियासत का एक भाग था। इसमें उस समय 44 गांव आते थे। 1913 में लंढौरा के राजा रामदयाल सिंह के देहांत के बाद रियासत की बागडोर उनके पुत्र राजा विजय सिंह ने संभाली। उन दिनों  प्रायः सभी भारतीय राजा और जमींदार अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे; पर गंगापुत्र राजा विजय सिंह किसी और ही मिट्टी के बने थे।
राजा विजय सिंह ने विदेशी और विधर्मी अंग्रेजों के आगे सिर झुकाने की बजाय उन्हें अपनी रियासत से बाहर निकल जाने का आदेश सुना दिया। वीर सेनापति कल्याण सिंह भी राजा के दाहिने हाथ थे। ➽➤ 1822 ई. में सेनापति के सुझाव पर राजा विजय सिंह ने अपनी जनता को आदेश दिया कि वे अंग्रेजों को मालगुजारी न दें, ब्रिटिश राज्य के प्रतीक सभी चिन्हों को हटा दें, तहसील के खजानों को अपने कब्जे में कर लें तथा जेल से सभी बन्दियों को छुड़ा लें। जनता भी अपने राजा और सेनापति की ही तरह देशाभिमानी थी। उन्होंने इन आदेशों का पालन करते हुए अंग्रेजों की नींद हराम कर दी।
अंग्रेजों ने सोचा कि यदि ऐसे ही चलता रहा, तो सब ओर विद्रोह फैल जाएगा। अतः सबसे पहले उन्होंने राजा विजय सिंह को समझा बुझाकर उसके सम्मुख सन्धि का प्रस्ताव रखा; पर स्वाभिमानी राजा ने इसे ठुकरा दिया। अब दोनों ओर से लड़ाई की तैयारी होने लगी। सात सितम्बर, 1824 की रात को अंग्रेजों ने गांव कुंजा बहादुरपुर पर हमला बोल दिया। उनकी सेना में अनेक युद्ध लड़ चुकी गोरखा रेजिमेंट की नौवीं बटालियन भी शामिल थी।
राजा विजय सिंह और सेनापति कल्याण सिंह जानते थे कि अंग्रेजों के पास सेना बहुत अधिक है तथा उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी आधुनिक प्रकार के हैं; पर उन्होंने झुकने की बजाय संघर्ष करने का निर्णय लिया। राजा विजय सिंह के नेतृत्व में गांव के वीर युवकों ने कई दिन तक मोर्चा लिया; पर अंततः तीन अक्तूबर, 1844 को राजा को युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त हुई।
इससे अंग्रेज सेना मनमानी पर उतर आयी। उन्होंने गांव में जबरदस्त मारकाट मचाते हुए महिला, पुरुष, बच्चे, बूढ़े.. किसी पर दया नहीं दिखाई। उन्होंने सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार कर लिया। गांव में स्थित सुनहरा केवट वृक्ष पर लटका कर एक ही दिन में 152 लोगों को फांसी दे दी गयी। इस भयानक नरसंहार का उल्लेख तत्कालीन सरकारी गजट में भी मिलता है।
कैसा आश्चर्य है कि दो-चार दिन की जेल काटने वालों को स्वाधीनता सेनानी प्रमाण पत्र और पेंशन दी गयी; पर अपने प्राण न्यौछावर करने वाले राजा विजय सिंह और कुंजा बहादुरपुर के बहादुरों को कोई याद भी नहीं करता।


जाकर देखो आज भी उस गांव के बासिंदो को उन्हें फक्र है अपने पूर्वजो जिन्होंने अपने खून का कतरा देश के लिए कुर्बान कर दिया। जब दुनिया सो रही थी तब रात को इसी गांव के नौजवान अंग्रेजो से टक्कर ले रहे थे।

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