गढ़वाल के कुछ वीर

कुछ वीर गढ़रत्न

1- लोदी रिखोला गढ़वाल के भीम इतने शक्तिशाली पहलवान थे की नजीबाबाद के किले के मुख्य द्वार को उखाड़कर स्वयं रिखनी ख़ाल उठाकर ले आये थे 

2- पन्थ्या काला ने तत्कालीन राजा के काले कानून का निरंतर तीव्र विरोध कर सत्याग्रह करते हुए अंत में आत्म दाह कर काले कानून को समाप्त करवा कर ही जनता को राहत दिलाई 

3- माधो सिंह भंडारी शूरमा थे जिन्होंने मलेथा जैसी ऊसर भूमि के लिए गूल निकालने के लिए ही पहाड़ काटकर एक नहर बना दी जिसके लिए उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र की बलि दे दी थी!

4- गढ़ भूमि की लक्ष्मीबाई कहलाने वाली वीरांगना तीलू रौतेली ने गढ़वाल की पूर्वी सीमा पर आक्रमणकारी एवं अत्याचारी कत्यूरों से निरंतर सात वर्षों तक जूझते हुए त्रस्त सीमान्त जनता को राहत की सांस दिलाई !

5- अंग्रेजी राज्य में शौर्यपुन्ज दरबान सिंह नेगी तथा गबर सिंह नेगी ने द्वितीय महायुद्ध के दौरान फ़्रांस में दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए और मरणोपरांत विक्टोरिया क्रोस नामक तत्कालीन सर्वोच्च शौर्य पदक प्राप्त कर गढ़वाल का नाम रोशन किया   !

6- दूसरे  महायुद्ध के दौरान ही तोता राम थपलियाल ने एक विशेष गढ़वाली पलटन खड़ी की और उसका नेतृत्व कर अपूर्व साहस व शौर्य का परिचय देकर सम्मान खडग (स्वोर्ड ऑफ़ हॉनर ) प्राप्त किया !

7- इसी अंग्रेजी शासन काल में पेशावर कांड के नायक चन्द्रसिंह गढ़वाली ने अपने ही भारतीयों पर गोली न चलाने की हुक्म उदूली करके भारतीय सेना में स्वतंत्रता सेनानी के रूप में सर्वप्रथम पहल की !

8- शहीद श्रीदेव सुमन ने अपने अंचल को तत्कालीन राजतन्त्र से मुक्ति दिलाने के लिएकठिन एवं अमानवीय यातनाएं झेलते हुए अपना बलिदान दे दिया !

9- गढ़ चाणक्य कहलाने वाले वीर पुरिया नैथानी ने सुन्नी मुसलमान शहंशाहे -हिंद औरंगजेब के दरबार में जाकर निर्भयतापूर्वक अरबी -फारसी में वार्तालाप कर अपने वाक्चातुर्य से गढ़वाल राज्य को जजिया कर से मुक्ति दिलाई ! और सय्यद मुस्लमान से कोटद्वार भाभर के इलाके को मुक्त करवाया और इस्लामी सेना द्वारा गढ़वाल के मंदिरों को तोड़ने से रुकवाया !

10- सन 1962 के भारत चीन युद्ध में 300 चीनी सैनिको को मौत की नींद सुलाकर भारत माँ की रक्षा करते हुए खुद भी अरुणांचल की तवांग घाटीें सदा के लिए सोया वीर जवान जसवंत सिंह आज भी जसवंत गढ़ में अपनी ड्यूटी दे रहा है! जो आज भी ड्यूटी के दौरान जवानों को सोने नहीं देता !

टिप्पणियाँ

  1. धामी जी,
    बहुत उम्दा जानकारी।
    रिखणीखाल का नाम रिखोला लोदी के नाम से है, यह पता चला।
    लेकिन रिखोला लोदी का शौर्य सिरमौर विजय के कारण अधिक प्रसिद्ध है। ये वहाँ से अपनी कुल देवी का निशान छुड़वा कर लाये थे। इनकी सिरमौर विजय की याद में उत्तरकाशी, टिहरी के जौनपुर, प्रतापनगर, एवं देहरादून का जौनसार में आज भी रिख बग्वाल(बूढ़ी बग्वाल) मनाई जाती है। इसी से पता चलता है कि ये इसी क्षेत्र के रहने वाले थे, क्षेत्रीय सामंत थे।
    माधो सिंह भंडारी की वीरता का प्रतीक मलेथा की गूल नहीं, यह तो उनके इंजीनियरिंग कौशल का प्रतीक है। बेटे की कुर्बानी समर्पण का प्रतीक है। वीरता थी रानी कर्णावती (नकटी रानी) की सेना का कई युद्धों में नेतृत्व, मुगलों पर विजय। और सबसे बड़ी विजय तिब्बत विजय। जिसकी याद में आज भी एगाश बग्वाल मनाई जाती है। तिब्बत में माधो सिंह भंडारी ने ओडा गाड़ कर सीमा स्थापित की थी, जिसका पालन तिब्बतियों ने हमेशा किया, यहाँ तक कि 1962 के युद्ध मे चीन तक ने भी। उससे पूर्व तिब्बती शासन टिहरी के भल्डियाणा तक था। धरासू का पूर्व नाम दारशुंग, ज्ञानसू का गियांगशुंग था।
    जानकारी का स्रोत- "गढ़वाल की महान विभूतियां" इसके लेखक का नाम मुझे याद नहीं,
    और महापंडित राहुल सांकृत्यायन की "गढ़वाल" तथा "मेरी जीवन यात्रा" ।

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  2. मलेथा की गूल भड़ माधो सिंह का पोस्ट रिटायर मेंट का कार्य था।

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