सीमांत की अनोखी बैशाखी जो बिच्छू घास लगाकर आयोजित होती है।


      ले गुड़ खा, साल भर सांप-कीड़े नहीं दिखेंगे कहकर सुबह ही ईजा देशान(बिस्तर) में गुड़ दे दिया करती थी, और मैं बड़ी उत्सुक्तावस गुड़ खाते हुए उठता था कि आज कहाँ धमाका होने वाला है. धमाका दरअसल हर बैशाखी को हमारे क्षेत्र मे होता था, हम तो छोटे थे पर दीदी, ददा, और भाभियाँ आज के दिन बहुत सतर्क रहती थी क्योंकि आज का दिन सच में हंगामे और धमाके का होता था। हमारे सीमांत में होली तो नहीं मनाई जाती पर ये त्यौहार किसी होली से कम नहीं होता, हालांकि सब अपनी दिनचर्या में व्यस्त पर सजग होते थे आज के दिन न जाने कब कहाँ से भाभी, देवर, ननद, साली, जीजा कोई भी आ जाये और सिन्ने से हमला कर दे। जी हाँ सिन्ने से वही सिन्ना जिसे आप बिच्छू घास या कंडाली के नाम से जानते हैं।

          तब जब हम बच्चे थे एक खुशी ये भी होती थी कि आज के दिन हमारे मासाब घर से बाहर नहीं निकलेंगे, क्योंकि हर वर्ष की तरह इस बार भी बड़ी दीदी लोगों ने मासाब को सिन्ना लगाके बेहाल करना है। गाँव में चूंकि एक ही बिरादरी के अधिकतर लोग थे, और जिनके मज़ाक के रिश्ते नहीं होते थे उनके लिए मासाब आसान शिकार थे, क्योंकि वो बाहर के थे उनसे कोई रिश्ता गाँव वालों का नहीं था, गुरु-शिष्य के अतिरिक्त तो वो सिन्ने की चपेट में जरूर आते थे हर वर्ष या फिर वो कमरे के बाहर नहीं निकलते थे।

      ये एक अनूठी परम्परा है सीमांत की, हालांकि अब यह परम्परा मृत प्रायः है पर अब भी रिवाज के नाम पर सिन्ने का डंक जरूर लगाया जाता है। माना जाता है कि आज के दिन सिन्ने का डंक मारने और गुड़ खाने से साल पर विष और विषैले कीड़ों, सांप या विषैले पौधों से दूरी बनी रहती है। बैशाखी को सीमांत क्षेत्र में विषपति के रूप में मनाते है। होता ये है कि लंबे-लम्बे सिन्ने के ढांक को काटा जाता है, पीछे से छीलकर या कपड़े से लपेटकर लोग दूसरों पर जमकर सिन्ना लगाते है। ये भी होली की भांति केवल मज़ाक के रिश्तों में ही खेला जाता है। मुँह और शरीर का सुजना औए उसमें शाम को मक्खन लगाकर राहत देना तो उन दिनों हर घर में रहता था। कई बार ददा, भाभी या दीदी लोगों को इतना सिन्ना लगता था कि उन्हें बुखार तक हो जाता था।
       जैसे-जैसे हम बड़े हुए वैसे-वैसे ये परम्परा समाप्ति की और ढल जरूर गई पर आज भी इस परंपरा का निर्वहन हर सीमान्तवासी करता है। इतने वर्षों के अध्ययन और विविध शौधों के बावजूद इस परंपरा का जिक्र न होना मुझे आश्चर्यचकित करता है। कारण जो भी हो मैं इसे सिन्ने की होली के रूप में देखता हूँ जो अब केवल परम्परा के रूप में एक डंक सिन्ना और गुड़ खाने तक ही सीमित रह गई है।

  

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