थारू जनजाति Part-1

थारू जनजाति की विशेषता– थारू जनजाति को सन 1967 में भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया था. थारू जनजाति के अंतर्गत 7 उपसमूह आते हैं राणा(थारू),बुक्सा, गडौरा, गिरनामा, जुगिया दुगौरा, सौसा, एवं पसिया. इन जनजातीय समुदायों के 12 गाँव उधमसिंह नगर जिले में हैं. थारू जनजाति के लोग स्वयं को थार भूमि का मूल निवासी मानते हैं. थारू जनजातीय लोगों ने उधमसिंह नगर जिले में अपने राजाओं के नाम से 12 गांवों को बसाया था. जिनमें से प्रमुख हैं सिसौदिया राजा के नाम से सिसौना गाँव, रतन सिंह के नाम से रतनपुर इसी प्रकार से पूरनपुर, प्रतापपुर, वीरपुर आदि गाँव इन जनजातीय लोगों ने बसाए.

आजादी से पूर्व जनसमाज में थारु के स्थान पर और सन 1950-55 तक इनके लिए थरूआ शब्द का प्रयोग होता था। स्वयं थारू भी अपने लिए थरूआ और थरूनिया शब्द का प्रयोग करते थे। इन पंक्तियों का लेखक स्वयं इस क्षेत्र में 1950 से लगातार रह रहा है और इस जनजाति के जो भारतीय क्षेत्र में रहती है, के बहुत सन्निकट रहा है। चूंकि नेपाल भी सीमावर्ती क्षेत्र है, इसलिए उस क्षेत्र के थारूओं से भी निकट का परिचय स्वाभाविक है। इस लिए किसी अन्य क्षेत्र से कुछ दिनों के लिए आकर उन पर लिखना और स्वंय उनके बीच में रह रहे जिज्ञासु व्यक्ति द्वारा इन पर लिखना स्वाभाविक रूप से अधिक वास्तविक होगा। जहां तक मेरे विश्वास का प्रश्न है, मैं कुछ विद्वानों के इस मत से कि थारू शब्द की उत्पत्ति तरू शब्द से हुई है, पूर्ण सहमत हूं। जंगलों के मध्य दुर्गम तरू क्षेत्र में आवासित मानव समूह के सदस्यों के लिए उसी प्रकार तरूआ और पिफर अपभ्रंषित होकर थरूआ प्रयोगित होने लगा होगा जैसे कि पहरा देने वाले के लिए पहरूआ और शहर में रहने वाले के लिए शहरूआ शब्दों को सामान्यतः बोला जाता है। हो सकता हे कि यह धारणा भ्रान्त हो किन्तु इस में बल तो लगता ही है।

नार्थ-वैस्टर्न प्राविन्सेज सेन्सक्स रिपोर्ट-1867-वा-1, पृष्ठ-67- सम्भवतः थारू भी थरूआ से ही बना। अन्य धारणाएं है-
  • जनगणना प्रतिवेदन 1867 में थारू शब्द की उत्पत्ति तरुवा शब्द से मानी जाती है। तरुवा का अर्थ होता है भीगना जो कि सम्भवतः तराई की अत्यधिक वर्षा के कारण ये नाम मिला है।
  • एशियाटिक सोसायटी आफ बेंगाल-1847, 
  • ताहरे पड़ाव डालनाद्ध से- अवध गजेटियर 1887 वा-2, पृष्ठ-126
  • थरूआ शब्द से- एस.नोल्स-गौस्पेल इन गोण्डा, पृष्ठ-214
  • थारू शब्द से ही-विलियम क्रुक्स-दि ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स आपफ नौर्थ वैस्टर्न प्रावि. एण्ड अवध 1896-वौ-9 पृष्ठ-381
  • थार शब्द से- जे.सी.नेस्पफील्ड- डिस्क्रिप्शन आपफ दि मैनर्स्, इण्डस्ट्रीज, रेलिजन- आपफ थारूज एण्ड बोक्सा ट्राइब आपफ अपर इण्डिया-1885, पृष्ठ-115
  • थथरना नार्थ वेस्टर्न प्राविन्सेज गजेटियर-1881-वा-ग्यार, पृष्ठ-354
  • उ.प्र.डिस्ट्रिक्ट गजेटियर-संस्करण, 1992 इस शब्द की उत्पत्ति उपरोक्त के अतिरिक्त तरहुआ ;गीला, अत्यधिक शराबीद्ध, ;मदिराद्ध, संस्कृत शब्द स्थल के अपभ्रंश- थल, थारस, और तराई शब्द से भी इंगित करता है।
वस्तुतः वास्तविकता भूत के गर्भ में है। साक्ष्यों के आधार पर जो जानकारी मिलती है, वह मात्र इतनी ही है। विभिन्न जातियों-जनजातियों के नाम करण के सम्बन्ध में अनेकानेक कहानियां और मिथक जुड़े होने के कारण स्वंय उनके नाम भी विवादित रहे हैं। जिस प्रकार थारूओं के जातिनामकरण के सम्बन्ध में विद्वानों का मतैक्य नहीं है, उसी प्रकार इस जनजाति का उदभव भी विवादों का पर्याय बन कर रह गया है। मूलतः ये किस नस्ल से आए स्वंय यह भी सि( नहीं है और न ही वर्तमान स्थिति पर ही विद्वान एक मत हैं। चूंकि थारू भारत की पश्चिमी हिमालय तराई की दो तहसीलों में प्रमुखता से निवास करते हैं और बहुसंख्यक रूप से ये नेपाल की लगभग सम्पूर्ण तराई में निवासित हैं इस लिए दोनों देशों के परिप्रेक्ष्य में इनके उद्भव का अध्ययन किया जाना उचित होगा। चूंकि बहुसंख्या में यह नेपाल में ही रहते हैं इस लिए पहल नेपाल से ही करना उचित होगा।

पहले नेपाली विद्वानों के मतों को लें-
  • सुप्रसिद्ध नेपाली इतिहासकार बाबू राम आचार्य ने अपने आलेख थारू जाति को मूल घर कहां? में स्पष्ट लिखा है कि, थारू नेपाल के आदिवासी हैं और उनकी उत्पत्ति नेपाल में ही हुई है। (नेपाल संस्कृति पत्रिका, वर्ष-2, अंक-2)
  • जनक लाल शर्मा अपनी पुस्तक हाम्रो समाज एक अध्ययन में थारू समाज को शाक्य वंश जिसमें महात्माबुद्ध का जन्म हुआ का उत्तराधिकारी मानते हैं। वे इन्हें आर्य नही मानते।
  • गोपाल गुरूंग के अनुसार भी वे शाक्यवंश के अवशेष है किन्तु आर्य नहीं हैं।
  • डा.केशव मान शाक्य भी थारू को बुद्ध और सम्राट अशोक को जन्म देने वाले शाक्य वंश का मानते है। (मानवता को पुनर्जन्म, भगवान बुद्ध और थारू समाज-चिर्खा पत्रिका)
  • पदम श्रेष्ट ने अपने नेपाल समाचार के मंसिर 30, संवत-2057 के आलेख में थारूओं को शाक्य वंश का तराई आदिवासी मंगोलियन माना है।
  • पुरातत्व विभाग मुखपत्र नेपाल-प्राचीन नेपाल पत्रिका सं0 30-39 के अनुसार कैलाली कंचनपुर (भारत की खटीमा और सितारगंज तहसील से सटा नेपाली सुदूर पश्चिम क्षेत्र) में 500 वर्ष पहले राना थारू नहीं थे। दंगौरा थारू भी 3 जुद्ध शमशेर राणा के समय में कैलाली-कंचनपुर आए हैं। (पृष्ठ-66)
इसके अतिरिक्त कुछ और नेपाली विद्वान थारू जनजाति के सम्बन्ध में विभिन्न मत प्रस्तुत करते हैं –
  • वैरागी कांइला इन्हें किरात नस्ल का मानते हैं।
  • डा. डोर बहादुर बिष्ट अपनी पुस्तक सवै जाति को पफुलवारी में इनकी आकृति के आधार पर इन्हें मंगोल मानते हैं।
  • डा. स्वामी प्रपन्नाचार्य अपनी पुस्तक प्राचीन किरांत इतिहास ;संवत-2051द्ध में इन्हें किंराती क्षत्रिय मानते हैं।
    डा. षिकेशव राज रेग्मी तराई का मंगोलियन बताते हैं।
  • महाकाली साहित्यसंगम से जुड़े इतिहासकार राजेन्द्र रावल भी इन्हें मंगोलिया से आकर भारत और नेपाल में बसे आदिवासी मानते हैं, इनके मूल के विषय में जो प्रमुख धारणाएं भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों के संदर्भ मे प्रचलित हैं वे निम्न प्रकार हैं-
  • वर्ष 1999 में के.डब्ल्यू. मेयर और पामेला डेवेल द्वारा नेपाल व भारत के अन्तर्गत रहने वाली थारू जनजाति का ट्रांसबाउण्डरी इण्डीजीनियस नेशनलिटी के सन्दर्भ में अध्ययन किया गया। उनके अनुसार संसार की हरेक जाति अपनी-अपनी वास्तुकला से सुसज्जित होती है अपने कथन की पुष्टि में उन्होंने संदर्भित विभिन्न थारू समूहों की वास्तुकला की चित्र मय पुस्तिका भी प्रस्तुत की है। उनके अनुसार नेपाल में थारू पांच समूहों में पाए जाते है। कन्चन पुर में राना थारू (भारत के उपरोक्त संदर्भित क्षेत्र में भी अन्य समूहों के मिश्रण सहित स्वंय को महाराणा प्रताप का वंशज बताने वाले राना थारू सहित) ,कैलाली क्षेत्र के कठरिया या कठेरिया थारू, देउखरी के दंगौरा थारू, रौतहट के पश्चिमी कोचिला थारू एंव मोरंग के पूर्वी कोचिला थारू समूह पाए जाते हैं। उनके अनुसार पश्चिमी और पूर्वी कोचिला थारूओं को उनके मध्य निवासित धनुषा क्षेत्र की मैथिल संस्कृति ने विभाजित कर दिया है।
  • मुख्यतः उन्होंने दो मुख्य बिन्दुओं पर अपना अध्ययन केन्द्रित रखा। विभिन्न क्षेत्रों में क्या गतिविधियां हुईं जिनसे इन थारू समूहों का तराई में एकत्रीकरण सम्भव हुआ और क्या अब ये थारू समूह एक सामुदायिक पहचान के अधीन एक हो सकते हैं। गहन अध्ययन के उपरान्त वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वास्तव में इनमें जातिनाम की समानता के अतिरिक्त, जगह विशेष के अनुसार इनकी भाषा और संस्कृति में अनेक अंतर और विसंगतियां उभर कर आती हैं द्य वस्तुतः थारू जाति को एक जाति के रूप में न लेकर वे एक ऐसे समुदाय के रूप में लेते है जिस में बहुत सारी जाति सम्मिलित हैं द्य अपने पूर्ववत्ती नेसपफील्ड (1885) को उद्घृत करते हुए वे कहते है कि थारू शब्द की जड़ें वन जंगलों पर निर्भरता एंव जीविकोपार्जन से अन्तर्सम्बन्धित हैं। वे इन जाति समूहों को कबीलाई बताते है और इनकी गतिविधियों का प्रारम्भ लगभग 2000 वर्ष पूर्व से मानते हैं। भारत व नेपाल के विभिन्न पर्वतीय और मैदानी क्षेत्रों से विभिन्न काल खण्डों में हुआ इनका तराई आगमन विशिष्ट बिन्दुओं पर पुनः गहन अध्ययन की अपेक्षा रखता है।
  • विलियम क्रुक्स (1857) के अनुसार-थारूओं ने गंगा-यमुना से लेकर हिमालय की गोद तक भूमि को आबाद कर गुलजार बनाया इस लिए थारू इस क्षेत्र में सभ्यता के अग्रदूत हैं। श्रोत-द ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स आपफ द नोर्थ वेस्टर्न इन्डिया, वाल्यूम 1-4
  • यदि कोई जाति बुद्ध के अबशेष के रूप में है तो वह थारू है। श्रोत- हिस्टोरिकल ट्रेडीशन आफ इण्डिया
  • केनेथ मोरगन द्वारा सम्पादित हिस्ट्री आपफ बुद्धज्म में नालन्दा पाली इन्स्टीट्यूट में बुद्ध धर्म के प्रोपफेसर टिस्सा कस्यापा अपने आलेख में लिखते हैं कि थारूओं के संस्कार और संस्कृति बुद्ध धर्म की धरोहर है।
  • हिस्ट्री आपफ बुद्धज्म इन इण्डिया जिसके लेखक तारानाथ लामा हैं और जिसका अनुवाद रिगजीन लण्डुप्ला ने किया है, में स्पष्ट उल्लिखित किया गया है कि थारू मंगोल मूल के हैं।
  • रमानन्द प्रसाद सिंह अपनी पुस्तक द रियल स्टोरी आपफ द थारूज ;1988द्ध में लिखते हैं, थारू आर्यों से पूर्ववर्ती मंगोल मूल के लोग हैं। उनकी उत्पत्ति का मूल स्थल नेपाल का कपिलवस्तु जिला है तथा वे लोग नेपाल की सारी तराई, अन्दरूनी तराई और भारत के उत्तर प्रदेश तथा बंगाल के सीमावर्ती जिलों मे बसी हुई है। ये शाक्यों के अवशेष हैं। इस यक्ष प्रश्न पर आगे बढने से पूर्व भारतीय क्षेत्र के थारु इस विषय में क्या कहते हैं, पर भी विचार कर लिया जाय। अपने पुरखों के कथन का सन्दर्भ (उन्हीं के शब्दों में, पुरखा बताय रहे!) देते हुए कुछ पुराने (वृद्ध) थारू अपना सम्बन्ध थार के रेगिस्तान से बताते है, जो साक्ष्यों के अभाव में अविश्वसनीय लगता है। अधिकांश थारू यह विश्वास करते हैं कि उनके पूर्वज सन 1303 में अलाउद्दीन-पद्मिनी प्रकरण के समय राजपरिवार की महिलाओं और कन्याओं की सुरक्षार्थ तराई में निम्न स्तरीय (वर्गीय) सेवकों के रूप में आए थे। इस धारणा पर यदि हम निष्पक्ष रूप से विचार करें तो हम पाते हैं कि कुछ इतिहासकार तत्कालीन मेवाड़ के राजा का जायसी के पद्मावत में उल्लिखित नाम से साम्य न होने के कारण इस प्रेम कथा , जो इतिहास के कुछ प्रसिद्ध पात्रों को लेकर गढी गई है, को काल्पनिक मानते हैं। उनका यह भी मानना है कि अपनी आन पर प्राणोत्सर्ग कर देने के इच्छुक रहने वाले राजपूत और वह भी मेवाड़ राजपरिवार के लोग अपनी रानी की छवि दर्पण में भी दिखाने के बजाय मर मिटना अधिक पसंद करते। (हालाँकि राजस्थान के अधिकतर निवासी कुछ विसंगतियां होने के बावजूद इस घटना की सत्यता पर विश्वास करते हैं।द्ध उनका कहना है कि जिस प्रकार सलीम-अनारकली प्रसंग का इतिहास में कहीं उल्लेख नहीं आता है और वह काल्पनिक ;प्रक्षेपद्ध सि( हो चुका है, इसी प्रकार अलाउद्दीन-पद्मिनी प्रसंग पूर्णतया काल्पनिक है। ऐसे विवादित प्रसंग से जुड़ी धारणा को विश्वसनीय मानना उचित नहीं लगता। इसी क्रम में सन 1533 व उसके आसपास राणा वंश के हाथ से निकटस्थ मुस्लिम बादशाह द्वारा सत्ता हथियाली गई थी। तब कुछ वर्ष मेवाड़ उसके अधीन रहा था किन्तु इतिहास 1303 में राजस्थान से जिस प्रकार सुरक्षा हेतु राजवंशीय महिलाओं के पलायन पर मौन है उसी प्रकार इस काल में भी किसी पलायन पर मौन है। अर्थात इन दोनों घटनाओं के आस-पास इस क्षेत्र से कोई पलायन नहीं हुआ था। सारे तथ्यों को दर किनार करते हुए यदि हम एक बार यह मान भी लें कि राणा परिवार की कुछ रानियां इस तराई क्षेत्र में अपने निम्नवर्गीय नौकरों के साथ सुरक्षार्थ आईं और नैसर्गिक मांग के वशीभूत उन्होंने अपने उन निम्नवर्गीय नौकरों से विवाह कर लिए इससे जो संतति हुई बताई गई, भारतीय सामाजिक नियमों के अनुरूप तो वह पिता के वंश की कहलाएगी न कि राणा वंश की। भारत में राणा वंश के साथ ही पितृ सत्तात्मक परिवार प्रथा है न कि मातृ सत्तात्मक जो मां के वंश के नाम से वंश परिचय दिया जाय। यह प्रथा मंगोल मूल से सम्बन्धित कुछ जनजातियों में भारत में आज भी प्रचलित है। यह तथ्य जो इनके मातृमूल पर विश्वास को प्रकट करता है इस तथ्य की सत्यता पर सवाल खड़े करता है। यहां एक बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि भारत में यह अलिखित परम्परा रही है कि जहां किसी व्यक्ति या जाति ने थोड़ी भी ऊंचाई प्राप्त की वह पूर्व इतिहास पुरूषों से अपना वंश सम्बन्ध जोड़ने लगती है। यहां तक कि नेपाल का तीन को सरकार और पूर्व तक राजा रहा पांच को सरकार शाह वंश भी स्वंय को राणा परिवार से जोड़ता है। जहां तक राणा शब्द का अर्थ है यह एक बहादुर व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होने वाली उपाधि के रूप में सामने आता है। महाराणा प्रताप की जाति राणा नहीं थी वे तो गुहिल या गोहिल वंशीय राजपूत थे। राणा की उपाधि प्राप्त एक समीपवर्त्ती राजा को जीतकर उन से तीन चार पीढी पूर्व उनके पूर्वजों ने विजित राजा की यह उपाधि राणा ग्रहण की थी मेरी जानकारी में हिन्दू-मुस्लिम दोनों समाज में करीव चालीस-बयालीस जाति-प्रजाति अपने जाति सूचक उपनाम में राणा शब्द का प्रयोग करते है। स्वंय राजस्थान की राजधानी जयपुर में ढोल बजाने वाली एक जाति अपने जातिनाम में राणा शब्द का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं। इस विषय में नैनीताल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर- 1992 एडिशन थारु और बुक्सा जनजाति के विषय में क्या जानकारी देता है- (देखें पृष्ट संख्या 82)

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