1. यशोधर मठपाल-: ★ सेंट्रल इंडिया 1984 ★ प्री-हिस्टॉरिक रॉक पेंटिंग ऑफ भीमबेटका ★ रॉक आर्ट इन कुमाऊँ हिमालया ★ कुमाऊँ की चित्रकला ★ रॉक जेर्ट ऑफ केरला 2. डॉ. सतीश चंद्र काला-: ★ भारहुत वेदिका ★ सिंधु सभ्यता ★ भारतीय मृतिका कला ★ यूरोप और उसके संग्रहालय 3. एडवर्ड जेम्स कॉर्बेट-: ★ मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊँ(1944) ★ मैन ईटिंग लेपर्ड ऑफ रुद्रप्रयाग ★ द टेम्पल टाइगर ★ माय इंडिया ★ जंगल लोर ★ ट्री टॉप (अंतिम पुस्तक) 4. शैलेश मटियानी-: ★ कुमाऊँ की लोककथाएं ★ अल्मोड़ा ★ चम्पावत ★ तराई की लोककथाएँ ★ बोरीवली से बोरीबंदर तक ★ हौलदार ★ कमीने ★ दो बूंद जल ★ एक मुट्ठी सरसों ★ डेरे वाले ★ माया सरोवर ★ जयमाला ★ मुठभेड़ ★ मुख सरोवर के हंस ★ किसके राम कैसे राम ★ कागज की नाव ★ चिट्ठिरसैन ★ महाभोज ★ नाच मयूरे नाच ★ जंगल मे मंगल ★ तीसरा सुख 5. गिरिराज शाह-: ★ फूलों की घाटी ★ उत्तराखंड की सन्त परम्परा ★ उत्तराखंड- आर्य संस्कृति का मूल स्रोत ★ इंडियन पुलिस ★ गलिमपर्स ऑफ इंडियन क्लचर ★ इंडिया रेडिस्कवर्ड ★ इनसाइक्लोपीडिया ऑफ वीमेन स्टडीज 6. रस्किन बांड-: ★ द रूम ऑफ द
अ अभागि कौतिक गो, कौतिकै नि है अर्थात जिसकी किस्मत साथ ना दे वह कही भी सुख प्राप्त नहीं कर पाता अघैईं बामणै कि भैंसेन खीर अर्थात जब किसी का पेट भरा हो तो उसे स्वादिष्ट व्यंजन में भी दोष नजर आते हैं अकल और उमर कैं कभैं भेट नि हुनि अर्थात हर व्यक्ति की बुद्धि का विकास उसकी आयु तथा अनुभव के अनुसार ही होता है तथा हर काम अपने नियत समय पर ही संपन्न होता है अघिन कुकेलि पछिन मिठी... अर्थात ऐसी बात जो कड़वी लगे, पर वास्तव में फायदेमंद हो अपजसी भाग पर म्यहोवक फूल अर्थात जिसकी किस्मत साथ ना दे वह हर हाल में परेशान रहता है अपणा जोगि जोगता, पल्ले गौं का संत अर्थात अपने क्षेत्र/घर के लोगों की क़द्र ना करना अमुसि दिन गौ बल्द लै ठाड़ उठूँ अर्थात जब आपत्ति आती है तो हर व्यक्ति अपनी पूरी क्षमता के साथ अपना बचाव करता है अनाव चोट कनाव पड़न अर्थात घबराहट या अनाड़ीपन में उल्टा सीधा काम करना, बुद्धि व विवेक से काम नहीं करना अन्यारै कि मार खबर नै सार अर्थात किसी कार्य का सही प्रचार व प्रसार नहीं होगा तो कोई भी कैसे जानेगा असोज में करेले कार्तिक में दही, मरे नही
गढ़वाली बोली - ग्रियर्सन ने भारतीय भाषाओं का वर्गीकरण करते हुए पहाड़ी समुदाय में केन्द्रीय उपशाखा के अन्तर्गत गढ़वाली को भी शामिल किया गया है। मैक्समूलर ने अपनी पुस्तक साइन्स आफ लैंग्वेज में गढ़वाली को प्राकृतिक भाषा का एक रूप माना है। सम्भवतः गढ़वाली भाषा का प्रथम नमूना पंवार शासक जगतपाल के देवप्रयाग ताम्रपत्र(1455ई0) में मिलता है। पंवार युग में गढ़वाली राजभाषा थी। 1750 तक गढ़वाली अभिलेखों एवं दस्तावेजों की ही भाषा मानी जाती है। साहित्यिक रूप में 1780 ई0 में समैणा और 1792 में उखेल नामक पुस्तकें गद्य में लिखी गई है। गढ़वाली की विविध बोलियां - गढ़वाली भाषा की आठ बोलियाँ मानी जाती है- 1. श्रीनगरी- श्रीनगर , पौड़ी , देवल क्षेत्रों में बोली जाती है। 2. नागपुरिया- यह बोली चमोली जनपद की नागपुर पट्टी और उसके उत्तर पश्चिमी समीपवर्ती क्षेत्रों में बोली जाती है। 3. दसौल्या- दसौली पट्टी , चमोली जनपद और उसके आस-पास के क्षेत्रों में है। 4. बधाणी- चमोली जनपद का नंनाकिनी और पिंडर नदियों के मध्यवर्ती क्षेत्र बधाण कहलाता है। 5. राठी- कुमाऊँ का पौड़ी गढ़वाली का सीमान्त क्षेत्र राठ कहलात
Bilkul sir ji
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