राज्य में महिलाएं

राज्य में 49.07 प्रतिशत जनसंख्या महिलाओं की है, जो 2011 की जनगणना के अनुसार कुल 49,48,519 है। महिलाओं का योगदान प्रत्येक क्षेत्र में अविस्मरणीय है। राष्ट्रीय आन्दोलन, राज्य आन्दोलन से लेकर कला, विज्ञान, संगीत, इतिहास, प्रत्येक क्षेत्र में राज्य क्षेत्र का महिलाओं का ऐतिहासिक योगदान देखने को मिलता है। न केवल आज के परिवेश में बल्कि ऐतिहासिक एवं गाथायी इतिहास में भी स्त्री महत्वपूर्ण स्थान पर है। वर्तमान रूप में देखा जाये तो प्रति हजार पुरुषों में राज्य में औसत 963 महिलाएं हैं, जो देश के कई अन्य राज्यों से बेहतर स्थिति है। देश के टॉप-10 सर्वाधिक लिंगानुपात वाले जिलों में भी उत्तराखण्ड के तीन जिले शामिल हैं। यदि हम केन्द्र शासित राज्यों को पृथक करते हैं तो सभी राज्यों के जिलों में अल्मोड़ा का स्थान सर्वोच्च है, जबकि इसके ऊपर एकमात्र जनपद माहे जिला पुदुच्चेरी का है। छठें स्थान पर रुद्रप्रयाग तथा नौवें स्थान पर पौड़ी गढ़वाल जिलों का स्थान आता है, इन जिलों में प्रति हजार पुरुषों में क्रमशः 1139, 1114 तथा 1103 महिलाएं हैं। साक्षरता की दृष्टि से भी राज्य में महिला साक्षरता दर 70 प्रतिशत से अधिक है। 



आइये राज्य की कुछ महत्वपूर्ण महिलाओं और उनके कार्यों को देखते है:-


1. बिश्नी देवी साह- 12 अक्टूबर, 1902 को बागेश्वर में जन्मी, 19 वर्ष की उम्र में राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल हुई। 1974 में निधन। 1921 से 1930 के बीच कुमाऊं में महिला जागृति में महत्वपूर्ण योगदान रहा। 25 मई, 1930 को अल्मोड़ा नगर पालिका में राष्ट्रीय ध्वज फहराये जाने हेतु श्रीमती साह, दुर्गा देवी पंत, रेवती देवी, तुलसी देवी रावत, भक्ति देवी त्रिवेदी के नेतृत्व में संगठन बनाया गया। श्रीमती बिश्नी देवी साह को गिरफ्तार किया गया तथा दिसम्बर, 1930 तक अल्मोड़ा जेल में रखा गया। ये जेल जाने वाली प्रथम महिला थी। यहीं इन्होंने ये पंक्तियां अक्सर दोहराई ‘‘जेल न समझो विरादर, जेल जाने के लिए, यह कृष्ण का मंदिर है, प्रसाद पाने के लिए।’’ आन्दोलनों में सक्रियता के कारण इन्हें पुनः 7 जुलाई, 1933 को फतेहगढ़ जेल भेज दिया गया। 26 जनवरी, 1940 को नन्दा देवी परिसर अल्मोड़ा में ध्वजारोहण कर व्यक्तिगत सत्याग्रह में हिस्सा लिया।


2. सरला बहन- मैरी कैथरीन हाइलामाइन जिसका जन्म 05 अप्रैल, 1901 को लन्दन में हुआ। 1932 में भारत पहुँची। 1935 में गांधी जी से मिली। 1936 में अहमदाबाद आई और महिला आश्रम की स्थापना की। 5 दिसम्बर, 1946 को कस्तुरबा महिला उत्थान मंडल कुमाऊँ की स्थापना की। मिरतोला कौसानी में 1948 में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना की। 01 नवम्बर, 1979 जमुनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 8 जुलाई, 1982 को अल्मोड़ा में निधन हो गया। इन्होंने पर्यावरण पर संरक्षण या विनाश तथा मानव और प्रकृति पुस्तकें लिखी। इनकी अन्य रचनाएंः-
1. अबला नहीं सबला
2. स्वस्थ अर्थव्यवस्था
3. मैं कहाँ
4. व्यवहारिक वेदान्तः एक आत्म कथा
5. पर्वतीय विकास की सही दिशा
6. रिवाइव आवर डाईंग प्लानेट


3. रेवती उनियाल- 17 वर्ष की आयु में इनका विवाह मेधापति उनियाल से हुआ जो उस समय टिहरी दरबार में क्रय अधिकारी थे। किन्तु मात्र 3 वर्ष बाद उनका निधन हो जाने से रेवती विधवा हो गयी। रेवती ने सर्वप्रथम कीर्तन मण्डली का गठन किया। इलाहाबाद जाकर अधिकारियों से भेंट की तथा प्रौढ़ एवं बाल विधवा महिलाओं की शिक्षा हेतु स्कूल में प्रवेश की अनुमति प्राप्त की। 1948-50 चरखा संघ शुरू करने वाली समाजसेवी श्रीमती रेवती देवी उनियाल को मंत्राणी उपनाम से भी जाना जाता है। ये रेडक्रास की सचिव भी रहीं।


4. शाकम्बरी जयाल(जुयाल)- भारत की पहली महिला पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त इतिहासकार के रूप में प्रतिष्ठित शाकम्बरी जुयाल के शिष्यों में इतिहासकारों की लम्बी फेहरिस्त यथा मदन चन्द्र भट्ट, धर्मपाल मनराल, पुष्पेश पंत, शेखर पाठक, सुनील कुमार जैसे इतिहासकार शामिल हैं। शाकम्बरी का जन्म 1924 में हुआ था। ये टिहरी रियासत के पूर्व दीवान चक्रधर जुयाल की भतीजी थी। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा देहरादून में हुई, इतिहासकार रमाशंकर त्रिपाठी के अधीन शोध कार्य किया। गुजराती विद्वान गौतम द्विवेदी से विवाह किया। कुमाऊं विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। नैनीताल में कुमाऊं संग्रहालय की स्थापना की। कुमाऊं के पुरातत्व और कुमाऊं के इतिहास के कई अज्ञात पहलुओं को प्रकाश में लाई। 1966 में इनकी पुस्तक द स्टेटस ऑफ वीमेन इन द एपिक्स प्रकाशित हुई। 86 वर्ष की आयु में जयपुर में इनका देहान्त हो गया।


5. चन्द्रमुखी बोस ममंगाई- देश की प्रथम दो महिला स्नातकों में से एक थी चन्द्रमुखी बोस ममंगाई इनके साथ की स्नातक पास करने वाली महिला कादम्बनी गांगुली थी। हालांकि यह भी जान लें कि 1882 में ब्रिटिश शासन में स्नातक पास करने वाली एकमात्र एवं पहली महिला चन्द्रमुखी ही थी क्योंकि कादम्बिनी मेडिकल की छात्रा थी। 1860 देहरादून में जन्मी, 1944 देहरादून में ही मृत्यु हुई तथा चन्द्रनगर में इनकी कब्र स्थापित है। 1886 में बेथ्यून कॉलेज में प्राध्यापक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। यहां इन्होंने बालिकाओं हेतु विज्ञान विषय का भी शुभारम्भ किया। अतः कलकत्ता विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय का नाम इनके नाम पर रखा गया है। 


6. नईमा खान उप्रेती- उत्तराखण्ड की रंगमच में पहली सक्रिय महिला हैं। नईमा खान का जन्म अल्मोड़ा में सन् 1938 को हुआ अल्मोड़ा से ही उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा तथा स्नातक की उपाधि भी अल्मोड़ा से ही ग्रहण की संगीत में बाल्यकाल से ही रुचि होने के कारण अल्मोड़ा में सांस्कृतिक हलचल प्रारम्भ होते ही वे लोक कलाकार संघ, अल्मोड़ा की सक्रिय सदस्य रही। रंगकर्मी मोहन उप्रेती की पत्नी नईमा खान ने कुमाऊं-गढ़वाल, दिल्ली, लखनऊ में अपने पति के साथ अनेक सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ दी। 1973 में दूरदर्शन में आई तथा 1996 में प्रोड्यूसर के पद से अवकाश ग्रहण किया। इसके साथ ही वे आकाशवाणी से भी जुड़ी रहीं। तथा आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली, कुमाउनी और ब्रजभाषा के कार्यक्रमों का प्रसारण किया। पारा भीड़ा को छै भागी गीत आज भी उतना ही कर्णप्रिय लगता है। 1969 से वे पर्ववीय कला केन्द्र की सक्रिय सदस्य रहीं। इप्टा तथा भारतीय नाट्य संघ के कुछ कार्यक्रमों में भी नईमा सम्मिलित हुई थी।


7. रूपा देवी- कुलिंग गांव देवाल ब्लॉक, चमोली की 65 वर्षीय रूपा देवी न तो कोई पर्यावरणविद् है ना ही कोई वैज्ञानिक। दुनिया की चमक-धमक से कोसों दूर बस बुग्यालों को लेकर चिंतित, बुग्यालों को बचाने की उनकी अपनी परिभाषा है जो उन्होंने पहाड और अपने जीवन संघर्षों से सीखी। लोग उन्हें बुग्यालो की मदर टेरेसा कहकर बुलाते हैं, क्योंकि जिस तरह मदर टेरेसा दीन दुखियों, मरीजों की निःस्वार्थ सेवा करती थी ठीक उसी तरह रूपा देवी भी बुग्यालों की निःस्वार्थ सेवा करती आ रही हैं। रूपा देवी हर साल नंदा देवी लोकजात यात्रा में वेदनी बुग्याल में आयोजित रूपकुंड महोत्सव में लोगों को बुग्यालों और हिमालय को बचाने का संदेश देती हैं। यही नहीं वो इस दौरान अन्य महिलाओं के संग बुग्यालांे में सैलानियों और घोड़े खच्चरों की आवाजाही से जो गड्डे हो जाते हैं उन्हें मिट्टी से भरती हैं और वेदनी बुग्याल की सुंदरता को संवारती है। यह कार्य ये बीते 15 सालों से कर रही हैं। 


8. तारा पाण्डे- 1915 में दिल्ली में जन्मीं तारा पांडे के जीवनवृत्त को लेखिका नमिता गोखले ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘माउन्टेन एकोज’ में जगह दी है। श्रीमती तारा पांडे का लालन-पालन उत्तराखंड के अल्मोड़ा नगर में हुआ था। बहुत कम पढ़ी-लिखी होने के बावजूद उन्होंने हिन्दी में कविताएं लिखीं। सुमित्रानंदन पन्त उनके निकट सम्बंधी थे और उन्हें उनके अलावा महादेवी वर्मा का भी स्नेह-सान्निध्य प्राप्त हुआ। 1942 में उन्हें अपने संग्रह ‘आभा’ के लिए सेकसरिया पुरस्कार मिला और 1998 में उ.प्र. हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मान तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान का ‘सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार’ उनकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हुईं, जिनमें प्रमुख हैं- वेणुकी, अंतरंगिणी, विपंची, काकली, सुघोष, मणि पुष्पक, पुष्पहास, स्मृति सुगंध तथा छिन्न तूलिका और सांझ इत्यादि। वर्ष 2001 में उनका देहांत हुआ।


9. कुन्ती वर्मा- 1906 अल्मोड़ा खास में जन्मी, प्रखर संग्रामी, संकल्प, शक्ति, त्याग, देश सेवा और भक्ति की बेमिसाल शख्सियत। 13 वर्ष की आयु में श्री गाँगीलाल वर्मा से प्रणय सूत्र में बंधी, जिनका असमय निधन हो गया। तब तक कुन्ती देवी 2 पुत्रों और पुत्रियों की माँ बन चुकी थीं। अप्रत्यक्ष रूप से इन्होंने महिलाओं को राष्ट्रीय आन्दोलन में जोड़ना शुरू कर दिया था। चरखा चलाना और खादी पहनना शुरू कर दिया। 1930 में इन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरोध में दुर्गा देवी पन्त, पार्वती देवी पन्त, भक्ति देवी त्रिवेदी, बिसनी देवी साह, बच्ची देवी पाण्डे, तुलसी देवी रावत आदि के नेतृत्व में 100 से अधिक महिलाओं का संगठन गठित किया। दूसरी तरफ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने नगर पालिका भवन, अल्मोड़ा पर तिरंगा झण्डा फहराने का कार्यक्रम बनाया। विक्टर मोहन जोशी, शान्ति लाल त्रिवेदी आदि इसके अगुवा थे। अल्मोड़ा में घर-घर में यह चर्चा का विषय बन गया। कुन्ती देवी ने अपने साथ मंगला वर्मा, भागीरथी वर्मा, जीवन्ती देवी व रेवती वर्मा को लिया और नगर पालिका भवन पर झंडा फहरा दिया। ब्रिटिश सरकार के लिए यह एक चुनौती बन गई। इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 3 महीने की सजा हो गई। रिहाई के बाद ये नैनीताल में बिमला देवी, भागीरथी देवी, पद्मा देवी जोशी, सावित्री देवी वर्मा, जानकी देवी आदि अन्य महिलाओं को साथ लेकर स्वाधीनता आन्दोलन में जुट गयीं। 1932 में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और धरना देने के आरोप में इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 6 माह की सजा और 50 रु. जुर्माना किया गया। 9 नवम्बर, 1932 को हल्द्वानी में आयोजित कांग्रेस की एक सभा में इन्हें मुख्य महिला कार्यकर्ता चुना गया। भागीरथी देवी के साथ हल्द्वानी, कालाढूंगी व कोटाबाग में राष्ट्रीय भावना जागृत की। पाटकोट में चन्द्रावती देवी, भवानी देवी, सरस्वती देवी आदि को लेकर डौन पेखा ओखलढुंगा, तल्ली सेठी, बेतालघाट, सिमलखा व मझेड़ा की पद यात्राएं कीं। नैनीताल में राज्य सचिवालय और राजभवन को घेरने के आरोप में इन्हें 6 माह की कठोर सजा सुनाई गई। 1942 के आन्दोलन की जो रिपोर्ट उलटैन हेम ने ब्रिटेन में प्रस्तुत की थी उसमें कुन्ती वर्मा का भी विशेष उल्लेख था। अडिग, साहसी, संकल्प की धनी, देशभक्त श्रीमती कुन्ती देवी वर्मा का 1980 में निधन हो गया। 


10. आइरिन पंत- इनका जन्म 1905 में अल्मोड़ा के डेनियल पंत के घर में हुआ था। आइरिन पंत के दादा ने साल 1887 में ईसाई धर्म अपना लिया था। आइरिन पंत का शुरुआती बचपन अल्मोड़ा में ही गुजरा, बाद में वह लखनऊ चली गईं और लखनऊ के लालबाग स्कूल से पढ़ाई करने के बाद उन्होंने लखनऊ के मशहूर आईटी कॉलेज से पढ़ाई की। लियाकत अलीखान से इनका विवाह हुआ। बेगम लियाकत अली खान की आधी जिंदगी भारत में गुजरी और आधी जिंदगी पाकिस्तान में इसलिए इसे अल्मोड़ा की बेटी और पाकिस्तान की बहु कहा जाता है। आइरिन को पाकिस्तान में मादरे-ए-वतन का खिताब भी मिला। बाद में  जुल्फिकार अली भुट्टो ने उन्हें काबिना मंत्री बनाया और वह सिंध की गर्वनर भी बनीं, साथ ही कराची यूनिवर्सिटी की पहली महिला वाईस चांसलर भी बनी। इसके अलावा वह नीदरलैंड, इटली, टयूनिशिया में पाकिस्तान की राजदूत रहीं। उन्हें 1978 में संयुक्त राष्ट्र ने ह्यूमन राईट्स के लिए सम्मानित किया। वहीं साल 1990 में आइरिन का निधन हुआ। 


11. बछेन्द्री पाल- 24 मई, 1954 को नाकुरी गाँव में जन्मी, 23 मई, 1984 को विश्व की सर्वोच्च चोटी एवरेस्ट फतह करने वाली देश की पहली महिला बनी। 1994 हरिद्वार से कोलकात्ता तक आयोजित किये गये नौका अभियान का नेतृत्व किया। काराकोरम श्रेणी में किये गये प्रथम महिला अभियान का नेतृत्व किया। इन्होंने 1984 में पर्वतारोहण हेतु स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। 1984 में ही पद्म श्री से सम्मानित। इन्हें 1986 अर्जुन पुरस्कार, 1994 एडवेंचर अवार्ड, 1995 यश भारती सम्मान, 2013-14 का लक्ष्मी बाई सम्मान से सम्मानित किया गया। 


12. रानी कर्णावती- शिवप्रसाद डबराल ने इन्हें नाक काटी रानी की संज्ञा दी थी। गढ़वाल के राजा महीपति शाह की पत्नी थी। राजा महीपति शाह की मृत्यु के समय उनके पुत्र युवराज पृथ्वीपति शाह की आयु मात्र 7 वर्ष थी। उन दिनों दिल्ली के तख्त पर मुगल बादशाह शाहजहां विराजमान था। महारानी कर्णावती ने 1631 से 1640 तक शासन किया। शाहजहाँ ने कर्णावती के समय आक्रमण हेतु पुनः नवाजत खाँ को भेजा। मुगलों के आक्रमण की खबर सुनते ही रानी ने अपने सेनानायकों से परामर्श किया। तब तक मुगल सेना दून घाटी को रौंदती हुई हरिद्वार में गंगा पार के इलाके चीला, गोहरी, कुनाऊ, लक्ष्मणझूला, मोहनचट्टी के रास्ते राजधानी श्रीनगर की ओर कूच करने की तैयारियां कर चुकी थी। ऐसी परिस्थिति में रानी कर्णावती ने बड़ी सूझबूझ और कूटनीति से काम लिया। उसने मुगल सरदार नजावत खां के पास सन्देश भिजवाया कि मैं मुगल बादशाह की अधीनता स्वीकार करती हूँ। यदि दो सप्ताह की अवधि दी जाय, तो मैं दस लाख रुपया भेंट स्वरूप दे सकती हूँ। इस प्रस्ताव पर खाँ ने अपनी सेना पीछे हटा ली और रुपयों का इन्तजार करने लगा। डेढ़ माह बीत जाने के बाद रानी ने केवल एक लाख रुपया भिजवाया। इस अवधि में मुगल सेना की सारी रसद समाप्त हो गयी। जहाँ कहीं भी मुगल सेना के सिपाही रसद लेने जाते, स्थानीय लोगों द्वारा लूट लिये जाते या मार दिये जाते। सारी सेना में ज्वर फैल गया। भूख और बीमारी से घिरे मुगलों को गढ़वाली सेना ने घेर लिया। युद्ध में शाही सेना के अधिकांश सैनिक मारे गये। उनके घोड़े, युद्ध सामग्री और अन्य सारा साजो सामान गढ़वाली सेना ने कब्जा लिया। रानी के आदेश पर बचे खुचे मुगल सिपाहियों के नाक-कान काट कर उन्हें भागने को छोड़ दिया। नजावत खाँ जान बचाकर भाग गया। दुश्मन की सेना के नाक-कान काटकर तहस-नहस कर देने की विश्व इतिहास में यह अनोखी घटना है। रानी कर्णावती इतिहास में तभी से ‘नाक कट्टी राणी’ के नाम से विख्यात हो गई। इस अभियान की सफलता में सेनापति माधोसिंह भण्डारी और दोस्त बेग मुगल की प्रमुख भूमिका रही। मुगलों पर फतह के उपलक्ष्य में इस जगह का नाम फतेहपुर रखा गया। महारानी कर्णावती ने करणपुर (वर्तमान देहरादून का एक क्षेत्र) गाँव बसाया था। इसके अतिरिक्त राजपुर और देहरादून के मध्य जल स्त्रोत निकलवा कर सिंचाई की सुविधा मुहैय्या करवाई। 


13. तीलू रौतेली- 8 अगस्त, 1661 को जन्मी चौंदकोट क्षेत्र, बीरोंखाल के थोकदार भूप सिंह की पुत्री। तीलू रौतेली को गढ़वाल की जॉन ऑफ आर्क, गढ़वाल की लक्ष्मी बाई कहा जाता है। 15 वर्ष की आयु में सात युद्ध लड़ने व जीतने वाली एकमात्र महिला योद्धा है। इनकी सहेलियां जिन्होंने युद्ध भूूमि में इनका सहयोग किया बेल्लु और देवली थीं। इनकी घोड़ी का नाम बिन्दुली था। पूर्वी नयार नदी में नहाते हुए रामू रजवार नामक शत्रु ने निहत्थी रौतेली की हत्या कर दी। इनकी स्मृति में बीरोंखाल में प्रतिवर्ष मेले का आयोजन किया जाता है। उत्तराखण्ड सरकार ने तीलू रौतेली सम्मान 2006 से तथा विकलांग महिलाओं हेतु तीलूू रौतेली विशेष पेंशन योजना 1 अप्रैल, 2014 से शुरु की। इनके जन्मोत्सव पर 8 अगस्त, 2019 को सर्वे चौक देहरादून में तीलू रौतेली कामकाजी महिला हॉस्टल का लोकाप्रण किया गया है। 


14. जिया रानी- कुमाऊं की लक्ष्मीबाई नाम से प्रसिद्ध है, हालांकि इनका अधिकतर विवरण जागर गाथाओं इत्यादि में ही अधिक देखने को मिलता है। कत्यूरी शासकों के आपसी कुचक्रों के बीच महारानी जिया की दूरदर्शिता ने इतिहास को रक्तरंजित होने से बचाया था। अपने पुत्र धामदेव तथा आम जनता के लिए उसके संघर्ष और साहस की वीरकथा जियारानी के जागरों में आज भी उत्तराखण्ड के ग्रामीण जनजीवन में गूंजती है। जिया रानी उत्तराखण्ड के जनजीवन में इस कदर लोकप्रिय हुयी कि किन्हीं इलाकों एवं जातियों में आज भी मां के लिए जिया शब्द का उच्चारण किया जाता है। वह खैरागढ़ के कत्यूरी सम्राट पिथौराशाही (प्रीतमदेव या पृथ्वीपाल की महारानी थी। उसका नाम प्यौंला या पिंगला भी बताया जाता है।) कथनानुसार वो धामदेव ब्रह्मदेव की माँ थी और प्रख्यात लोककथा नायक मालू शाही की दादी। जिया को मालव देश के राजा की पुत्री भी माना जाता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार रानी मौला देई का जन्म सन 1370 में राजा झहबराज पुण्डीर के घर सबसे छोटी पुत्री के रूप में हुआ था। राजा झहबराज मालवा के (खत्री) राजवंश से सम्बन्धित थे। किन्हीं कारणों से मालवा के कई राजवंशी यहां पहाड़ों में आकर बस गए। कालान्तर में झहबराज का मायापुर (हरिद्वार) क्षेत्र पर अधिकार हो गया और वे यहां के राजा कहलाए। इन्हीं दिनों कत्यूरी राजा प्रीतमदेव गंगा स्नान को हरिद्वार गए और वहां राजा झहबराज पुण्डीर के अतिथि बनकर ठहरे और विवाह का प्रस्ताव रखा। सन 1393 में रानी को एक पुत्र प्राप्त हुआ। बालक का नाम धामदेव रखा गया। इस बीच राजा प्रीतम देव वृद्ध हो गए। राज्य की देखभाल राजा के उत्तराधिकारी अवयस्क पुत्र धामदेव के नाम से सबसे छोटी रानी मौला देई करने लगी। रानी का प्रभाव बढ़ने लगा। वह अब जिया राणी कही जाने लगी। एक समय अन्य रानियों ने सौतिया बांट की बात कहकर जिया राणी को तराई-भाबर का इलाका दे दिया। एक लोकगाथा के अनुसार धामदेव ने अपने पिता प्रीतम देव की हत्या कर सिंहासन छीन लिया था। लोकगाथा में शुनपति शौका की पुत्री राजुला का अपहरण करने वाले मालूशाही को धामदेव का पुत्र बताया गया है। दिल्ली के सैय्यद (सुल्तान) की सेना कटेहर के हरीसिंह का पीछा करते हुए तराई-भाबर तक आ पहुंची थी। जियाराणी ने हरीसिंह को अपने राज्य में शरण दी थी और शाही सेना को तराई से मार भगा कर कटेहर पर पुनः अधिकार करने में उसकी सहायता की थी। यह युद्ध भाबर में हल्द्वानी-काठगोदाम क्षेत्र में लड़ा गया था। भीषण युद्ध के बीच यवन सेना जिया राणी को रानीबाग (काठगोदाम) से पकड़ कर ले गयी। हंसा कुंवर ने रानी को कैद से छुड़ाया। संघर्ष करते रानी को कई घाव लग गए थे। कुछ दिन रानी गुप्त स्थान में छिपी रही। बाद में उसकी मृत्यु हो गई। इस वीरांगना की स्मृति में चित्रशिला घाट, रानीबाग में उस युग की बनी रानी की समाधि आज भी कत्यूरी युग की याद ताजा कराती है। प्रतिवर्ष संक्रांति 14 जनवरी को उत्तरायणी चित्रशिला में सैकड़ों परिवार, ग्रामवासी आते हैं। जागर लगाते हैं। सारे दिन, सारी रात जैजिया, जिया के स्वर गूंजते हैं। जिया को पूजते हैं। अब जिया कुमाऊँ की सांस्कृतिक विरासत बन गयी है।


15. चन्द्रप्रभा ऐतवाल- 24 दिसम्बर, 1941 धारचूला में जन्मी, माउन्टेन गोट उपनाम से प्रसिद्ध पर्वतारोही है। 1981 में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित हुई, 1990 में पद्मश्री, 1993-94 में राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 

16. कबूतरी देवी- 1945 लेटी गांव चम्पावत जिले में जन्मी 7 जुलाई, 2018 को निधन। इन्हें ‘उत्तराखण्ड की तीजनबाई’ भी कहा जाता है। ये आकाशवाणी से सम्बद्ध लोकगायिका थी।

17. गौरा पन्त ‘शिवानी‘- 17 अक्टूबर, 1923 को गुजरात में अश्वनी कुमार एवं लीलावती के घर में जन्मीं, 12 वर्ष की आयु में अल्मोड़ा से निकलने वाली पत्रिका ‘नटखट‘ से लेखन का सिलसिला शुरू हुआ। पहली कहानी सोनार बांग्ला नामक बंगाली पत्रिका में मरीचिका नाम से छपी। 1951 में धर्मयुग नामक पत्रिका में कहानी मैं मुर्गा हूँ ने शिवानी नाम की पहचान दिलाई। इनकी रचना करिये छिम्मा पर विनोद तिवारी ने फिल्म बनाई है। इनकी मुख्य रचनाएं मायापुरी (1961), विषकन्या (1972), चौदह फेरे (1973), कैंजा (1975), सुरंगमा (1975), रथ्या (1976), किशुनली (1979), श्मशान चम्पा (1992), कालिन्दी (2001), अतिथि इत्यादि हैं।


18. श्री राधा बहन/राधा भट्ट- इनका जन्म 16 अक्टूबर, 1934 में हुआ। कस्तूरबा गांधी नेशनल मेमोरियल ट्रस्ट की 9 वर्षाें 1998-2007 तक महासचिव रहीं। गाँधी पीस फाउंडेशन की अध्यक्ष (2006-2015) रहीं। 1957 से 1961 तक उत्तराखण्ड में चले भूदान आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी रही। 1992 में जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित। सर्व सेवा संघ की भी अध्यक्ष रहीं।


19. दीक्षा बिष्ट- राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित विज्ञान पत्रिका विज्ञा प्रगति का लगातार 12-13 वर्षों तक सम्पादन किया। इन्हें विज्ञान श्री सम्मान से भी नवाजा गया है। दूरदर्शन पर प्रकाशित धारावाहिक पल्लव का भी लेखन इनके द्वारा किया गया। वैज्ञानिक लेखन के क्षेत्र में विशेष कार्य हेतु विभिन्न राष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा जा चुका हैं। 


20. मेजर जनरल माया टम्टा- मूल रूप से अल्मोड़ा जिले की माया टम्टा मिलेट्री में नर्सिंग सर्विस में कार्यरत रही। मेजर जनरल के पद पर पहुँचने वाली पहली महिला है।

21. लक्ष्मी टम्टा- 1911 अल्मोड़ा में जन्मी, स्नातक की डिग्री पाने वाली प्रथम दलित महिला के तौर पर जानी जाती है। 1934 में निकले समाचार पत्र समता का सम्पादन कार्य भी किया।


22. प्रियंका चौधरी- काशीपुर में जन्मीं, बॉक्सर जिन्होंने 2005 में राज्य का प्रतिनिधित्व करते हुए प्रथम स्थान, 2007 में कांस्य पदक, 2009 में स्वर्ण पदक तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी स्वर्ण पदक हासिल किया। 


23. गौरा देवी- जन्म लाता (पार्वती) गांव में 1925 में हुआ तथा निधन 4 जुलाई, 1991 को हुआ। चिपको वूमन नाम से प्रसिद्ध है। 12 वर्ष आयु में रैणी गांव के मेहरबान सिंह से विवाह। 22 वर्ष की आयु में विधवा हो गई। 1969 में अलकनन्दा पर आई बाढ़ ने पर्यावरणीय सोच को जन्म दिया। 1972 में गौरा देवी महिला मंगल दल की अध्यक्ष बनी। 26 मार्च, 1974 को चिपको आन्दोलन की शुरूआत की। मारो गोली और काट लो हमारा मायका इनका प्रसिद्ध नारा है। 1986 में प्रथम वृक्ष मित्र सम्मान से सम्मानित की गई। 


24. बसन्ती देवी- 1953 चमोली के ल्वाणी गाँव में जन्मीं, उत्तराखण्ड की प्रसिद्ध जागर गायिका महिला है। 1994 में मुजफ्फरनगर  काण्ड के बाद वीर नारी आगे बढ़ गीत गाया था, तथा 1998 गढ़वाल सभा के उत्तराखण्ड महोत्सव में गाया था जो इनकी गायकी की शुरूआत थी। नन्दा के जागर इनकी रचना है। 2017 में इन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया जा चुका है। अन्य पुरस्कारों में उत्तराखण्ड शोध संस्थान, पूर्व सैनिक सम्मान सहित दो दर्जन पुरस्कारों से सम्मानित की गई हैं।  


25. हर्षवन्ती बिष्ट- सुविख्यात पर्वतारोही जिन्हें 1981 में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 


26. कौशल्या डबराल- 18 जनवरी, 1940 बड़कोट के रौड़िया ग्राम में जन्मीं, राज्य आन्दोलनकारी जिसने विविध सामाजिक आन्दोलनों में भी हिस्सा लिया था। इन्होंने महिला रोजगार हेतु अनाज-दाल प्रशोधन समिति का गठन किया। महिला खादी सोसाइटी का गठन कर 1990 में एक ऊन फैक्ट्री भी लगाई थी। उत्तराखण्ड महिला मोर्चा संयुक्त संघर्ष समिति की अध्यक्ष भी थी। 26 जनवरी, 1995 के दिन गणतंत्र दिवस समारोह में जाकर जय भारत अखण्ड व जय उत्तराखण्ड के नारे लगाये थे तथा आशा बहुगुणा तथा उषा नेगी के साथ पर्चे फेंके थे। इनके साहसिक कार्यों के कारण ही इन्हें 1995 में दून सांस्कृतिक परिषद् द्वारा लौह नारी तथा इनके साथ ही कमला पंत को हिमरत्न की उपाधि से नवाजा गया था। 3 मई, 1996 के दिन इनका निधन हो गया। 13 फरवरी, 1996 को कुन्जापुरी सिद्ध पीठ मंदिर के प्रांगण में चार महिलाओं के साथ आमरण अनशन पर बैठी थी। 


27. ताशी व नुंग्शी- पर्वतारोहण से सम्बन्धित जुड़वा बहनें जो 21 जून, 1991 हरियाणा में जन्मीं, वर्तमान में देहरादून में निवासित हैं। इन्होंने सेवन सबमिट मिशन को पूरा किया है। ताशी-नुंग्शी के पिता रिटायर्ड कर्नल वीएस मलिक हैं। इन जुड़वा बहनों ने 19 मई 2013 को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराने के साथ ऐसा करने वाली विश्व की पहली जुड़वाँ बहनें होने का रेकॉर्ड बनाया है। क्रमशः इनके द्वारा फतह की गई चोटियां निम्नवत् हैं-
1. अफ्रीका के माउंट किलिमंजारो-फरवरी 2012
2. एषिया के माउंट एवरेस्ट-मई 2013
3. यूरोप के माउंट एल्ब्रस-अगस्त 2013
4. दक्षिण अमेरिका के माउंट एकॉनकागुआ-जनवरी 2014
5. ओषेनिया यानि ऑस्ट्रेलिया के कार्सटेंस्ज पिरामिड-मार्च 2014
6. उत्तरी अमेरिका के माउंट मैकेनली-जून 2014
7. अंटार्कटिका के माउंट विंसेन- दिसम्बर, 2014


28. वन्दना कटारिया- वंदना कटारिया का जन्म 15 अप्रैल, 1992 को हरिद्वार जिले के रोशनाबाद गाँव में हुआ था, ये भारतीय हॉकी खिलाड़ी हैं। वंदना 2013 में देश में सबसे अधिक गोल करने में सफल रही थीं। इन्होंने जूनियर महिला विश्व कप में कांस्य पदक जीता, यह स्पर्धा जर्मनी में हुई थी और इन्होंने पाँच गोल मार कर इस स्पर्धा में तीसरी सबसे अधिक गोल करने वाली खिलाड़ी का खिताब जीता। यह अब तक 130 स्पर्धा में 35 गोल करने में सफल रही हैं। वर्ष 2022 में पदमश्री से सम्मानित की गई। 


29. सायरा बानो- काशीपुर निवासी जिन्होंने तीन तलाक के मुद्दे को उठाकर सम्पूर्ण मुस्लिम समाज को इससे निजात दिलाई।

30. दिव्या रावत- मूल रूप से कोट कंडारा गांव चमोली की निवासी, ‘मशरूम गर्ल’ के रूप में प्रसिद्ध हैं। 2016 में राष्ट्रपति द्वारा नारी सम्मान से सम्मानित किया गया। राज्य मशरूम उत्पादन की ब्राण्ड एम्बेसडर भी है।


31. वन्दना शिवा- 2 नवम्बर, 1952 देहरादून में जन्मीं, ‘स्टेइंग अलाइव’ वूमन एण्ड इकोलॉजी पुस्तक की लेखिका हैं। 1993 में राइट टू लीवलीहूड पुरस्कार प्राप्त हुआ जो कि नीदरलैण्ड द्वारा प्रदत्त वैकल्पिक नोबल कहलाता है। 2010 में सिडनी पीस अवार्ड मिला। फोर्ब्स द्वारा प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल किया। फुकुओका पुरस्कार जापान द्वारा दिया गया है। इन्होंने 1987 में नवधान्य नामक छळव् का गठन किया है। 


32. शान्ति ठाकुर- उत्तरकाशी के बड़कोट निवासी शान्ति को ग्लेशियर लेडी के नाम से जाना जाता है। इन्हें वर्ष 2019 का तीलू रौतेली पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। ये 20 वर्षों से हिमालय एवं हिमनदियों हेतु संघर्षरत हैं।  


33. गंगोत्री गर्ब्याल- 1964 में राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा पुरस्कृत गंगोत्री पिथौरागढ़ के सीमान्त तहसील धारचूला में 01 दिसम्बर, 1918 को जन्मीं। ये स्वामी नारायण की शिष्या थीं।  इनका विशेष कार्य शिक्षा एवं शैक्षिक विकास रहा था।



स्रोत-यूकेपीडिया
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