उत्तराखंड में दलितोद्धार के 'ध्वजावाहकः



 गांधीजी द्वारा चलाये जा रहे 'अछूतोद्धार' कार्यक्रमों के रूप में अपने मुक्ति संघर्ष के लिए विशेष प्रेरणा लेकर इन्होंने उत्तराखंड में शिल्पकारों हेतु अद्वितीय योगदान दिया। उत्तराखंड के दलितोद्धार कार्यक्रमों में जिन हरिजन नेताओं की प्रमुख भूमिका रही उनमें अग्रणी थे- श्री खुशीराम शिल्पकार, बचीराम आर्य, भूमित्र आर्य, हरिप्रसाद टम्टा, जयानंद भारती। इनके द्वारा किये गये दलितोद्धार कार्यक्रमों का किंचित् विवरण इस प्रकार है :

खुशीराम शिल्पकार(1847-1971ई०): सन् 1906 में मोतेश्वर में आयोजित 'शिल्पकार सभा' में इनके द्वारा प्रस्तुत यहां के दलितों के लिए 'शिल्पकार' कहे जाने के प्रस्ताव के फलस्वरूप ही सन् 1921 की जनगणना में इसे स्वीकारा गया। 1932 में इसे प्रशासकीय मान्यता प्राप्त हो गयी।

बचीराम आर्य (1909-1980 ई०): खुशीराम द्वारा चलाये गये अछूतोद्धार के कार्यक्रम को सक्रिय सहयोग मिला उत्साही कार्यकर्ता बचीराम आर्य का। इन्होंने 'शिल्पकार' के स्थान पर 'आर्य' उपनाम का प्रचलन किया। आर्य समाज के सहयोग से इन्होंने आर्य होने के नाते हरिजनों के लिए भी यज्ञोपवीत के अधिकार को मान्यता देते हुए उन्हें यज्ञोपवीत धारण करवाना प्रारंभ कर दिया। इसके लिए इन्हें सवर्णों का कोपभाजन भी बनना पड़ा था। हिंदू संस्कारों से संबद्ध कर्मकांड की कठिनाई का सामना करने के लिए इन्होंने स्वयं काशी विद्यापीठ में जाकर दो वर्ष तक वहां पर रहकर संस्कारों से संबद्ध कर्मकांड का ज्ञान प्राप्त किया तथा पुनः कुमाऊँ में आकर हरिजनों के षोड्स संस्कारों को संपन्न कराने का कार्यभार संभाला। सन् *1937 में 'कुमाऊँ शिल्पकार सुधारिणी सभा'* का गठन किया तथा सन् 1958 में पाली गांव में एक 'शिल्पकार सम्मेलन' का भी आयोजन किया। पर साथ ही ये दोनों ही 'दलितोद्धार' के आंदोलनों के साथ-साथ राष्ट्रीय नेताओं के साथ राष्ट्रीय आंदोलनों में भी अपना भरपूर योगदान करते रहे।

भूमित्र आर्यः दलितोद्धार आंदोलन के अन्यतम सशक्त हस्ताक्षर रहे हैं भूमित्र आर्य। ये गुरुकुल कांगड़ी के सिद्धान्त विशारद परीक्षोत्तीर्ण स्नातक थे। इनका पारिवारिक संबंध एक निर्धन लोहकार परिवार से था। ये बड़े संघर्षशील मेधावी व्यक्ति थे। इन्होंने जहां एक ओर दलितोद्धार के संघर्ष की मशाल को उद्दीप्त रखा, वहीं दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों के बहकावे में आकर ईसाई बनाये दलितों को शुद्धीकरण के द्वारा पुनः आर्य वर्ग में लाने का महत्वपूर्ण कार्य भी किया। श्री खुशीराम के मार्गदर्शन में इन्होंने यहां पर दलितोद्धार के कार्य में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। ये एक अच्छे लेखक, वक्ता व प्रवक्ता भी थे। जिला विद्यालय निरीक्षक के पद पर कार्य करते हुए ये हरिजनों के पौरोहित्य का कार्य भी करते रहे।

हरिप्रसाद टम्टा (1888-1960): दलितों को 'शिल्पकार' नाम दिलाने तथा 'कुमाऊँ शिल्पकार सभा' की स्थापना में इनकी प्रमुख भूमिका रही है। इन्हीं के प्रयास से दलितों को सैनिक सेवाओं में प्रवेश का अधिकार प्राप्त हुआ था। सन् 1927 में दलितों को शिल्पकार कहे जाने की सरकारी मान्यता दिलाने में भी इनकी प्रमुख भूमिका रही थी। इन्हीं के प्रयासों के फलस्वरूप यहां पर सन् 1905 में 'टम्टा सुधार सभा' की तथा सन् 1924 में समस्त उत्तराखंड के शिल्पकारों का एक वृहत् सम्मेलन का आयोजन करके 'कुमाऊँ शिल्पकार सभा' की स्थापना में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान था। इन्हीं के प्रयासों के फलस्वरूप ही सन् 1930-40 में समस्त उत्तराखंड के भूमिहीन शिल्पकारों को सरकार की ओर 30 हजार एकड़ भूमि का निःशुल्क अवतरण करवाया गया था। कुमाऊँ शिल्पकार सभा के माध्यम से यहां पर 150 प्राथमिक एवं प्रौद पाठशालाओं की स्थापना करवायी थी।

जयानन्द भारतीयः श्री जयानन्द भारती का जन्म 17 अक्टूबर 1881 को वर्तमान पौड़ी जिले के अरकण्डई गांव में हुआ था। 1914 में वे ब्रिटिश सेना में भर्ती हो गए और जर्मनी के खिलाफ युद्ध में शामिल हो गए। 1920 में वे भारत लौट आए और फिर से आर्य समाज के काम में लग गए। उन्होंने 1923 में पहली बार डोला पालकी आंदोलन का नेतृत्व किया। इन्होने आर्य समाज के विचारों को गढ़वाल में प्रचारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


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