मध्यकालीन गढ़वाल की संरक्षिका शासिकायें व उनकी राजनीतिक-कूटनीतिक गतिविधि
सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में मध्य हिमालय क्षेत्र में अवस्थित लगभग 10,875 वर्ग कि.मी. पर्वतीय भू-प्रदेश की अनेक छोटी-बड़ी ठकुराइयों को विजित कर पंवारवंशीय राजा अजयपाल ने आरम्भ में चाँदपुर को अपना प्रशासनिक मुख्यालय बनाया। कालान्तर में कुछ समय के लिए देवलगढ़ को राजधानी के रूप में प्रयुक्त कया गया। तत्पश्चात् श्रीनगर (गढ़वाल) को राजधानी बनाया गया। गढ़ों की अधिकता के कारण यह पर्वतीय राज्य गढ़वाल कहलाया।
सातवीं शताब्दी में इस पर्वतीय प्रदेश का भ्रमण करने वाले चीनी यात्री हवेन सांग ने हरिद्वार से ऊपर ब्रह्मपुर के उत्तर में स्त्री राज्यों का उल्लेख किया है। वह लिखता है कि यद्यपि इन राज्यों में राजा तो होते हैं, किन्तु वे केवल नाममात्र के ही राजा हैं, इन राजाओं में स्त्रियाँ ही प्रधान हैं।' वेन सांग के उक्त विवरण से प्रतीत होता है कि सातवीं शताब्दी में इस पर्वतीय अंचल में मातृ-मूलक अथवा मातृ-सत्तात्मक व्यवस्था थी, जिसके कारण इस क्षेत्र में स्त्रियों की प्रधानता थी और वे प्रशासनिक शक्तियों का उपभोग करती थीं। मध्यकाल तक आते-आते इस पर्वतीय अंचल में मातृ-सत्तात्मक व्यवस्था अप्रभावी हो गई। यद्यपि इस सामाजिक परिवर्तन से स्त्रियों को प्राप्त विशेषाधिकारों में कमी आई, परन्तु राजपरिवार की स्त्रियों ने अपनी स्थिति को श्रेष्ठ बनाये रखा। फलस्वरूप उन्होंने समकालीन राजनीतिक-कूटनीतिक विषयों में सक्रिय रूचि ली और प्रशासनिक कार्यों का संचालन भी किया। समकालीन राजनीति एवं प्रशासन में स्त्रियों की सक्रिय भागीदारी के कारण सन् 1630 से 1730 की अवधि में गढ़वाल में तीन बार संरक्षिका शासिकाओं ने शासन-संचालन किया। स्थानीय इतिहास में इन संरक्षिका शासिकाओं के प्रभुत्वकाल को 'रानीराज कहा गया है।
प्रथम 'रानीराज सन् 1630-40 के अन्तर्गत राजमाता कर्णावती ने प्रशासनिक कार्यों का संचालन किया। वह गढ़वाल के राजा महिपतिशाह (1624-30) की पत्नी थी। सन् 1630-31 में महिपतिशाह की मृत्यु के समय उसका पुत्र पृथ्वीपतिशाह अवयस्क था। अतः समस्त प्रशासनिक शक्तियाँ राजमाता कर्णावती के हाथों में केन्द्रित हो गईं। संरक्षिका शासिका के रूप में राजमाता कर्णावती ने लगभग एक दशक (1630-40) तक शासन - संचालन किया। यद्यपि राजमाता कर्णावती के पितृगृह आदि का विवरण स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है, परन्तु उसकी योग्यता, बुद्धि चातुर्य, सामरिक ज्ञान और कूटनीतिक दक्षता आदि को देखते हुए कहा जा सकता है कि उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि उच्च रही होगी।
राजमाता कर्णावती को अपने पति की मृत्यु के पश्चात् जहाँ एक ओर स्थानीय समस्याओं से जूझना पड़ा, वहीं दूसरी ओर उसे समकालीन मुगल शासक शाहजहाँ के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा। समकालीन ग्रन्थों - शाहजहाँनामा एवं मआसिर-उल-उमरा-से ज्ञात होता है कि शाहजहाँ ने अपने राज्यारोहण के उत्सव में सम्मिलित होने के लिए गढ़वाल के समकालीन राजा महिपतिशाह को भी निमन्त्रण भेजा था, परन्तु महिपतिशाह ने मुग़ल सम्राट के निमन्त्रण की उपेक्षा की और उसके राज्यारोहण के उत्सव में सम्मिलित होने के लिए आगरा नहीं गया। सम्राट शाहजहाँ ने गढ़वाल के राजा के इस व्यवहार को अपना अपमान समझा और प्रतिशोधवश गढ़वाल अधीनीकरण की योजना बनायी। इसी बीच (1630-31) महिपतिशाह की मृत्यु हो गई।
महिपतिशाह की मृत्यु के पश्चात् शासन-संचालन उसकी विधवा राजमाता कर्णावती ने सम्भाला। एक स्त्री शासिका पर सरलता से विजय प्राप्ति की आशा से शाहजहाँ ने दामन-ए-कोह काँगड़ा (काँगड़ा पर्वतीय क्षेत्र) के फौजदार नजाबत को गढ़वाल विजय का दायित्व सौंपा। नजाबत खाँ ने सिरमौर के राजा मानधाता, प्रकाश गुलेर के राजा रूपचन्द गुलेरी, लखनपुर के राजा जगत तथा गूजर गुलेरी, उदयसिंह राठौर आदि के सैनिकों की एक सम्मिलित सेना गठित कर गढ़वाल पर आक्रमण किया। इस विशाल आक्रमणकारी सेना ने गढ़वाल के सीमावर्ती क्षेत्रों-बैराटगढ़, कालसी, सातौर तथा नानौर दुर्गों पर अधिकार करके गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर की ओर प्रस्थान किया। नजाबत खाँ एवं उसके सहयोगियों की सम्मिलित सेना को श्रीनगर की ओर बढ़ने से रोकने के लिए संरक्षिका शासिका कर्णावती ने हरिद्वार से श्रीनगर की ओर आने वाले मार्गों को चूने-पत्थर की चिनाई कराकर बन्द करा दिया। नजाबत खाँ के सैनिक कठिन संघर्ष के पश्चात् इन अवरोधों को पार करने में सफल हो गये।
विशाल आक्रमणकारी सेना को सीधे युद्ध में पराजित करना असम्भव था। अतः राजमाता कर्णावती ने कूटनीति से काम लिया। जब नजाबत खाँ श्रीनगर से 30 कोस की दूरी पर पर्वतीय प्रदेश में आ पहुँचा, तब राजमाता कर्णावती ने अपने दूत भेजकर नजाबत ख़ाँ के सम्मुख यह प्रस्ताव रखा कि श्रीनगर राज्य से नजाबत ख़ाँ को दस लाख रूपये सम्राट शाहजहाँ के लिए एवं एक लाख रूपये नजाबत ख़ाँ को इस शर्त पर दे दिये जायेंगे कि वह श्रीनगर की ओर कूच न करे और गढ़वाल राज्य की प्रजा को कोई कष्ट न पहुँचाये।
राजमाता कर्णावती के सन्धि-प्रस्ताव को देखकर कुछ विद्वानों ने यह विचार प्रस्तुत किया है कि राजमाता ने नजाबत ख़ाँ से हार मान ली थी, परन्तु वास्तव में यह राजमाता कर्णावती की एक कूटनीतिक चाल थी। राजमाता कर्णावती नजाबत ख़ाँ को उस समय तक अपनी राजधानी से दूर रोके रखना चाहती थी, जबतक कि वह अपनी राजधानी की सुरक्षा- व्यवस्था सुदृढ़ न कर लेती। अतः प्रत्यक्ष रूप में तो राजमाता नजाबत ख़ाँ को निश्चित धनराशि देने का इकरार करती रही और परोक्ष रूप में वह अपनी सुरक्षा-व्यवस्था में लगी रही। इस प्रकार उसने नजाबत ख़ाँ को धोखे में रख कर एक माह का समय निकाल दिया। नजाबत ख़ाँ को धोखे में रखने के लिए यह आवश्यक था कि उसे कुछ अग्रिम धनराशि दी जाती, अतः राजमाता ने नजाबत ख़ाँ को कुछ धनराशि और थोड़ा सा चाँदी का सामान भिजवा दिया। शेष धनराशि प्राप्त करने की आशा में नजाबत ख़ाँ पर्वतीय प्रदेश में रूका रहा।' इस बीच राजमाता ने नजाबत खाँ की रसद और वापस लौटने के मार्गों को भी बन्द करा दिया। राजमाता ने नजाबत ख़ाँ के चारों ओर ऐसा सामरिक जाल बुन दिया था, जिससे नजाबत ख़ाँ का वापस निकल पाना असम्भव था।
राजमाता कर्णावती की कूटनीति एवं घेराबंदी को जोशीला, परन्तु अनुभवहीन मुग़ल सेनानायक नजाबत ख़ाँ समझ न सका। अतः रसद की कमी के कारण उसके सैनिक शिवरों में भुखमरी फैल गयी। बाध्य होकर उसने अपने सैनिकों को रसद की प्राप्ति के लिए सैनिक शिवरों से निकलने का आदेश दिया।
गढवाली सेना इसी अवसर की प्रतीक्षा में थी। अतः अवसर मिलते ही उन्होंने नजाबत खाँ के सैनिकों पर तीव्र धावा बोल दिया। इस अचानक आक्रमण से नजाबत खाँ के सैनिक घबरा गये। नजाबत खाँ के सहायकों गुलेरी बन्धुओं सहित सैकडों मुगल सैनिक मारे गये और नजाबत खाँ बड़ी कठिनाई से प्राण बचा कर भाग सका। इस प्रकार गढवाल की इस अमर वीरांगना राजमाता कर्णावती ने सीमित साधनों के होते हुए भी, अपने बुद्धि-चातुर्य एवं साहस से नजाबत खॉ एवं उसकी सेना को पराजित कर मुगल सम्राट शाहजहाँ की गढ़वाल अधीनीकरण की योजना को असफल बना दिया। राजमाता कर्णावती ने इस विशाल आक्रमणकारी सेना से अपने राज्य की रक्षा तो की ही, साथ ही मुगल सेना द्वारा अधिकृत दून प्रदेश पर भी पुनः अधिकार कर लिया।
संरक्षिका रानी के रूप में राजमाता कर्णावती ने लगभग एक दशक तक गढ़वाल राज्य के प्रशासनिक कार्यों का संचालन किया। इन दस वर्षों में उसने वैदेशिक मामलों का तो समुचित संचालन किया ही, साथ ही अपने राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था में भी अनेक सुधार किये। उसने मिर्ज़ा दोस्त बेग मुगल नामक एक मुस्लिम पदाधिकारी को महत्वपूर्ण दायित्व सौंपकर प्रशासन में भागीदार बनाया। मिर्ज़ा दोस्त बेग मुग़ल के मुस्लिम सैनिकों ने गढ़वाल राज्य की सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान किया। राजमाता कर्णावती ने अपने प्रभुत्वकाल में व्यापार एवं कृषि की उन्नति के लिए विशेष ध्यान दिया। फलस्वरूप अनेक मार्गों का निर्माण किया गया। दक्षिण-पश्चिम दिशा में आक्रमणकारी मुग़ल सेनाओं को रोकने के लिए राजमाता ने दून प्रदेश (वर्तमान देहरादून) की सुरक्षा को दृढ़ किया। उसने वहाँ कर्णपुर नामक नगर बसाया तथा सेना को पुनर्गठित किया। सन 1640 के लगभग पृथ्वीपतिशाह ने वयस्क होने पर पूर्ण रूप से सत्ता संभाल ली। अतः कुछ विद्वानों का कहना है कि सन् 1640 में राजमाता कर्णावती का प्रभुत्वकाल समाप्त हो गया, परन्तु इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि पृथ्वीपतिशाह के पूर्ण रूप से सत्ता संभाल लेने के पश्चात् भी तत्कालीन राजनीति एवं प्रशासन में उसे अपनी माता का परामर्श प्राप्त होता रहा होगा।
रानी कर्णावती के पश्चात् रानी बर्खाली जी एवं रानी सिरमौरी जी ने समकालीन राजनीति एवं प्रशासन में संरक्षिका शासिकाओं के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। समकालीन ऐतिहासिक ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि पृथ्वीपति शाह के जीवन काल में ही उसके पुत्र मेदिनी शाह की मृत्यु हो गयी थी। उसकी मृत्यु के पश्चात् पृथ्वीपति शाह ने अपने पौत्र फतेहशाह को अपना उत्तराधिकारी बनाया। सन् 1664 के लगभग पृथ्वीपतिशाह की भी मृत्यु हो गयी। पृथ्वीपतिशाह की मृत्यु के समय उसका पौत्र फतेहशाह अवयस्क था। अतः राजमाता बर्वाली जी ने संरक्षिका शासिका के रूप में लगभग सात वर्ष तक प्रशासनिक कार्यों का संचालन किया। 10 सन् 1671 के लगभग वयस्क हो जाने पर फतेहशाह ने स्वतन्त्र रूप से प्रशासनिक कार्यों का संचालन आरम्भ कर दिया। सालेटर के अनुसार कुछ समय तक रानी सिरमौरी जी ने भी संरक्षिका शासिका के रूप में शासन संचालन किया।"
अट्ठारहवीं शताब्दी में श्रीनगर गढ़वाल राज्य की राजनीति एवं प्रशासन में जिन स्त्रियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनमें गढ़नरेश प्रदीप शाह की माता का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। मौलाराम एवं रेपर के अनुसार राज्यारोहण के समय (सन् 1718) प्रदीप शाह की आयु केवल पाँच वर्ष थी। अतः उनकी माता ने लगभग 12-13 वर्ष तक संरक्षिका शासिका के रूप में शासन किया। इसीलिए सन् 1717-1730 तक का काल गढ़वाल के इतिहास में 'रानीराज' कहलाता है। एक दशक से भी अधिक समय तक गढ़वाल राज्य पर शासन करने वाली इस संरक्षिका शासिका का नाम क्या था? यद्यपि इस विषय पर समस्त ऐतिहासिक ग्रन्थ मौन हैं, परन्तु इतना स्पष्ट है कि वह काँगड़ा के राजपरिवार से सम्बन्धित थी, और अत्यधिक महत्वाकांक्षी थी। उसकी इसी स्वेच्छाचारिता एवं महत्वाकांक्षी प्रवृति के परिणामस्वरूप उसके प्रभुत्वकाल में राजनीतिक दलबन्दियाँ हुई। शिवप्रसाद डबराल के अनुसार महीपतिशाह के समय में सामन्तों में जो प्रतिद्वन्द्विता उत्पन्न हुयी थी, वह इस रानी के प्रभुत्वकाल में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी। यह रानी पंच भैया कठोचौं-भगवत सिंह, आलम सिंह, महीपति सिंह, दयाल सिंह और कलम सिंह-पर विशेष विश्वास और अनुग्रह रखती थी, क्योंकि वे उसके जाति भाई थे। ये पांचों भाई राज्य के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त थे। डबराल लिखते हैं कि गढ़वाल के राजा खास राजपूतों और गढ़वाली परिवारों की पुत्रियों से विवाह तो कर लेते थे, किन्तु अपनी गढ़वाली रानियों की अपेक्षा डोटी या हिमाचल से आयी हुई रानियों को ही अधिक सम्मान देते थे। 13 साधारणतया हिमाचल से ब्याह कर आयी हुई रानियों से उत्पन्न पुत्रों को ही युवराज बनने का सौभाग्य प्राप्त होता था। डबराल के उक्त कथन के आधार पर यह माना जा सकता है कि गढ़नरेशों द्वारा अपनी गढ़वाली पत्नियों की अपेक्षा हिमाचल से आयी हुई पत्नियों को अधिक सम्मान एवं विशेषाधिकार दिये जाने से राजपरिवार में भी दो दल हो गये थे। एक हिमाचल से आयी हई रानियों एवं उनके कृपा पात्रों का और दूसरा गढनरेशों की गढ़वाली पत्नियों एवं उनके सम्बन्धियों का। इन दोनों दलों में प्रतिस्पर्धा एवं प्रतिद्वन्द्विता होना स्वाभाविक ही था।"
प्रदीप शाह की माता के संरक्षण काल में यह प्रतिद्वन्द्विता और अधिक उग्र हो गयी, क्योंकि यह संरक्षिका शासिका अपने जाति भाइयों पंच भैया कटौचौं पर ही निर्भर हो गयी थी। इसका लाभ उठा कर पंच भैया कठौचों ने स्वेच्छानुसार शासन करना आरम्भ कर दिया। काँगड़ा से आये हुए इन कठौच भाइयों के प्रभुत्व में निरन्तर होती जा रही वृद्धि के फलस्वरूप स्थानीय पदाधिकारी एवं सामन्त असंतुष्ट हो गये। अतः दोनों दलों में संघर्ष अनिवार्य हो गया। बहुत सम्भव है कि स्थानीय पदाधिकारियों ने सत्ता परिवर्तन का भी कोई षड्यन्त्र रचा हो। गढ़वाल राज्य के इस आन्तरिक कलह एवं गुटबन्दियों के कारण अराजकता उत्पन्न हो गई थी। 15
कालान्तर में कठौच भाइयों की शक्ति में और भी अधिक वृद्धि हो गयी, परन्तु कुछ नवीन करों को लगाये जाने के कारण प्रजा असंतुष्ट हो गई। गढ़वाली राज्याधिकारियों ने इस जन असंतोष का लाभ उठाकर पंच भैया कठौचों का उन्मूलन करने में सफलता प्राप्त कर ली। 16 पंच भैया कठौचों के पतन के पश्चात् रानी एवं उसके पुत्र के लिए भी संकट उत्पन्न हो गया, परन्तु संरक्षिका रानी ने बड़ी चतुराई से एक वयोवृद्ध एवं प्रभावी राज्याधिकारी पुरिया नैथानी को अपनी ओर मिला लिया।" अतः शीघ्र ही विरोधी दल में फूट पड़ गई।
विरोधी दल दो भागों में बंट गया। एक दल का नेतृत्व वजीर गजे सिंह भण्डारी तथा मन्त्री शंकर डोभाल कर रहे थे। चूँकि इस दल को पुरिया नैथानी का समर्थन प्राप्त था, अतः यह दल संरक्षिका रानी और अवयस्क राजा का समर्थक बन गया। दूसरे दल का नेतृत्व कठैत बन्धु कर रहे थे। कठैत दल संरक्षिका रानी एवं बालक राजा की हत्या का षड्यन्त्र रच रहा था। कठैत दल ने राजमाता समर्थक वज़ीर गजे सिंह भण्डारी एवं मन्त्री शंकर डोभाल की हत्या कर दी। इन दो प्रमुख राज्याधिकारियों की हत्या हो जाने से स्वयं संरक्षिका रानी एवं अवयस्क राजा के प्राणों को गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया। यद्यपि पुरिया नैधानी अवयस्क राजा की रक्षा के लिए कटिबद्ध था, परन्तु कठैत दल का दमन करने के लिए राजमाता समर्थक दल की शक्ति में वृद्धि किये बिना वह सफल नहीं हो सकता था।
संरक्षिका शासिका ने इन दोनों दलों के पारस्परिक वैमनस्य का लाभ उठाया। उसने कठैत दल द्वारा मारे गये गजे सिंह भण्डारी के भाई मदन सिंह भण्डारी को वजीर बना दिया। 19 रानी ने उसे अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए प्रोत्साहित किया। संरक्षिका शासिका की यह चाल सफल रही। अन्ततः मदन सिंह भण्डारी के सैनिकों ने कठैत बन्धुओं के दमन एवं उन्मूलन में सफलता प्राप्त कर ली। कठैत बन्धुओं के उन्मूलन के पश्चात् श्रीनगर गढ़वाल राज्य की राजनीति में पुनः ठहराव आ गया।
मध्यकालीन श्रीनगर गढ़वाल राज्य में सन् 1631 से 1730 तक तीन बार "रानीराज" स्थापित हुए। सन् 1630 से 1730 तक इस एक शताब्दी में तीन बार राज परिवार की स्त्रियों ने संरक्षिका शासिकाओं के रूप में प्रशासनिक शक्तियों का पूर्ण उपभोग करते हुए शासन कार्यों का संचालन किया। सर्वप्रथम सन् 1630 से 1640 तक राजमाता कर्णावती ने, तत्पश्चात् सन् 1667 से 1674 तक संरक्षिका शासिका सिरमौरी एवं बर्खाली जी ने और सन् 1717 से 1730 तक अवयस्क गढ़नरेश प्रदीपशाह की माता ने तत्कालीन राजनीति एवं प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रथम रानीराज सन् (1630-1640) के अन्तर्गत राजमाता कर्णावती ने बड़ी सूझबूझ से प्रशासनिक कार्यों का संचालन किया। राजमाता कर्णावती ने जिस कुशलता, धैर्य एवं साहस से मुगल सम्राट शाहजहाँ की गढ़वाल अधीनीकरण की योजना को विफल किया, वह गढ़वाल के इतिहास में अद्वितीय है। यदि राजमाता कर्णावती इस मुग़ल अभियान का प्रतिरोध करने में असफल हो जाती, तो न केवल गढ़ राजवंश के अस्तित्व को ही संकट उपत्न्न हो जाता, बल्कि गढ़वाल राज्य की स्वतन्त्र सत्ता का भी पतन हो जाता। इसके अतिरिक्त राजमाता कर्णावती के दस वर्ष के सरंक्षण काल में गढ़वाल राज्य में किसी विद्रोह, षड्यन्त्र अथवा गुटबन्दियों का उल्लेख न मिलना यह सिद्ध करता है कि राजमाता कर्णावती की गृहनीति भी सफल रही। निःसन्देह इस वीरांगना ने कुशलतापूर्वक अपने दायित्वों का निर्वाह किया और गढ़वाल राज्य को प्रगति के मार्ग पर अग्रसर किया।
द्वितीय रानीराज (1664-1674) के अन्तर्गत अवयस्क राजा फतेहशाह की माताओं सिरमौरी जी ओर बर्खाली जी ने संरक्षिका शासिकाओं के रूप में शासन संचालन किया। फतेहशाहकरण नामक ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि फतेहशाह का जन्म सन् 1656 में हुआ था तथा औरंगज़ेब के एक फ्रमान से ज्ञात होता है कि फतेहशाह ने गढ़वाल की सत्ता सन् 1664-65 में प्राप्त की थी। इसका अर्थ यह हुआ कि सत्ता प्राप्ति के समय फतेहशाह की आयु केवल आठ वर्ष थी। यदि यह माना जाये कि 18 वर्ष की आयु में वह वयस्क होकर स्वयं शासन संचालन करने लगा था, तो सन 1664 से 1674 तक लगभग एक दशक तक उसकी माताओं ने संरक्षिका शासिकाओं के रूप में शासन संचालन किया। इन संरक्षिका शासिकाओं के समय में गढ़वाल में किसी बडे विद्रोह अथवा षडयन्त्र का उल्लेख न मिलना तथा पडोसी राजाओं के आक्रमणों के विरुद्ध संरक्षिका शासिकाओं द्वारा मुग़ल सम्राट से सहायता प्राप्त करने में सफल रहना आदि से स्पष्ट होता है कि इन संरक्षिका शासिकाओं का प्रभुत्वकाल गृह एवं वैदेशिक दोनों ही क्षेत्रों में सफल रहा।
तृतीय रानीराज गढ़वाल के इतिहास में आन्तरिक कलह एवं अराजकता का काल सिद्ध हुआ। द्वितीय रानीराज में गढ़वाल के राज्याधिकारियों के बीच जो दलबन्दियाँ हुई, वह तृतीय 'रानीराज' में अत्यधिक उग्र हो गईं। कहना असंगत न होगा कि तृतीय 'रानीराज' में सामन्तवर्ग अत्यधिक शक्तिशाली और स्वेच्छाचारी हो गया। सामन्तों के पारस्परिक शक्ति प्रदर्शन और शक्ति परीक्षण के फलस्वरूप वज़ीर गजे सिंह भण्डारी और शक्तिशाली मन्त्री शंकर डोभाल मारे गये। सामन्त वर्ग की महत्त्वाकांक्षाओं और शासक निर्माता बनने के प्रयासों से न केवल राजपद के गौरव में की आई, बल्कि सामन्तों ने पारस्परिक शक्ति परीक्षण में राज्य के आर्थिक और सैनिक संसाधनों का जिस प्रकार दुरुपयोग किया उससे राज्य की आर्थिक-सैनिक शक्ति का ह्रास हुआ। इसका लाभकालान्तर में नेपाल नरेश ने उठाया। सन् 1792 में नेपाली सेना ने गढ़वाल पर आक्रमण किया। नेपाली सेना ने गढ़वाल के सामरिक महत्व के गढ़ लगूरगढ़ पर अधिकार कर लिया और गढ़वाल के राजा को विवश किया कि वह नेपाल नरेश को वार्षिक कर के रूप में एक बड़ी धनराशि का नियमित भुगतान करे। कालान्तर में नेपाल नरेश ने गढ़वाल के राजा द्वारा वार्षिक कर का भुगतान न करने का आरोप लगाकर गढ़वाल पर आक्रमण किया और 1803-1804 में गढ़वाल पर अधिकार कर लिया।
यह लेख चन्द्रपाल सिंह रावत सम्पादित गढ़वाल और गढ़वाल पुस्तक से लिया गया है जिसकी लेखक रेहाना जैदी है।
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