न्यौता परम्परा में सौंफ-सुपारी
भारतीय संस्कृति में 'न्यौता' देने की परम्परा न केवल सामाजिक संबंधों को प्रगाढ़ करने का माध्यम रही है, बल्कि यह विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप भी विकसित होती रही है। उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में न्यौते की परम्परा का एक अत्यंत रोचक और विशिष्ट रूप देखने को मिलता है, जिसमें 'सौंफ' और 'सुपारी' देना एक अनिवार्य प्रथा रही है।
आवागमन की कठिनाइयाँ और न्यौते की विशेष व्यवस्था-
उत्तराखंड के दुर्गम पर्वतीय गाँवों में आवागमन सदैव एक कठिन कार्य रहा है। एक गाँव से दूसरे गाँव तक पहुँचने के लिए घने जंगलों, तीखी चढ़ाइयों और गहरी उतराइयों से होकर गुजरना पड़ता था। आज के समय में जबकि मोबाइल और व्हाट्सएप्प जैसे संचार के साधन उपलब्ध हैं, तब भी न्यौते की पारम्परिक विधियाँ यहाँ अपना महत्त्व बनाए हुए हैं। परन्तु पूर्व में, जब कोई त्वरित संपर्क का साधन नहीं था, तब न्यौते को पहुँचाना अपने आप में एक बड़ी जिम्मेदारी और श्रमसाध्य कार्य होता था।
सौंफ और सुपारी का प्रतीकात्मक महत्त्व-
न्यौते के साथ सौंफ और सुपारी देना एक गहरी सांस्कृतिक परम्परा है। सौंफ को यहाँ शुभता, शीतलता और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है, जबकि सुपारी सम्मान और स्नेह का प्रतीक होती है। किसी आयोजन के लिए जब न्यौता भेजा जाता था, तो इसे केवल वाणी तक सीमित न रखकर, सौंफ और सुपारी के साथ औपचारिकता दी जाती थी, जिससे न्यौते को गंभीरता और आत्मीयता प्राप्त होती थी।
न्यौता पहुँचाने का श्रमसाध्य कार्य-
न्यौता देने के लिए गाँव के युवाओं की ड्यूटी तय की जाती थी। प्रायः दो-दो युवाओं को एक टोली बनाकर भेजा जाता था, जो सुबह से निकलकर पूरे दिन कठिन चढ़ाइयाँ और उतराइयाँ पार करते हुए विभिन्न गाँवों तक न्यौते पहुँचाते थे। कई बार तो उन्हें एक ही दिन में अनेक गाँवों में न्यौता देना पड़ता था। यह कार्य शारीरिक श्रम और धैर्य की चरम परीक्षा होता था।
विशेष बात यह थी कि ये वही युवा, जो न्यौता पहुँचाते थे, आयोजन के दिन भी पूरी निष्ठा से आयोजन से जुड़ी अन्य व्यवस्थाएँ सँभालते थे। इस प्रकार न्यौते का कार्य न केवल सूचना देने का, बल्कि सामुदायिक उत्तरदायित्व का भी महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाता था।
वर्तमान में भी जीवित परम्परा-
हालाँकि आजकल मोबाइल फोन और सोशल मीडिया के माध्यम से संदेश देना आसान हो गया है, फिर भी उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में परम्परागत न्यौता देने की यह प्रथा आज भी जीवित है। सौंफ और सुपारी के साथ आमंत्रण देना आज भी सामाजिक सम्मान और सांस्कृतिक अनुशासन का प्रतीक माना जाता है। लोग मानते हैं कि बिना सौंफ और सुपारी के न्यौता अधूरा होता है और इसमें आत्मीयता का भाव नहीं आता।
'न्यौता परम्परा में सौंफ-सुपारी' उत्तराखंड के पर्वतीय जीवन की कठोरता, सामूहिकता और सांस्कृतिक गरिमा का जीवंत प्रमाण है। यह परम्परा हमें यह सिखाती है कि सच्चे सामाजिक संबंध केवल सूचना के आदान-प्रदान से नहीं, बल्कि श्रम, सम्मान और सजीव संपर्क से बनते और सँवरते हैं। इस दृष्टि से यह परम्परा आज भी प्रासंगिक और प्रेरणादायक है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें