रवाँई का एक अनूठा लोकानुष्ठान 'खोदाईं'- श्री महावीर रखाँल्टा
रवाँई क्षेत्र में एक कहावत प्रसिद्ध है कि 'डूम कू जागरु अर खसिया अनिंदरु' यानि हरिजन का जागर और खसिया राजपूत जागे। यह कहावत यूँ ही प्रचलित नहीं है। बल्कि इस क्षेत्र के हरिजनों में ऐसे 'जागर' की परम्परा भी है जिसमें भागीदारी हरिजन परिवारों की होती है और श्रवण के लिए गाँव और आसपास के सारे लोग आते हैं। सामान्यतः तीसरे या पाँचवें वर्ष रात्रि जागरण एवं स्तुति का यह अनुष्ठान किसी एक हरिजन परिवार में होता है, लेकिन सक्रिय सारे हरिजन परिवार रहते हैं। स्थानीय वासियों में यह अनुष्ठान 'खोदाई' के नाम से ख्यात है। 'खोदाई' को सम्पन्न कराने के लिए एक विशिष्ट व्यक्ति 'जग' को आमंत्रित किया जाता है तथा उसके साथ दो-तीन व्यक्ति और होते हैं।
तीन रात्रियों में सम्पन्न होने वाली खोदाई में जगऱ्या की प्रमुख भूमिका होती है। वह गाते हुए अनुष्ठान हो आगे बढ़ाता है और बाकी लोग उसी को दोहराते हुए उसका साथ देते हैं। खोदाई के लिए पहले मकान की छत उखाड़नी पड़ती थी और वहीं बैठकर सवर्ण लोग पूरी रात खोदाईं देखते थे। खोदाई की पहली रात्रि को इसके इष्ट गुसाईं एक बार अवतरित होते हैं। दूसरी रात्रि को दो बार और अतिम रात्रि को चार बार अवतरित होते हैं। यही खोदाई की महत्त्वपूर्ण रात्रि होती है। चौथे दिन प्रातः सूअर की बलि चढ़ाने के साथ ही इसका समापन हो जाता है। लेकिन अब मकान की छत उखाड़ने और सूअर की बलि चढ़ाने की प्रथा समाप्त हो रही है। अनुष्ठान की तीसरी रात्रि को सारी सामग्री प्रयुक्त की जाती है तथा पहली व दूसरी रात्रि की लयवद्ध कथा इस दिन फिर से गायी जाती है। पहले दिन खोदाई के इष्ट तिल का तेल निकालने और अन्य कार्यों के लिए लोगों को अपनी ओर से निमन्त्रित करते हैं। गाँव का प्रत्येक परिवार अपने घर से गंहूँ के आटे का "रोट" और गैत की दाल को पकाकर तैयार किया "इंडा" लाकर श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान को अर्पित करता है।
खोदाई के इष्ट गुसाईं के बारे में प्रचलित कथा कुड़ गाँव के जयरू, जाबला के सायबू और कोटी गाँव के तोफा इस प्रकार बताते हैं-
तनबूट ऋषि की एक कन्या थी। ईश्वर की दृष्टि मात्र से वह गर्भवती हुई। गभर्भावस्था का बारहवाँ महीना हुआ तब गर्भस्थ शिशु माँ से बोला 'बता माता बैईर कू पैंड' (माँ! संसार में आने की राह बता)। तब माँ ने कहा कि 'आन पूत सईंसर बाट' (पुत्र! सांसारिक राह से आ)। लेकिन जन्म से जुड़ा नाम पड़ने की आशंका से वह आँख, कान के रास्ते भी जन्म लेने को राजी नहीं होता। आखिर माँ के दूध की धार यानि स्तन से उसका जन्म होता है। मूल में इसी शिशु का बृहत् रूप गुसाई देव हुआ जिसके नाम पर खोदाई होती है।
नन्हा शिशु सूर्य की तरह तेजस्वी व प्रचण्ड था। एक दिन ऋषि-पुत्री शिशु को पिता के पास छोड़कर बाहर गयी। शिशु रोने लगा तो ऋषि उसे गोद में उठाकर खिलाने का प्रयत्न करने लगे। लेकिन वे जैसे ही शिशु को स्पर्श करते उनका शरीर झुलसने लगता। क्रोधित हो ऋषि ने उसे पत्थरशिला पर पटक दिया और शिशु के चौदह टुकड़े हो गये। उन टुकड़ों को समेटकर एक पोटली से बाँधा और संदूक में रख दिया। पुत्री ने आकर पिता से शिशु के बारे में पूछा तब ऋषि ने संदूक की ओर संकेत किया।
संदूक से पोटली लेकर व्यथित माँ चिड़िया का वेश बनाकर ईश्वर की सभा में पहुँची। सारी स्थिति को समझ ईश्वर ने उस पर तरस खाकर पोटली में बँधे टुकड़ों में प्राण भर दिये। चौदह में से तेरह भाई और एक बहिंन हुई। बड़े होने पर इन भाई-बहिनों का प्रकाश इतना तीव्र था कि सारे पेड़-पौधे, नदी-नाले सूखने लगे। तब ईश्वर की सभा हुई जिसमें उन्हें एक छत के नीचे जमाकर इन्हें इनके हिस्से सौंपने का निर्णय लिया गया। बारह भाइयों को बारह महीने, और रात का हिस्सा बहिन चन्द्रमा को मिला। रह गया तेरहवाँ भाई गुसाईं जो इससे बेखबर कहीं सो रहा था। माँ को उसकी चिंता होने लगी और वह उसे यहाँ-वहाँ खोजने लगी। उसे सोया देख माँ ने उसे जगाने का प्रयास किया किन्तु ब्यर्थ। तब माँ ने उसके सिरहाने सप्तमुखी शंख तथा पायताने थालियों का बड़ा-सा ढेर लगा दिया ताकि उसके हिलते-डुलते ही थालियाँ गिर पड़ें, साँसों से शंख बज उठे और वह जाग जाए। ऐसा ही हुआ। आँख खुलते ही क्रुद्ध गुसाईं पूछ बैठा-"काइकु आई खांदु लिंदु काल, काईन मेरी निंदर भिजाई?" (खाते-पीते किसका काल आया, किसने मेरी नींद में खलल डाला?)। चिड़िया के वेश में माँ ने उसे सारा वृतांत सुनाया और स्वयं ईश्वर के पास जाकर उसने अपने तेरहवें पुत्र के साथ हुए अन्याय से उसे अवगत
कराया। तब ईश्वर ने उसे मानव-मंडल (मृत्युलोक) का हिस्सा तथा एक गाय सौंपी।
गुसाई को मृत्युलोक का हिस्सा तो मिला लेकिन वहाँ तक पहुँचना सुगम नहीं था। यहाँ पहुँचने के लिए वह सूत बनवाने के लिए सुनार, लुहार, टमटा सभी के पास गया, लेकिन उनके सूत के जरिए वह मृत्युलोक तक पहुँचने में सफल नहीं हुआ आखिर सिद्धवा ने उसे ऊन का सूत (धागा) दिया जिसके द्वारा गुसाईं मृत्युलोक में पहुँचे।
मृत्युलोक पहुँचकर गुसाईं सबसे पहले राजपूत के घर पहुँचे जहाँ फूल, प्रसाद के द्वारा वे सत्यनारायण के रूप में पूजे गये। ब्राह्मण के घर जाने पर भात और पकौड़े से उन्हें पितृ देवता मानकर पूजा गया। राजा के महल में पहुँचने पर बकरे की बलि चढ़ाकर वीर बेताल मानकर पूजा गया। वे भ्रमण कर ही रहे थे तभी उन्होंने एक "डुमड़ी" (हरिजन स्त्री) को देखा जो एक टोकरी में गैत की दाल का "इंडा" लेकर जा रही थीं। उसके पीछे-पीछे सूअर चल रहा था। इंडा देख गुसाईं का मन ललचा गया, उनके मुँह में पानी आ गया। वह हरिजन के घर पहुँचा जहाँ उसकी पूजा इंडा, गेहूँ के रोट और सूअर की बलि चढ़ाकर की गयी, और तभी से वे हरिजनों के इष्ट हो गये। अपने कर्म का दुर्मति को वे स्वयं कोसते हैं-' आई मेरू करम कू कारू, वासु पड़ी डूम क घर (मेरे कर्म की दुर्मति हुई, हरिजन के घर वास पड़ा)।
खोदाई के लिए लिये गये लगभग बीस किलो चावल में से पाँच किलो का डिबिया का भात पकाकर अलग रखा जाता है तथा खोदाईं की शुरूआत पर सर्वप्रथम पन्द्रह किलो चावल का ढेर जमीन पर लगाया जाता है जिसे "बार" कहते हैं। 'बार' के बीचों-बीच लगभग आधा किलो ऊन को कातकर बनाये गये दोहरे सूत से एक कंडी को लटकाया जाता है। यह कंडी पाजू की लकड़ी की लगभग नौ इंची दो डडियों से बनायी जाती है। जिस पर दो-दो कर पाँच लड़ियों पर आटे के 'फल' लटके रहते हैं तथा बीच की लड़ी पर फलों के नीचे नारंगी लटकी होती है। सूत को इस प्रकार लटकाया जाता है कि आवश्यकता पड़ने पर घटाया-बढ़ाया जा सके। 'बार' के ऊपर नारंगी की सीध में "ओसागड़ी" रखी जाती है। ओसागड़ी पीतल की बंटी में पवित्र जल एवं एक सिक्के को कहा जाता है। इसे तीसरे दिन की प्रातः चार बजे के आसपास भरा जाता है तथा भरते हुए जल को बाहर नहीं छलकने दिया जाता। ओसागड़ी के ऊपर लगभग एक किलो गैत की दाल से बना 'इंडा' रखा जाता है। इंडे के ऊपर गेहूँ के आटे से बना रोट, फिर उड़द की दाल का बना पकोड़ा रखा जाता है। खोदाई के लिए लगभग पन्द्रह किलो गेहूँ का आटा लेकर उसके घुड़सवार, भेड़-बकरी तथा नाना प्रकार के पशु-पक्षी पकाकर बनाये जाते हैं। इसी आटे में से पच्चीस रोट भी बनाये जाते हैं जो अनुष्ठान में प्रयुक्त होते हैं, तथा प्रत्येक रोट एक खारी अर्थात् बीस मुट्ठी का होता है। लगभग तीन किलो उड़द की दाल लेकर आधा इंच मोटाई के पच्चीस पकौड़े बनते हैं तथा इतनी ही मोटाई की पूरियाँ भी बनती हैं।
इनके बीच घुड़सवार को इस तरह स्थापित किया जाता है कि नारंगी की सीध में टोप पहने उसका सिर रहे। इसी को 'गुसाईं' जी माना जाता है। सभी पशु-पक्षियों को लेकर 'बार' पर सजाया जाता है। गुसाईं जी के सिर के ठीक ऊपर कंडी से लटकी नारंगी होती है। दोहरे सूत के दो छोरों के बीच लगभग नौ इंची पाजू की नौ डंडियाँ लगाकर सीढ़ी की शक्ल दी जाती है। इसके बाद इन्हें रुई से सजाया जाता है। इस प्रक्रिया को "सिंवरी सजाना" कहते हैं। फिर इन्हें फूलों की मालाओं से सजाते हैं। खोदाई में यह बात खास होती है कि जगद्या गुसाई की लयवद्ध गाथा भी प्रस्तुत करता जाता है और मण्डप भी सजता जाता है। खोदाई का आरम्भ दीप प्रज्वलन से होता है और इसके साथ ही सभी देवी-देवताओं, धामी पुजारियों, ध्यानदुड़ियों, सगे-सम्बन्धियों, देव स्थलों, थाती एवं गाँव का स्मरण एवं स्तुति की जाती है। इसमें उल्लेखनीय है कि कोई अन्य देवी-देवता, पांडव आदि इस अनुष्ठान में अवतरित नहीं होते।
खोदाई में लोग न केवल गुसाईं जी की कथा सुनते हैं बल्कि उनके औतरने (अवतरित होने) पर अपने जीवन में घट रही अनहोनी घटनाओं व समस्याओं के कारण और समाधान को भी पूछते हैं। और वे बताते जाते हैं। इसके लिए अपना प्रश्न सोच एक अपना कोई सिक्का गुसाईं जी के अनुष्ठान में दे दिया जाता है। इसे "न्यूतु" कहा जाता है। सिक्के का उल्लेख कर क्रम से लोगों को अपने-अपने प्रश्नों के उत्तर मिलते जाते हैं जो किसी चमत्कार से कम नहीं होता। लोग श्रद्धानत हो उठाते हैं।
खोदाईं में पूरी रात जलते रहने वाले दीये के बारे में यह बात महत्त्वपूर्ण होती है कि यह केवल तिल के तेल से जलता है। इस दीये के सामने पूरी रात निःसंतान स्त्री या दम्पति के एकाग्रचित होकर बैठे रहने पर विश्वास किया जाता है कि गुसाईं उन्हें संतान देते हैं। स्थानीय बोली में इसे "वर बैठना" कहते हैं।
आज के दौर में, जब हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं, ऐसे में रवाँई क्षेत्र में खोदाईं जैसे परम्परागत अनुष्ठान का आयोजन हमें सांस्कृतिक जड़ों की ओर ले जाता है जो हमारी अक्षुण्ण निधि है।
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