एटकिंसन गजेटियर में वर्णित लोक देवताओं का वर्णन यथालिखित पढ़िये.

क्षेत्रपाल या भूमिया:- क्षेत्रपाल या भूमिया, खेत-खलिहान और सीमाओं का संरक्षक देवता है। यह हितैषी है और किसी को कब्जे में कर, या उसे अथवा उसकी फसल को नुकसान पहुंचाकर अपनी पूजा कराने के लिए बाध्य नहीं करता। हर गांव में उसे समर्पित एक छोटा सा मंदिर होता है जिसका क्षेत्रफल कुछ वर्ग-फीट से ज्यादा नहीं होता। जब फसल बोई जाती है तो खेत के कोने में और इस मंदिर के सामने किसी पत्थर पर मुट्ठीभर अनाज बिखेर दिया जाता है ताकि यह देवता फसल की ओलों, सूखे या जंगली जानवरों से रक्षा करे। फसल कटाई के समय फसल का पहला फल इसे चढ़ाया जाता है ताकि एकत्र किये गए अनाज की चूहों और कीट-पतंगों से रक्षा हो सके। यह दुष्टों को दण्ड और सज्जनों को पुरस्कार देता है। यह गांव का स्वामी है, गांव की समृद्धि में रचि रखता है और शादी-ब्याह, बच्चे के जन्म तथा अन्य उपलब्धि व हंसी-खुशी के मौकों पर चढ़ाई जाने वाली भेंटों का प्राप्तकर्ता साझीदार है। अन्य ग्रामीण देवताओं की तरह उसे शायद ही कभी सालाना बलि दी जाती हो, वह धरती में उपजे फल की विनम्र भेंट से ही संतुष्ट हो जाता है। क्षेत्रपाल का महाजागेश्वर दाननामा से सम्बद्ध एक मंदिर टंकर क्षेत्र के जंगल में है जिस पवित्र जंगल का यह स्वामी भी है। यहां उसे सैम या संयम नाम से जाना जाता है। यह स्वयंभू का अपभ्रंशित कुमाउंनी नाम है। स्वयंभू बुद्ध के उस रूप का नाम है जिसकी नेपाल में पूजा होती है। इस प्रकार उसे विशेष दिनों में बकरे के मेमने की बलि दी जाती है। इसका एक मंदिर बोरारौ में भी है जहां हर रोज पूजा होती है तथा उसकी पूजा के लिए थोड़ी-बहुत जमीन दान की गई है। सैम, क्षेत्रपाल की तरह हमेशा अपने कर्तव्य में मुस्तैद नहीं रहता और उसके जन्म के बारे में अलग किस्सा है तथा उसकी पूजा भी अलग तरह की है। वह कुमाऊं में प्रचलित पिशाच-पूजा में मिलने वाले चढ़ावे को लेने का साझीदार है। वह कभी किसी व्यक्ति को लग जाता है तो उसकी पहचान यह है कि उस व्यक्ति के केश बुरी तरह उलझ जाते हैं। काली-कुमाऊं में सैम को चंद-भूत हरू का अनुयायी माना जाता है।


ऐड़ी- ऐड़ी, वन-देवता है। वह वीभत्स और कुरूप है, उसकी आंखें सिर के ऊपर और चारों हाथों में अनेक हथियार हैं। वह दिन के समय तो छिपा रहता है लेकिन रात में पहाड़ों और जंगलों से निकल कर परियों को साथ लिए घूमता-फिरता और नाचता-गाता है। इनके पांव के पंजे पीछे को होते हैं, मनुष्यों की तरह आगे की तरफ नहीं होते। भ्रमण के दौरान उसके साथ झांपणी या पालकी-वाहक साऊ और भाऊ तथा शिकारी कुत्तों का एक झुंड चलता है। इन कुत्तों के गले में घुंघरू बंधे होते हैं। इन कुत्तों के भौंकने की आवाज जिसके भी कान में पड़ती है वह निश्चित रूप से किसी दुर्घटना का शिकार हो जाता है। ऐड़ी खखारता रहता है और उसका लार इतना जहरीला होता है कि जिस पर पड़ा उसी पर घाव हो गया। इन घावों का उपचार उसी अनुष्ठान द्वारा किया जाता है। जिसे अन्यत्र झाड़-फूंक कहते हैं जिसमें प्रभावित हिस्से को पेड़ की टहनी से झाड़ा और रगड़ा जाता है तथा टोना-मंत्र गुनगुनाए जाते हैं। अगर ऐसा जल्दी नहीं किया जाता है तो घायल व्यक्ति मर जाता है। हर हालत में घायल को कई दिन तक पौष्टिक व मसालेदार खाने से परहेज रखना होता है। जो ऐड़ी के सामने पड़ जाते हैं वे उसका भयावह रूप देख या तो डर से मर जाते हैं या उसकी आंखों से निकल रही रोशनी से जल जाते हैं या उसके कुत्तों द्वारा टुकड़े-टुकड़े कर दिये जाते हैं अथवा ऐड़ी की संगिनी परियां उसका कलेजा निकाल कर खा जाती हैं। लेकिन अगर कोई ऐड़ी को देखने के बावजूद जिन्दा बच जाय तो भगवान उसे दबे खजाने तक पहुंचने का रास्ता बता देते हैं। इस तरह का खजाना अलग-अलग मूल्य का होता है- उसमें सोने की मुहरों से लेकर पुरानी हड्डियों तक, कुछ भी हो सकता है। ऐड़ी के मंदिर पहाड़ी चोटियों पर एकांत में होते हैं, ये आबादी वाले स्थानों पर नहीं होते। इन मंदिरों के मध्य में एक त्रिशूल, जो स्वयं ऐड़ी का प्रतीक है, कुछ पत्थरों से घिरा होता है जो साऊ, भाऊ और परियां इत्यादि हैं। कुछ मामलों में ऐड़ी और उसके अनुयायी पत्थर पर उत्कीर्ण मूर्ति के रूप में भी होते हैं। ग्रामीण, चैत्र-शुक्ल-पक्ष में उसकी पूजा करते हैं। इस काम के लिए पैसे सभी लोग मिलकर जमा करते हैं। एक अलाव जलाया जाता है जिसके चारों तरफ लोग बैठ जाते हैं। एक ढोल बजाया जाता है। घेरे में बैठे व्यक्तियों पर एक के बाद एक पर ऐड़ी या साऊ या भाऊ आता है, वे उछाल मारते और शोर मचाते हुए आग के चारों तरफ घूमते हैं। कुछ तो लोहे की करछी गरम कर स्वयं को दागते हैं और कोई अलाव की लपटों के बीच ही बैठ जाते हैं। ऐसा करते समय जो जलते नहीं हैं उनके बारे में माना जाता है कि उन पर वास्तव में ऐड़ी या उसका अनुयायी आया था लेकिन जो जल जाते है उन्हें दैवी शक्ति का नकली प्रदर्शन करने वाला माना जाता है। यह रौनक-मेला करीब दस रात तक चलता है और जब तक यह चलता है, देवता के मंदिर में एक दीया जलाये रखा होता है। जिन पर ऐड़ी आता है उसे ऐड़ी का घोड़ा या ऐड़ी का दास (डुंगरिया) कहा जाता है और जब तक यह समारोह चलता है, ऐसे व्यक्ति को दान या भिक्षा दी जाती है। वे एक गज कपड़ा गेरू से रंग कर सिर पर बांध लेते हैं और एक थैली भी साथ रखते हैं जिसमें वे भिक्षा में प्राप्त सामग्री रखते हैं। उन दिनों वे चौबीस घंटों में दो बार नहाते और एक बार खाते हैं। वे किसी को भी स्वयं को स्पर्श नहीं करने देते क्योंकि वे अन्य को अस्वच्छ मानते है। कम से कम जब तक समारोह चलता है उनके अलावा कोई अन्य ऐड़ी का त्रिशूल या उस मंदिर में रखे पत्थरों को नहीं छू सकता। समारोह के दौरान मंदिर में दूध, मिष्ठान, रोटी, नारियल और अन्य खाद्य सामग्री भेंट की जाती है। कभी-कभी मेमने की बलि दी जाती है और खून में सने लाल कपड़े का टुकड़ा मंदिर के निकट टांक दिया जाता है। ये गरीब लोग भगवान को चढ़ाई इतनी अच्छी चीजें मंदिर में सड़ने के लिए छोड़ देते हैं, ऐसा न समझा जाय। भक्तों की भीड़ बलि दी गई भेंट के टुकड़े कर चाव से खा जाती है, मंदिर में रखी पत्थर की मूर्तियों पर पानी छिड़का जाता है और निम्नलिखित प्रार्थना की जाती है:- "परमेश्वर खुश हो जा. मेरी भूलचूक क्षमा कर और ये मेमना तेरी भेंट है. इसे स्वीकार कर, मैं नासमझ हूं और तू अन्तर्यामी है।" जब यह प्रार्थना की जा रही होती है उस समय बलि के लिए लाए गए मेमने के कान में ये मंत्र बुदबुदाते हैं:-

"अश्वम् नैवः गजम् नैव, सिंहम् नैव च नैव चः अजा पुत्रो बलिम्द्यात देवो दुर्बल घातक।" अर्थात - तू न तो घोड़ा है, न हाथी और न शेर; तू केवल बकरे का बेटा है और मैं तेरी बलि दे रहा हूं, इस प्रकार भगवान भी कमजोर को ही नष्ट करता है। 

मेमने के माथे पर एक लाल निशान (पिठाई) लगाया जाता है, माला पहनाई जाती है, सिर पर चावल (अक्षत) बिखेरा जाता है और अंत में उस पर कुछ पानी छिड़का जाता। इस सबसे छुटकारा पाने, यानी, चावल आदि को अपने बदन से झटकने के लिए मेमना स्वयं को हिलाता है तो उसके ऐसा करने को यह माना जाता है कि भगवान ने उसकी बलि लेनी स्वीकार कर ली है; तब खुखरी के एक ही वार से उसका सिर, धड़ से अलग कर दिया जाता है। लेकिन अगर चावल, पानी आदि पड़ने पर भी वह हिलता नहीं है तो यह माना जाता है कि उसकी बलि भगवान को मंजूर नहीं है और वह मेमना बच जाता है। बलि देने के बाद मेमने की पूंछ काट कर, पूंछ को मंदिर में त्रिशूल या मूर्तियों के बगल पर रख दिया जाता है। उसका सिर पुजारी को दे दिया जाता है और पीछे का फट्ट उसे, जो मेमने को मारता है या कुछ मामलों में गांव के पधान को। शेष मांस काट कर वहां उपस्थित दर्शकों में बांट दिया जाता है। किसी भी तरह से अंग-भंग या अशक्त मेमने की बलि नहीं दी जाती। ऐड़ी या चुल्लेख के मंदिर सालम पट्टी में एड़द्योडांडा पर और कंडरा के ऊपर है जहां शिव-रात्रि व असोज के नवरात्रों में समारोह होते हैं। इसे पर्वतीय क्षेत्र में शिव की स्थानीय संकल्पना भी माना जा सकता है।



कलविष्ट- कलबिष्ट या कलुवा, बिनसर के पास क्वत्यूर गांव का गोपालक या चरवाहा था, यह बात करीब दो सौ साल पुरानी है। कलबिष्ट, काम तो चरवाहे का करता था लेकिन था खाता-पीता राजपूत। उसके कई शत्रु भी थे, उन्होंने कलुवा के साले हिम्मत को फुसलाया कि वह कलुवा की भैंस के खुर में कील गाड़ दे ताकि ज्यों ही कलुवा उस कील को निकालने का प्रयास कर रहा होगा, उसे मारा जा सके। लेकिन कलुवा को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जा सका। अगली बार हिम्मत ने कल पर पीछे से कुल्हाड़ी से हमला किया और गर्दन पर इतना गहरा घाव कर दिया कि वह मर गया। लेकिन मरने से पहले वह, धोखेबाज हिम्मत के दो-फाड़ कर गया। मृत्यु के बाद कल, हितैषी आत्मा बन गया और उसके सम्मान में केफल-खाण में, जहां उसकी हत्या हुई थी, और अन्यत्र उसके मंदिर बनाए गए हैं। अपने नये स्वरूप में उसने केवल उन्हीं लोगों को नुकसान पहुंचाया जिन्होंने उसकी हत्या कराई थी। केफल-खाण क्षेत्र में जंगली पशुओं से रक्षा के लिए उसके नाम का स्मरण किया जाता है और अगर किसी को कोई तंग करता है तो पीड़ित व्यक्ति पीड़क के खिलाफ न्याय मांगने उसके मंदिर में जाता है। पीड़क को जब बीमारी घेरती है या फसल अथवा पशुओं का नुकसान हो जाता है तो वह कलबिष्ट के सम्मान में मंदिर बना कर उसे तुष्ट करने का प्रयास करता है। इससे पड़ोस की पट्टियों में कलबिष्ट की पूजा की परम्परा फैल गई है।


चौमू- चौमू भी मवेशियों का अधिष्ठाता या संरक्षक देवता है। उसका मंदिर यूंणी और द्वारसों के बीच की सीमा पर है। इसके जन्म के बारे में किस्सा है कि पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य में कोई रणवीर सिंह राणा चम्पावत से रानीखेत के पास स्थित अपने घर एक स्फटिक लिंग लेकर आ रहा था। यह पत्थर उसकी पगड़ी में बंधा था। द्यारीघाट के पास पानी के चश्मे या तालाब में उसे पानी मिला तो उसने अपनी पगड़ी व उसमें लिपटा सामान सम्मानपूर्वक पास ही जमीन पर रख दिया। जब वह फिर चलने को हुआ और उसने यह सामान फिर उठाना चाहा तो वह उठा नहीं सका और कई प्रयत्न करने के बाद भी जब वह उसे उठाने में कामयाब नहीं हो पाया तो वह घर लौट आया और उसने अपने मित्रों को घटना के बारे में बताया। उसके दोस्त उस स्थान पर गए और बड़ी कोशिश के बाद वे उस पगड़ी और लिंग को उठा पाए। उन्होंने लिंग को यूणी में बांज के एक पेड़ के तने की खोखल में डाल दिया और फिर एक मंदिर बना कर उसमें स्थापित कर दिया। लेकिन वह पत्थर मंदिर में खुश नहीं था इसलिए वह रात को छलांग मार कर काफी ऊपर पहाड़ी पर खड़े एक अन्य पेड़ के तने में घुस गया। अब यह पेड़ स्यूंणी और द्वारसों की सीमा पर खूब फैल गया है। इस प्रकार द्वारसों और रयूंणी के लोगों ने मिलकर दोनों गांवों की सीमा पर एक मंदिर बना दिया। इस मंदिर में स्फटिक लिंग रख दिया गया और इस पत्थर को जो भेंट चढ़ती है, यूंणी और द्वारासों के लोगों के बीच बंट जाती है। अल्मोड़ा के राजा रतनचंद ने इस पत्थर की महिमा सुनी तो वह इसकी यात्रा पर निकल पड़ा लेकिन रास्ते में उसे बताया गया कि यह समय यात्रा के लिए अशुभ है इसलिए राजा अपने गंतव्य तक पहुंचे बिना वापस लौट गया। तब चौमू उसके सपनों में आया और कहने लगा "मैं राजा हं और अब तुम राजा नहीं रहे, अब बताओ तुम मेरा क्या सम्मान कर सकते हो?" चौम के मंदिर में एक सौ से ज्यादा घंटियां और सत्तर-अस्सी दीये रखे हैं, असोज और चैत्र के शुक्ल पक्ष के शुरू के नौ दिनों में वहां समारोह होता है. लिंग पर दूध छिड़का जाता है, बकरे मारे जाते हैं और उनके सिर रयूंणी व द्वारसों गांवों के बीच बांटे जाते हैं। यह लिंग कभी चमत्कारी शक्तियों के लिए जाना जाता था लेकिन अब शक्तियां कुछ कम हो गई हैं। फिर भी लोग अब भी उसकी कसमें खाते हैं। उस लिंग के चमत्कारों में से कुछ इस प्रकार हैं:- जिन लोगों के मवेशी खो गए थे उन्होंने लिंग के आगे फरियाद की और बलि देने का संकल्प लिया तो उनके मवेशी मिल गए। जिन लोगों की गाय-भैंस गाभिन हो और उन्होंने संकल्प लिया हो कि मवेशी के सुरक्षित प्रसव पर लिंग को बलि दी जायेगी तो उनकी फरियाद कामयाब रही और बछड़ा या बछिया स्वस्थ पैदा हुए। जिन्होंने मूर्ति को खराब दूध चढ़ाया उनके मवेशी खो गए और जिन्होंने कुछ भी भेंट नहीं चढ़ाई या जिन्होंने लिंग-पूजा की उपेक्षा की उन्होंने पाया कि उनके दूध का दही ही नहीं जम रहा है। गाय के प्रसव के दस दिन तक का दूध चौमू को नहीं चढ़ाया जा सकता और न ही शाम के वक्त दुहा गया दूध ही चढ़ सकता है, जिन्होंने ऐसा दूध चढ़ाया उनकी गाय खो गई। जो लोग अपनी गायों को मंदिर से दूर नीचे भाबर ले जाते हैं, उन्हें उन गायों को बांधने के खूंटों को उसी तरह पूजना होता है जैसे वे खूंटे न होकर स्वयं लिंग हों। जिन्होंने इन खूंटों की अवहेलना की उन्होंने उसी तरह नुकसान उठाया जिस तरह चौमू के लिंग की उपेक्षा करने वाले उठाते हैं। जो आदमी द्वारसों या यूंणी में आकर गाय खरीदता है उसे अपने गांव में भी चौमू-लिंग-पूजा की परम्परा जारी रखनी पड़ती है और यह परम्परा तब तक कायम रखनी पड़ती है जब तक वह गाय या उसकी कोई अनुवर्ती वंशज गाय जिन्दा रहती है। ऐसा लगता है कि हर गाय किसी न किसी देवता को समर्पित है। लेकिन चौमू को समर्पित गाय का शाम के वक्त दुहा गया दूध लोग नहीं पीते जबकि अन्य देवता को समर्पित गाय का सायंकाल में दुहा गया दूध भी लोग पीते हैं।

बधाण- चौमू की तरह बधाण भी मवेशियों का संरक्षक देवता है, वह किसी पर काबिज नहीं होता और अगर कोई उसकी पूजा नहीं भी करता है तो भी वह उसे अभिशप्त नहीं करता। गाय के ब्याने (प्रसव) के बाद ग्यारहवें दिन उसके लिंग को पानी से धोया जाता है और उसके बाद दूध से और तब उसके मंदिर में रोटी, चावल व दूध चढ़ाया जाता है, उसे पशु की बलि नहीं दी जाती।

हरु-  हरू एक हितैषी आत्मा है जिसकी कुमाउंनी ज्यादा पूजा करते हैं। प्राचीन समय में चम्पावत का राजा हरीश चन्द्र के नाम से जाना जाता था और उसकी पूजा की शुरुआत के बारे में निम्नलिखित किस्सा सुनाया जाता है- राजा बूढ़ा हो गया तो उसकी शेष जीवन को देवता की भक्ति में लगाने की इच्छा हुई। वह हरिद्वार गया और वहां एक सन्यासी का चेला बन गया तथा धार्मिक जीवन बिताने लगा। स्थानीय किंवदंतियों के अनुसार हरिद्वार में 'हर की पैड़ी' नाम का पवित्र घाट उसी ने बनवाया था। हरिद्वार से वह चार-धाम की यात्रा पर निकला और उत्तर में बदरीनाथ, पूर्व में जगन्नाथ, दक्षिण में रामनाथ और पश्चिम में द्वारिकानाथ की यात्रा की। चम्पावत लौट कर उसने अपने धर्मिक कार्य जारी रखे, लोगों को अध्यात्म के रहस्य समझाये और एक बिरादरी की स्थापना की। उसका भाई लाटू और उसके नौकर स्यूरा, प्यूरा, स्द कठायत, खोलिया, भेलिया, मंगलिया और उज्यालिया भी इस बिरादरी में शामिल हो गए। संयम या सैम भी इस का सदस्य और 'बडू' था। राजा इस समुदाय का प्रमुख बना और घोर तपस्या के कारण वह उस स्थान से अन्यत्र नहीं चल सकता था जहां वह देवता के ध्यान में बैठा था। तपस्या से उसके पास ऐसी शक्ति आ गई कि वह जो चाहता, वह हो जाता; बंजर आबाद हो गए, गरीब धनवान हो गए, जो दयनीय था वह खुशहाल हो गया, अंधे को आंख मिली, लंगड़ा चलने लगा तथा दुर्जन सज्जन बन गए। जब हरीश चन्द्र और उसके साथी मर गए तो वे अच्छी आत्माएं बने और उनकी पूजा से वही फल प्राप्त हुए जो उनके जीते जी उनसे मांगने से होते थे। उनके प्रति भक्ति-भाव रखने वाले को खूब सुख-समृद्धि मिली। यह कहा जाता है कि जहां हरू और उसके साथियों की कृपा होती है वहां के लोगों पर कोई विपत्ति नहीं पड़ती। इसलिए यह कहावत हैः-

"औना हरू हरपत, जौना हरू खड़पट"

यानी "हरू के साथ समृद्धि आती है और उसके जाते ही विपत्ति आ जाती है।" कत्यूर में थान में हरू का एक प्रसिद्ध मंदिर है जिसमें हर तीसरे वर्ष मेला लगता है। वाल्दिया में बड़वै में लाटू की पूजा होती है और महर के भटकोट क्षेत्र में भेलिया को पूजा जाता है।

कत्यूरी राजा- कत्यूर में तैलीहाट में एक स्थान है इन्द्र चबूतरा, जिसमें तीन चबूतरे हैं। इनमें से एक पर सिलंग का पेड़ उगा है, दूसरे पर एक मूर्ति गोरिल की और अन्य मूर्तियां कत्यूरी राजाओं की हैं जिनके सम्मान में हर तीसरे साल मेला जुटता है। राजा धामद्यो का सालम में कंडा में एक मंदिर है और परगना पाली में राजा ब्रह्म व राजा धाम के अनेक मंदिर हैं। कत्यूर के अन्तिम स्वतंत्र राजा थे, उनके पिता उनके बचपन में ही मर गए थे और उनकी मां जिया उनको उनकी हैसियत के लिए जरूरी कर्तव्यों की जानकारी देने में चूक गई जिससे बड़े होकर ये दोनों क्रूर, आततायी और चरित्रहीन निकले। प्रजा द्वारा घृणा की दृष्टि से देखे जाने वाले ये दोनों राजकुमार विक्रमचंद के आसान शिकार साबित हुए जिसने कत्यूर को रौंद कर कत्यूर और पाली को चंद राज्य में मिला दिया। एक बड़ा युद्ध हुआ जिसमें धाम व ब्रह्म दोनों भाई और उनके पुत्र हरी, भरी, सूर, संग्रामी, पूर और प्रतापी अपने नौकर भीम कठायत, खेकदास और उज्यलिया के साथ मारे गए और उनके शव पश्चिमी-रामगंगा में फेंक दिये गए। ये सभी भूत बन गए और खास तौर पर पाली में कत्यूर में पूजे जाते हैं। हरू चूंकि चंद भूत है इसलिए वह ऐसे किसी स्थान में नहीं घुसता जहां कत्यूरी हैं और कत्यूरी-भूत ऐसे किसी स्थान में नहीं जाते जहां पहले ही हरू काबिज रहता है।

रूणिया- कुमाऊं के उत्तरी परगनों में एक बुरी आत्मा है रूणिया जो बड़े-बड़े पत्थरों वाले ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए गांव-गांव जाता है। खास तौर पर रात के समय इसके घोड़े शोर मचाते हुए गुजरते हैं, यह सिर्फ औरतों पर हमला करता है और अगर किसी महिला पर इसकी नजर पड़ जाय तो वह धीरे-धीरे क्षीण और कमजोर होकर अन्ततः अपने इस घृणित प्रेमी के पास उसकी भुतही दुनिया में पहुंच जाती है। इन उत्तरी परगनों में पूजी जाने वाली अन्य आत्माएं हैं बालचन, जिसका जुहार में दोर में मंदिर है, कालचंभौसी जिसका दानपुर में तोली में मंदिर है और दानपुर व पोथिंग के लोगों द्वारा बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, नौलो जिसके मंदिर अस्कोट में जड़कंदार में, महर के भटकोट क्षेत्र में हैं। कालसेंण का मंदिर जुहार में मदकोट में, दानपुर में कपकोट में, महर में राई और अस्कोट में जड़कंदार में हैं। छुड्मल का मंदिर कत्यूर में तैलीहाट और थान में; जुहार में दोर में और अस्कोट में जड़कंदार में है। हरी का मंदिर जुहार में मेनसैण में; हश्कर या हुविष्क का मंदिर अस्कोट में जड़कंदार और धारचुला में तथा कोकरसी का मंदिर जौन्सार के खत दसन में खबेला में है। निचली पट्टियों में भी जिन मंदिरों की पहले चर्चा की जा चुकी है उनके अलावा नागधन का मंदिर है जो सालम में सौड़फटका में; छरौंज द्यो, उसी पट्टी में छरौंज में; विद्यानाथ-सिद्ध छखाता परगने में चनोटी में है। सिद्ध पांडव और परियों की पूजा भी इसी तरह गढ़वाल और जौन्सार के सलगोड़ क्षेत्र में होती है। कहीं-कहीं पहाड़ियों और ऊंची चोटियों की पूजा भी देखने को मिलती है। ऐसा ही स्थान छिपुला-धूरा है जहां छिपुला पहाड़ के पास छिपुला मंदिर पहाड़ों के देवता को समर्पित है। पहाड़ पर ही नौ या दस कुंड हैं जिनमें अनन्त चतुर्दशी को एक बड़े मेले के अवसर पर अस्कोट के लोग स्नान करते हैं। नीती घाटी में तोल्मा में एक मंदिर पूरे हिमालय को ही समर्पित है और दूनागिरि के नीचे उसी घाटी में एक मंदिर दूनागिरि का ही है। पहाड़ियों पर या वहां के चौराहों पर जब-तब पत्थर और लकड़ी के ढेर 'कठपटिया' दिखाई देते हैं, ये उस तरफ से यात्रा कर रहे लोगों द्वारा दी गई भेंट के फलस्वरूप लगे ढेर हैं। यह परम्परा न्यायकर्ता याज्ञवल्क्य द्वारा शुरू की गई बताई जाती है और जब कभी इस ढेर पर कोई पत्थर चढ़ाता है तो निम्न मंत्र कहा जाता है:-

"साकल्य स्थापिता देवी, याज्ञवल्क्य पूजिता; काष्ठ पाषाण भक्षन्ति, मम रक्षान करोतुमे।"

"देवी, जिसका यह पहाड़ घर है, याज्ञवल्क्य ने जिसकी पूजा की, जो लकड़ी व पत्थर का भक्षण करती है, वह मेरी रक्षा करे।"

जब कोई व्यक्ति अपने रिश्तेदार की अंत्येष्टि कर लौटता है तो श्मशान घाट से लौटते समय वह मृतक के कफन का एक टुकड़ा घाट के निकट पेड़ पर टांक देता है, ताकि यह कपड़ा उस आत्मा के काम आ सके क्योंकि उस आत्मा को फिर उस घाट पर आते रहना है। मृतक की आत्मा किसी तरह की परेशानी लेकर न आए इसे सुनिश्चित करने का एक और तरीका यह है कि शव यात्रा में शामिल एक व्यक्ति श्मशान से लौटने के रास्ते में, जहां कोई अन्य रास्ता उसे काटता हो, कंटीली झाड़ी रख देता है तथा मृतक का निकटतम सम्बन्धी इस झाड़ी के ऊपर एक पत्थर रखता है और पांवों से उसे दबा कर मृतक की आत्मा से प्रार्थना करता है कि अब उन्हें भविष्य में तंग न करे। ज्यादा कष्टदायी जल-आत्माएं या गाड़-देवी (गाड़ अर्थात नदी) होती हैं क्योंकि वे उन लोगों की आत्माएं हैं जो आत्महत्या, हिंसा या दुर्घटना के कारण मरे हैं। ये आत्माएं चाहे उनकी मृत्यु कहीं भी हुई हो मृत्यु-स्थल के आस-पास मंडराती रहती हैं और वहां से गुजरने वालों को आतंकित करती हैं। कभी-कभी तो वे राहगीर के पीछे-पीछे उसके घर तक चली जाती हैं और उसके घर पर काबिज हो जाती हैं, नौजवान अविवाहित की मृत्यु पर उसकी आत्मा को टोला कहते हैं। ये आत्माएं एकाकी और वीरान इलाकों में मिलती है। भूत, भूतनी आंछरी आदि नामों से जानी जाने वाली ये आत्माएं कभी कष्टदायी होती हैं और कभी हितैषी भी। आंछरी विशेष रूप से उनका भला करती हैं जो लाल कपड़े पहनते हैं और सिन्दूरी रंग का धागा गले में पहनने से, यह माना जाता है कि, सर्दी-जुखाम और घेघा रोग से बचाव होता है। ट्रेल लिखता है:- "दृष्टि-भ्रम यानी पहाड़ी क्षेत्रों में दिखने वाली छाया इस प्रांतर के कुछ पहाड़ों में भी दिखाई देती है और जहां ये दिखाई देती हैं उनके बारे में कहा जाता है कि यहां आंछरी रहती हैं। इन पहाड़ों की चोटियों पर कभी-कभी दृष्टिभ्रम करती छायाएं, हाथी, घोड़े आदि होने का आभास देती हैं तो स्वाभाविक रूप से उन्हें आछरियों से सम्बन्धित बताया जाता है। श्रीनगर के सामने एक पहाड़ी इस मामले में मशहूर है। उस पहाड़ी की धार पर छायाओं की एक शृंखला कई बार आगे बढ़ती दिखाई देती है और यह दृश्य कुछ मिनट तक जारी रहता है जिसे श्रीनगर कस्बे के लोगों ने देखा है। यह निश्चित है कि ये छायाएं भौतिक कारणों की देन हैं और लोगों की कल्पना से नहीं उपजी हैं। इस तरह के दृष्टि-भ्रम का जो स्पष्टीकरण अन्यत्र दिया जाता है वह विशेषतः यहां लागू होता है क्योंकि ये छाया यहां ठीक उस वक्त दिखाई देती हैं जब सूरज डूब रहा होता है।" जौनसार बावर में डाकिनी का, जो तिब्बत की खहडोमा की तरह है, जंगल में रहने वाले बुरे देवताओं में प्रमुख स्थान है।


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