उत्तराखण्ड के राजनीतिक मंच पर रानियों की भूमिका
1. रानी श्रृंगारमंजरी- उत्तराखण्ड के मध्यकालीन राजनीतिक रंगमंच पर दृष्टिपात करने पर जहां एक ओर गढ़राज्य में अनेक रानियों की सक्रिय भूमिका के उदाहरण मिलते हैं वहां कूर्माचल राज्य में उनकी भूमिका नगण्य रही है। चन्दों के 7-8 वर्षों के इतिहास में राजा दीपचन्द (1748-1777 ई.) की रानी श्रृंगारमंजरी को छोड़कर अन्य किसी का नामोल्लेख तक नहीं मिलता। कोई नहीं जानता कि चन्दवंश के शक्तिशाली गिने जाने वाले शासकों रुद्रचन्द, बाजबहादुरचन्द आदि नरेशों की रानियों का नाम क्या था? यहां की राजनीति तथा प्रशासन में हस्तक्षेप करने वाली अपवादात्मक रानी श्रृंगारमंजरी के विषय में कहा जाता है कि राजा दीपचन्द के जीवनकाल में ही उसकी अनाम पटरानी की मृत्यु हो जाने तथा इधर राज्य के कर्णधार शिवदेव जोशी के मारे जाने पर महत्वाकांक्षी रानी श्रृंगारमंजरी ने प्रशासन पर अपनी पकड़ बनाने के लिए स्वयं को चन्द शासन की वजीर तथा बख्शी घोषित कर दिया तथा अपने नवजात पुत्र क नाम पर शासनादेश जारी करने प्रारंभ कर दिये। वह राज्य की देखभाल के लिए शिवदेव जोशी द्वारा पहले से नियुक्त उसके पुत्र जयकृष्ण जोशी के कामकाज में भी हस्तक्षेप करने लगी थी। इतना ही नहीं अपने पिता की सनद पर कार्यरत शिवदेव के अन्य पुत्र हर्षदेव जोशी की भी उपेक्षा करने लगी। उसने राजा दीपचन्द पर अपना ऐसा प्रभुत्व जमाया हुआ था कि वह उसके आदेशों के विरुद्ध कुछ भी नहीं बोल सकता था। जोशी बन्धुओं के द्वारा उसकी आज्ञाओं की अवहेलना किये जाने पर उसने बख्शी का पद चन्दवंशी कुंवर मोहनसिंह को देकर उसे प्रशासनिक कार्यभार संभालने का आदेश दिया। मोहनसिंह ने कारण विशेष से उस समय यद्यपि इस पद को स्वीकार करने में अपनी असमर्थता प्रकट करके इसे टाल दिया, पर प्रशासन में अपनी पकड़ बनाये रखने का प्रयास करता रहा। इसके बाद उसने बिणीकोट के परमानन्द बिष्ट को, जिसे उसका उपपति भी बताया जाता है, दीवान के पद पर नियुक्त कर लिया।
रानी के द्वारा राज्य की सम्पूर्ण प्रभुसत्ता पर अपना अधिकार जमा लिए जाने के संबंध में अट्किंसन का कहना है कि 'रानी ने स्वयं को इतना शक्तिशाली बना लिया था कि उसने बरेली-रामपुर के नवाब रहमत खाँ रोहेला को लिखा कि वह जयकृष्ण जोशी को बख्शी के पद से हटा दे। इस संदर्भ में यह भी कहा जाता है कि रहमत खाँ ने अपने एक चहेते अधिकारी जोधसिंह कठेड़ी, जिसके लड़के की सगाई दीपचन्द की लली (राज कुंवरि) के साथ हुई थी, के कहने पर जयकृष्ण जोशी को लिखा कि वह रानी की आज्ञा का पालन किया करे। इस पर जयकृष्ण नाराज होकर अपने पद से त्याग-पत्र देकर अल्मोड़ा छोड़ कर चला गया।'
कहा जाता है कि जयकृष्ण के द्वारा बख्शी के पद से त्याग-पत्र देकर चले जाने के बाद रानी ने बख्शी का पद कुंवर मोहनसिंह को तथा दीवान का पद राजा के अवैध भाई किसनसिंह को देकर अपने प्रेमी परमानन्द बिष्ट को यहां का लाट (वायसराय) नियुक्त कर दिया तथा कुंवर जोधसिंह को काशीपुर का शासक नियुक्त कर दिया ।
रानी के साथ उसके अवैध संबंधों के कारण मोहनसिंह परमानन्द बिष्ट से चिढ़ता था । अतः राज्य का सर्वोत्तम आधिकारिक पद प्राप्त करने के बाद उसने मोहनसिंह को निकलवा दिया। किन्तु यहां से पदच्युत करवा दिये जाने पर कुंवर मोहनसिंह ने बिसौली के नवाब दूदी खाँ की सहायता से रूहेलों तथा कुमय्यों की एक फौज एकत्र की और अल्मोड़ा आकर राजा दीपचन्द तथा रानी श्रृंगारमंजरी दोनों को कैद करके राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले ली। कहा जाता है कि रानी श्रृंगार मंजरी कुंवर मोहनसिंह की मां की निकट सम्बन्धिनी थी। अतः मोहनसिंह से राजा, रानी तथा राजकुंवरों की सुरक्षा का धर्मवचन प्राप्त करने पर उसने सारे शासन की बागडोर उसके हाथों में सौंप दी। इस पर कुंवर मोहनसिंह ने अपने को इतना शक्तिशाली बना लिया कि एक दिन उसने अपने शत्रु तथा रानी के प्रेमी परमानन्द बिष्ट की भी हत्या करवा दी। इसके बाद मोहनसिंह ने एक दिन रनिवास में जाकर षडयंत्र के संदेह में रानी श्रृंगारमंजरी के बालों के उसी जूड़े को पकड़ कर उसे दो मंजिलें से नीचे चौक में पटक कर मार डाला, जिस जूड़े का स्पर्श करके उसने एक दिन उसे रक्षा का धर्मवचन दिया था। इस प्रकार अन्त हो गया उस महत्वाकांक्षी रानी का।
किन्तु इसके विपरीत जब हम गढ़राज्य के मध्यकालीन राजनीतिक पटल पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें वहां पर राज्य प्रशासन में सक्रिय भूमिका निभाने वाली अनेक रानियों के दर्शन होते हैं। इनमें से कतिपय की स्थिति इन रूपों में पायी जाती हैं।
2. रानी कर्णावती : राजा महीपतिसाह (सन् 1625-31-35) की रानी कर्णादती गढ़वाल की उन वीरांगना प्रशासन-कुशल रानियों में से एक थी जो अपनी वीरता तथा सुदृढ़ प्रशासन के लिए 'नाककाटी' (नाक काटने वाली) रानी के नाम से अधिक प्रसिद्ध रही है। राजा महीपतिसाह के द्वारा कुमाऊं के विरुद्ध स्वयं घोषित युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो जाने के बाद उसकी रानी कर्णावती ने अपने 10-11 वर्ष के अवयस्क पुत्र पृथ्वीपतिसाह की संरक्षिका बनकर राज्य का सारा कार्य भार स्वयं संभाल लिया तथा एक कुशल प्रशासिका के रूप में 5 वर्ष (सन् 1631 से 1635) तक उसे निभाया तथा एक वीरांगना के रूप में बाह्याक्रमणों से राज्य की सुरक्षा भी की। क्योंकि वह एक कुशल प्रशासिका के अतिरिक्त वीर, साहसी तथा बड़ी सूझबूझ वाली रानी थी।
राजा महीपतिसाह के विषय में जैसा कि प्रसिद्ध है कि वह बड़ा स्वात्माभिमानी एवं अक्खड़ था । उसने न कभी दिल्ली दरबार की अधीनता स्वीकार की और न किसी मुगल बादशाह या शाहजादे को सलाम किया। यहां तक कि वह आमंत्रित किया जाने पर भी सन् 1626 ई. में समायोजित तत्कालीन बादशाह शाहजहां के तिलकोत्सव में भी नहीं गया। उसके इस व्यवहार से स्वयं को अपमानित समझते हुए शाहजहां गढ़राज्य को सबक सिखाना चाहता था, किन्तु महीपतिसाह के रहते उसे गढ़राज्य को दण्डित करने का साहस नहीं हो पा रहा था। वह समय की प्रतीक्षा में था ही कि 1631 ई. में राजा महीपतिसाह की मृत्यु हो गयी। उधर राजा की मृत्यु हो गयी और इधर उसके पुत्र की बाल्यावस्था के कारण राज्य का कार्यभार उसकी माता ने संभाला। इसे अपने अपमान के प्रतिशोध का अच्छा अवसर समझ कर उसने योजनाबद्ध रूप से कांगड़ा के फौजदार नजावत खाँ के नेतृत्व में सिरमौर के राजा मान्धाता की सेना के साथ एक विशाल सेना को लेकर गढ़विजय के लिए प्रस्थान कर दिया। अपने अभियान के प्रथम चरण में दून पाटी की कई गढ़ियों पर अधिकार कर लेने के बाद वह अपनी विशाल वाहिनी के साथ ऋषीकेश के पास गंगा पार करके उसके किनारे-किनारे श्रीनगर की ओर अग्रसर होता रहा। मुगल वाहिनी के द्वारा आयोजित इस आक्रमण के समाचार को पाकर रानी ने साहस के साथ उसका सामना करने के लिए अपने नेतृत्व में गढ़वाली सेना को तैयार किया और उनके आने की प्रतीक्षा करने लगी। पर साथ ही उसने कूटनीति के स्तर पर भी उसका समाना करने की योजना बनायी। अतः जब नजावत खाँ की फौज अभी श्रीनगर से 30 कोस की दूरी पर ही थी तो रानी ने उसके पास अपना दूत भेजकर कहलवाया कि वह बादशाह की अधीनता स्वीकार करने को तैयार है तथा इस की पुष्टिके लिए वह उसे दस लाख रुपया भेंट भी देना चाहती है, किन्तु अभी उसके पास इतना रुपया न होने से वह इसके लिए कुछ हफ्तों की मुहलत चाहती है। नजावत खाँ रानी के इस झांसे में आ गया। उसे आश्वस्त करने के लिए उसने तत्काल एक लाख रुपया भी उसके पास भिजवा दिया। रानी की बातों पर विश्वास करके नजावत खाँ शेष धनराशि को प्राप्त करने की प्रतीक्षा करने लगा। इस बीच एक ओर तो रानी कई प्रकार के बहाने बनाकर नजावत खाँ से प्रतीक्षा कराती रही तथा दूसरी ओर गढ़वाल की सेनाओं को आदेश देकर गुप्त रूप से उन सभी मार्गों की नाकेबन्दी करवा दी जिनसे कि मुगल सेना को रसद की आपूर्ति हो सकती थी। इस प्रकार गढ़वाली सेना के द्वारा रसद की आपूर्ति के सारे मार्ग बंद कर दिये जाने तथा पूर्व संचित रसद के समाप्त हो जाने से नजावत खाँ के सैनिक व घोड़े भूखे मरने लगे तथा गढ़वाली सैनिकों ने उन्हें लूटना भी प्रारंभ कर दिया। किन्तु अब जब उसे रानी की कूटनीतिक चाल का पता लगा तो समय उसके हाथ से निकल चुका था। इस प्रकार रानी के कूटनीतिक जाल में फंसे मुगल सेनापति ने अन्यथा बचने की कोई आशा न देखकर वहां से भाग निकलने में ही अपनी जान की खैर समझी और वह गढ़वाली सेना की आंख बचाकर बीहड़ जंगलों से होता हुआ भूखा-प्यासा, थका-मांदा उल्टे पैर दिल्ली पहुंचा। इस प्रकार 'नाककाटी' रानी के हाथों अपनी मांस की नाक को तो वह कटवाने से बचाने में कामयाब हो गया पर अपने मान की नाक को कटवाने से न बच सका। इस संदर्भ में कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि रानी ने वास्तव में सैकड़ो मुस्लिम सैनिकों को पकड़वाकर उनकी न कें कटवा कर उन्हें अपनी इस शर्मनाक पराजय की कहानी सुनाने के लिए दिल्ली भेज दिया था इसमें चाहे सचाई हो या न हो पर यह तो एक ठोस तथ्य है कि रानी कर्णावती ने अपनी कूटनीति, साहस व सूझबूझ से मुगल सेना की नाक अवश्य ही काट डाली थी। इतना ही नहीं मुगल सेना की वापसी के बाद रानी ने दून घाटी की उन गढ़ियों पर भी पुनः अपना अधिकार कर लिया जिन पर कि पहले मुगल सैनिकों ने अधिकार कर लिया था।
गढ़राज्य की इस अप्रतिम वीरांगना के विषय में उत्तराखण्ड के मूर्धन्य खोजी इतिहासकार डा. डबराल (12:79) का कहन है, "राणी के समान वीरत्व, साहस, सूझबूझ और राजनीतिक कुशलता से सम्पन्न रानियां भारत में तथा विदेशों में भी बहुत कम हुई हैं। उसके जीवनकाल में ही उसमें अलौकिक शक्ति मानी जाने लगी थी। तंत्र-मंत्र, झाड़ा-ताड़ा और रखवालियों में आज भी माता कर्णावती की दुहाई दी जाती हैं।" उसके पुत्र पृथ्वीपतिसाह, जिसकी रगों में स्वाभिमानी माता-पिता का रक्त प्रवाहित हो रहा था, ने भी कभी मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की। सुलेमान शिकोह को उसकी रक्षा का वचन देकर विपत्ति तो मोल ले ली पर औरंगजेब की धमकियों के आगे झुका नहीं।
3. मेदिनीसाह (1660) को दो रानियां थीं। जिनमें से एक सिरमौरी (रतूड़ी के अनुसार कांगड़ी) तथा दूसरी गढ़वाली (बर्तवाली) थी। सन् 1668 ई. में राजा पृथ्वीपति शाह की मृत्यु के समय उसके पौत्र फतेहपति शाह की उम्र केवल 12 वर्ष की थी। अतः उसकी संरक्षिका के रूप बर्तवाली रानी ने सन् 1671-72 ई. तक राज्य का प्रशासन चलाया। अपने शासनकाल में दोनों ने ही प्रशासन पर अपनी पकड़ बनाये रखी तथा उसे पूरी निष्ठा व नियंत्रण के साथ चलाया ।
4. राणी कटरायण: इसी प्रकार अपने पति के अल्पकालिक शासन में प्रशासन पर अपनी पकड़ को मजबूत करने की महत्वाकांक्षी रानी थी उपेन्द्रसाह की रानी कटरायण जी जिसे कठेड़ (कहलूर ?) के राजा की बेटी कहा गया है। राजा फतेहसाह के उत्तराधिकारी (टीका) की पत्नी होने के कारण सम्भवतः फतेसाह के समय में भी उसका प्रभुत्व रहा ही होगा। उपेन्द्रसाह के गद्दी पर बैठने पर वह महाराणी बन गयी थी। अपने इस पद के सहारे राज्यशक्ति पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए उसने राज्य के प्रशासनिक पदों पर अपने मायके के लोगों को नियुक्त करवाना प्रारंभ कर दिया । कहा जाता है कि उपेन्द्रसाह के समय राज्य के वरिष्ठ पदों पर नियुक्त किये गये कठैत बन्धु उसके अपने ही बान्धव थे। उपेन्द्रसाह के कोई पुत्र न होने से वह उनके सहयोग से राज्य शक्ति पर अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहती थी। राजा की मृत्यु के बाद जब राणी के देवर के पुत्र प्रदीपसाह, जिसकी आयु केवल 5 वर्ष थी, को गद्दी पर बैठाया गया तो राणी की तथा कठैत बन्धुओं की इच्छा थी कि वह उसकी संरक्षिका बने ताकि प्रशासन में उसका ही प्रभुत्व बना रहे। उसके शासन के प्रारंभिक कुछ वर्षों तक कठैतों के प्रशास्न में वही राजकाज को संभाले रही। मौलाराम ने इसे 'राणीराज' कहा है, किन्तु राज्य के अन्य वरिष्ठ अधिकारी शंकर डोभाल, पुरिया नैथाणी, गजेसिंह भंडारी आदि इसके विरुद्ध थे। वे चाहते थे कि राजमाता कनकदेवी उसकी संरक्षिका बने । राजसत्ता की इस रस्साकसी में पंचभैया कठैत तो मारे ही गये, गजेसिंह भण्डारी तथा शंकर डोभाल को भी अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। पुरिया नैथाणी के प्रयास से राजमाता कनकदेवी अल्पवयस्क राजा प्रदीपसाह की संरक्षिका तो बन गयी, पर वह प्रशासन पर अपनी पकड़ नहीं बना सकी।
5. राजमाता गुलेरिया : टिहरी के राजा प्रतापशाह (1871-1886 ई.) की मृत्यु के समय टीका (राजकुमार) कीर्तिशाह (1886-1913 ई.) की आयु केवल 13 वर्ष की होने से उसकी मां, राजमाता गुलेरिया ने, शासन का कार्य स्वयं संभाल लिया। प्रशासन ने राणी की सहायता के लिए तीन व्यक्तियों की एक संरक्षण समिति नियुक्त की गयी। रानी ने कीर्तिसाह को उच्च शिक्षा के लिए भी हरिशरण रतूड़ी की संरक्षिता में बरेली कालेज में भिजवा दिया। रानी संरक्षण समिति के सहयोग से स्वयं सारा राज्य प्रबंध चलाने लगी। इसके शासन काल में टिहरी आने वाले संयुक्तप्रान्त के ले. गवर्नर कौलविन ने राजमाता के प्रशासन की बड़ी प्रशंसा की है। पुत्र के वयस्क हो जाने पर 17 मार्च 1892 को राजमाता गुलेरी पुत्र, कीर्तिसाह को राज्य प्रशासन का कार्यभार सौंपकर स्वयं अपने शेष जीवन परोपकार एवं ईश्वराराथना में बिताने के लिए अपने कार्यभार से मुक्त हो गयीं।
6. राणी खणेटी- राजा सुदर्शनसाह (1815-1851 ई.) के बड़ाहाट के विश्वनाथ मंदिर के जीणोद्धार से सम्बद्ध उत्कीर्ण प्रशस्ति में उनकी राणी खणेटी के विषय में कहा गया है कि "इनकी रानी खनेटी ने अपने पति के चरण कमलों की आराधना से अपनी अभिलाषाओं को प्राप्त किया। 'वामा' होने पर भी वह ज्ञानी और विद्वानों के द्वारा 'दक्षिणा' के रूप में प्रशंसित थीं। उसने अपनी शक्ति और भक्ति से संवत् 1914 में विश्वेश्वर महादेव के मंदिर का उद्धार किया।"
7. कमलेंदुमती शाह- राजमाता कमलेंदुमती शाह टिहरी गढ़वाल की वह प्रखर महिला थीं जिन्होंने राजशाही की सीमाओं से निकलकर स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में सक्रिय भागीदारी निभाई। वे न केवल टिहरी रियासत की रानी थीं, बल्कि एक विचारशील समाजसेवी और सशक्त सांसद भी रहीं। उनका जन्म 20 मार्च 1903 को हिमाचल प्रदेश के कहाँथल रियासत में हुआ था। 1916 में उनका विवाह टिहरी के राजा नरेंद्र शाह से हुआ और उन्होंने रानी के रूप में पारंपरिक भूमिका निभाने के साथ-साथ समाज सुधार और महिला सशक्तिकरण की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब भारत में पहला आम चुनाव हुआ, तब कमलेंदुमती शाह ने 1951-52 में गढ़वाल-बिजनौर क्षेत्र से बतौर स्वतंत्र उम्मीदवार लोकसभा चुनाव लड़ा और विजयी रहीं। यह उपलब्धि उन्हें उत्तर भारत की पहली शाही महिला सांसद बनाती है। वे महिलाओं, विधवाओं, वृद्धों और वंचित वर्गों के कल्याण के लिए विशेष रूप से सक्रिय रहीं। संसद में उन्होंने 'महिला एवं बाल संस्थाओं (लाइसेंसिंग) विधेयक – 1954' जैसे निजी बिल प्रस्तुत किए, जो उस दौर में एक साहसिक कदम था।
कमलेंदुमती शाह को हिंदी, अंग्रेज़ी और फ्रेंच भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। वे दर्शन, साहित्य और संगीत में भी रुचि रखती थीं। उन्होंने टिहरी और आसपास के क्षेत्रों में कई विद्यालय, धर्मशालाएँ, छात्रावास, और महिलाओं के लिए प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए।
उनके समर्पण और सेवा को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1958 में 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया।
15 जुलाई 1999 को मस्तिष्क कैंसर से उनका निधन हुआ, परंतु आज भी वे टिहरी की रानी नहीं, बल्कि एक जागरूक लोकनायिका के रूप में स्मरण की जाती हैं।
8. माला राज्य लक्ष्मी शाह- माला राज्य लक्ष्मी शाह उत्तराखंड की टिहरी रियासत की बहू और भारतीय जनता पार्टी की सक्रिय राजनेत्री हैं। उनका जन्म 23 अगस्त 1950 को नेपाल के शाही परिवार में हुआ। वे नेपाल के राजा त्रिभुवन की नातिन हैं और उनका विवाह टिहरी नरेश मनुजेन्द्र शाह से 1975 में हुआ। रॉयल विरासत से आने वाली माला राज्य लक्ष्मी ने राजनीति में प्रवेश कर लोकतंत्र में जनसेवा की नई परंपरा को आगे बढ़ाया।
उनकी राजनीतिक पारी की शुरुआत 2012 में हुई, जब टिहरी लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए और वे भाजपा प्रत्याशी के रूप में निर्वाचित हुईं। इसके बाद उन्होंने 2014 और 2019 के आम चुनावों में भी टिहरी से जीत दर्ज की और लोकसभा में क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। वे टिहरी की पहली महिला सांसद बनीं जिन्होंने तीन बार लगातार संसद में अपनी उपस्थिति दर्ज की।)
माला राज्य लक्ष्मी शाह संसद में महिला सशक्तिकरण, जल-जंगल-जमीन से जुड़े मुद्दों और उत्तराखंड के समग्र विकास की मुखर प्रवक्ता रही हैं। उन्होंने टिहरी बांध विस्थापन, चारधाम सड़क परियोजना, पर्यटन और शिक्षा क्षेत्र में केंद्र सरकार की योजनाओं को क्रियान्वित कराने में प्रमुख भूमिका निभाई। वे भाजपा के राज्य और केंद्रीय स्तर की समितियों में भी सक्रिय रही हैं।
उनका कार्यशैली संयमित, गरिमामयी और संवादशील रही है। टिहरी के पारंपरिक मतदाताओं में आज भी उनका सम्मान रानी साहिबा के रूप में है, लेकिन वे आधुनिक लोकतंत्र में एक कार्यकर्ता, नीति-निर्माता और जनसेविका के रूप में भी अपनी पहचान बना चुकी हैं।
उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि शाही पृष्ठभूमि होते हुए भी यदि संकल्प और संवेदनशीलता हो, तो व्यक्ति आम जनता की आवाज़ बन सकता है। माला राज्य लक्ष्मी शाह टिहरी की नई पीढ़ी की राजनीतिक प्रेरणा हैं।
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