धारचूला का इतिहास

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धारचूला के बारे में 

    धारचूला उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ जिले में स्थित एक छोटा सा शहर और एक नगर पंचायत है। मध्यकालीन काल से धारचूला ट्रांस-हिमालयी व्यापार मार्गों के लिए एक प्रमुख व्यापार का केंद्र था। समुद्र तल से 915 मीटर की ऊंचाई पर स्थित, धारचुला हिमालयी चोटियों से घिरा हुआ है। धारचुला के पश्चिम में स्थित बर्फबारी पंचचुली शिखर जौहर घाटी से अलग है। पहाड़ी स्टेशन का नाम ‘धार’ और ‘चुला’ से मिलता है; धार का मतलब है चोटी और चुला का मतलब अंग्रेजी में स्टोव है, यह नाम धारचुला को दिया गया था क्योंकि यह स्टोव जैसा दिखता है।



    यह काली नदी के किनारे घाटी में स्थित है। यह शहर एक पहाड़ी क्षेत्र है जिसका आकार स्‍टोव के जैसा दिखता है इसी कारण इस शहर को धारचूला कहते हैं। यह शहर पिथौरागढ़ से 90 किमी.की दूरी पर स्थित है जो पहाड़ों से घिरा हुआ है। अगर आप पर्यटन की दृष्टि से इस शहर को देखें तो मानस झील या मनासा सरोवर इस शहर का सबसे प्रमुख पर्यटक आकर्षण हैं। मानसरोवर एक ताजे और मीठे पानी की झील है जो चीन के तिब्‍बत स्‍वायत्‍त क्षेत्र में स्थित है।

धारचूला का इतिहास 

        धारचूला अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण एक प्राचीन व्यापारिक शहर था, जिसके एक तरफ नेपाल तथा दूसरी तरफ तिब्बत-चीन की सीमाएं हैं। पर्वतीय-पथ पार करने में दक्ष, मुख्य रूप से भोटिया व्यापारी धारचूला बाजार से ऊन, भेड़/बकरी, मशाले एवं तंबाकू खरीदकर तिब्बत में बिक्री करने ले जाते। ऊन व्यापार से संबंधित कई छोटे-मोटे उद्योगों के केंद्र भी इस समृद्ध नगर में थे। "जौलजीबी" जैसे व्यापार-मेले का आयोजन वाणिज्य को प्रोत्साहित करता था। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के कारण व्यापारिक गतिविधियों पर अकस्मात् विराम लग गया और उस कारण ही दोनों देशों के बीच व्यापार रूक गया। इस प्रकार वाणिज्यिक शहर के रूप में धारचूला का महत्व कम हो गया।

        सुदूर स्थित होने के कारण क्षेत्र के ऐतिहासिक घटनाओं में धारचूला की सक्रिय भागीदारी अवरुद्ध थी। फिर भी, इसका इतिहास कुमाऊं से जुड़ा है। भारत की आजादी से पहले शेष कुमाऊं के सामान्य भागों की तरह धारचूला पर भी कई रजवाड़ों का शासन रहा था। माना जाता है कि उस समय धारचूला किले पर एक स्थानीय राजा मंदीप का शासन था। छठी एवं 12वीं सदियों के बीच ही एक वंश शक्तिशाली बना और कत्यूरियों ने संपूर्ण कुमाऊं पर शासन किया। फिर भी उनका प्रभाव छोटे क्षेत्र तक ही सीमित रहा, जब वर्ष 1191 से 1223 के बीच, पश्चिमी नेपाल के मल्लाओं ने कुमाऊं पर आक्रमण किया। 12वीं सदी में चंदों का प्रभुत्व बढ़ा और उन्होंने वर्ष 1790 तक कुमाऊं पर शासन किया। 
    

 अस्कोट के रजबार का बगीचा था दयोल (देवल) गांव

    वर्तमान धारचूला में जिस जगह राजकीय इंटर काॅलेज स्थित है उसके आस-पास का स्थल बगीचा द्योलगांव के नाम से जाना जाता है, जोकि अस्कोट के रजबार का प्रशासनिक केन्द्र होने के साथ ही यहां उसका आम का बगीचा भी था। इसलिए इसे अब भी बगीचा के नाम से ही जाना जाता है। 1962 में खण्ड विकास कार्यालय वर्तमान स्थान पर स्थानांतरित हो गया जिससे द्योल बगीचा का महत्व कम होता चला गया। 

                    पौराणिक
    धारचूला को कैलाश-मानसरोवर यात्रा का प्रवेश द्वार माना जाता है तथा इस क्षेत्र को सदैव ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त क्षेत्र माना गया है। कई प्राचीन मुनियों ने इसे अपनी तपोस्थली, बनाया जिनमें व्यासमुनि सर्वाधिक विख्यात थे। वास्तव में, इस शहर का नाम भी मुनि की किंवदन्ती से ही जुड़ा हुआ है। धारचूला दो शब्दों से बना है "धार" या किनारा/पर्वत एवं चूला या चुल्हा या स्टोव। कहा जाता है कि जब व्यास मुनि अपना भोजन पकाते थे तो धारचूला के इर्द-गिर्द तीन पर्वतों के बीच अपना चुल्हा जलाते थे और इसीलिये यह नाम पड़ा।
कहा जाता है कि पांडव भी अपनी 14 वर्ष के वनवास की अवधि में यहां आये थे। 

सभ्यता
        धारचूला की संस्कृति मिश्रित है। यहाँ कुमाउँनी, नेपाली और भोटिया संस्कृति ने अपना सामंजस्य स्थापित किया हुआ है। भोटिया समुदाय का इस स्थल की अलौकिक संस्कृति में योगदान अद्वितीय रहा है। सदियों से धारचूला ने भक्तों, साधुओं एवं संतों की बड़ी संख्या की मेजवानी की है, जो कैलाश-मानसरोवर की यात्रा करते हुए यहां रूकते थे।

     धारचूला परंपरा से व्यापारिक शहर रहा है तथा जब तिब्बत के साथ व्यापार शिखर पर था शहर में बड़ी संख्या में हूण व्यापारी आते थे जो यहां अपना माल बेचने तथा आवश्यक सामग्रियों की खरीद कर तिब्बत लौट जाते। विशेष रूप से भोटिया समुदाय के लोग, पर्वतों पर अपना घर बर्फ से ढके जाने पर धारचूला को ग्रीष्मकालीन पड़ाव बना लेते। भोटिया जनजाति (रङ्ग) के अलावा धारचूला में काफी बड़ी आबादी कुमाऊंनी ब्राह्मणों एंव राजपूतों की भी है।
    
        ध्यौला एवं कंडाली जैसे प्रमुख त्योहारों के साथ स्यांगथांगा पूजन, स्मीमीधुनो (आत्म पूजन), माटी पूजा, तथा नबू-सामो तथा वार्षिक कांडा-उत्सव जैसे छोटे त्योहार भी मनाये जाते हैं। 

कंडाली उत्सव- प्रत्येक 12 वर्ष में अगस्त-सितम्बर मे आयोजित कण्डाली या किर्जी उत्सव कहलाता है। इसे शुरु किये जाने के सम्बन्ध में दो भिन्न मत हैं-
पहला मत है कि 1841 में लद्दाख से जोरावर सिंह के आक्रमण होने पर गांव के पुरुष व्यापार हेतु बाहर थे, तब गांव की महिलाओं ने कण्डाली घास के पीछे (झाड़ी) छिपे सैनिकों को पीछे खदेड़ा। यह पौधा 12 वर्ष बाद खिलता है।
अन्य मत यह है कि इस क्षेत्र में रहने वाली महिला का 12 वर्षीय पुत्र बीमार पड़ गया था, स्थानीय जड़ी-बूटी के तौर पर कण्डाली का भी प्रयोग किया गया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी, अतः उक्त महिला ने क्षेत्र के सारे कण्डाली पौधों को नष्ट कर दिया। चूंकि महिला ने कण्डाली को श्राप दिया कि मेरे 12 वर्षीय पुत्र की मृत्यु तेरे कारण हुई अतः प्रति बारह वर्ष में तेरा भी नाश हो। इसलिये इस मेले का आयोजन प्रति 12 वर्ष में किया जाता है।
        उत्सव का आरंभ जौ एवं मोथी के आटे से बने एक शिवलिंग की पूजा से होता है। प्रत्येक परिवार यह पूजा करता है जो अंत में एक समुदाय मोज में परिवर्तित हो जाता है। परंपरागत परिधानों में स्त्री-पुरुष प्रत्येक गांव के एक निर्धारित पेड़ के पास इकट्ठा होकर एक ध्वज फहराते हैं। ध्वज वाहक के पीछे एक जुलुस बन जाता है जो कंडाली पौधे की ओर बढ़ता है। महिलाएं इसका नेतृत्व करती हैं। प्रत्येक के हाथ में रील होता है, जो दरी बनाने का एक उपकरण होता हैं तथा इससे वे खिले पौधों पर जोरों से आक्रमण करती हैं। उनके पीछे ढाल-तलवारों से लैस बच्चे एवं पुरूष रहते हैं। विजय नृत्य तथा झाड़ी के उखड़ जाने के बाद उत्सव समाप्त होता है।

वर्ष 2011 में अंतिम बार कंडाली खिला था और वह वर्ष 2023 में इसके फिर खिलने पर अगला उत्सव होगा।

झूलापुल

धारचूला-दार्चुला पुल

        धारचूला भारत और नेपाल के मध्य व्यापारिक, सामाजिक एवं पारम्परिक सम्बन्ध रखता है। इन सम्बन्धों को प्रगाढ़ता देते है विभिन्न स्थानों में जोड़ने वाले झूलापुल जो भारत-नेपाल के सम्बन्धों को पुख्ता करते है। ऐसा ही धारचूला नगर में भी एक पुल है। 1906 में शेरिंग जब धारचूला आया था तो उसने भारत-नेपाल के मध्य काली में बने रस्सियों के पुल का जिक्र किया है। शेरिंग ने लिखा है कि लौंगस्टाॅफ और मैं एक-दूसरे को इस पुल को पार करने के लिए उकसाते रहे पर कोई भी उसे पार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। शेरिंग लिखता है कि स्थानीय लोग बन्दर की तरह उल्टा लटक कर आर-पार चले जाते थे। शेरिंग ने जिस तरह टिप्पणी की है उससे स्पष्ट है कि स्थानीय रूप में जिसे लोहे के तार में रिंग फसा कर नदी पार करते है उसे घाट कहते है, अतः उस समय तक यहां पुल नहीं बना था।

धारचूला में स्थित पर्यटन स्थल 

काली नदी – काली नदी, कालापानी के ग्रेटर हिमालय से निकलती हैं काली नदी समुद्रतल से लगभग 3600 मीटर की उचाई पर स्थित हैं| काली नदी भारत और नेपाल के बीच प्राकृतिक बॉर्डर का काम करती हैं| यह नदी भारत के दो राज्यों उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश की सीमा पर भी बहती हैं उत्तरप्रदेश में इस नदी का नाम शारदा नदी हैं काली नदी जौलजेबी में गोरी गंगा नदी से मिलने के बाद गंगा नदी में समा जाती हैं| काली नदी के कारण इस क्षेत्र को काली नदी घाटी क्षेत्र भी कहा जा सकता है। 

 काली नदी घाटी        

नारायण आश्रम -

    नारायण आश्रम पिथौरागढ़ जिले में स्थित एक प्रसिद्ध एवम् लोकप्रिय धार्मिक स्थान हैं , जो कि समुन्द्र ताल से लगभग 2734 फीट की ऊँचाई पर सोसा नामक क्षेत्र में स्थित हैं | नारायण आश्रम पिथौरागढ़ शहर से 116 किलीमीटर की दुरी पर स्थित हैं | इस आश्रम को स्थानीय तौर पर बंगबा या “चौदास भी कहा जाता है | इस आश्रम को 1936 में एक साधू एवम् सामाजिक कार्यकर्ता नारायण स्वामी के द्वारा स्थापित किया गया | नारायण आश्रम के लिए जमीन “सोसा के स्वर्गीय कुशाल सिंह हयांकी ने स्वामी जी को दे दी थी और सोसा के लोगो से आसपास के कुछ भूखंडो को ख़रीदा गया था| इस आश्रम से कुछ ही दुरी पर तवाघाट नाम स्थान पर धौलीगंगा और कालीगंगा नदी का संगम होता है  नारायण आश्रम की मुख्य इमारत के अन्दर एक मंदिर है, जो कि तीर्थयात्रियों या आगुन्तको को श्रधांजलि अर्पित करने के लिए है |

ॐ पर्वत – ओम पर्वत, 6191 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय पर्वत श्रृंखला के पहाड़ों में से एक है।

पृथ्वी पर आठ पर्वतों पर  प्राकृतिक रूप से ॐ अंकित हैं जिनमे से एक को ही खोजा गया हैं और वह यही ॐ पर्वत हैं इस पर्वत पर बर्फ इस तरह पड़ती हैं की ओम का आकार ले लेती हैं आदि कैलाश यात्रियों को पहले गूंजी पहुचना पड़ता हैं | यहाँ से वे ॐ पर्वत के दर्शन करने जाते हैं | उसके बाद वापस गूंजी आकर, आदि कैलाश की ओर प्रस्थान करते हैं| ॐ पर्वत की इस यात्रा के दौरान हिमालय के बहुत से प्रसिद्ध शिखरों के दर्शन होते हैं |


रांथी झरना-

    यह झरना धारचूला नगर से मात्र 5 किमी दूर रांथी गांव जाने वाली सड़क पर है। इसकी विशेषता ये है कि इस झरने के नीचे से सड़क मार्ग है जिससे गाड़ियां गुजरती है। यह झरना पर्यटकों का आकर्षण का केन्द्र तो है किन्तु सरकारी तन्त्र की राह अब भी देख रहा है। 



आपका अपना धारचूला भाग-02 में हम छिपलाकेदार, दारमा, ब्यास और चौदास घाटियों का जिक्र करेंगे। 

टिप्पणियाँ

  1. बेहतरीन जानकारी संग्रह भाई जी। 12 साल रहा हूँ धारचूला में पर पूरी जानकारी अब मिली है।

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  2. darchula / dharchula ek shaha hai jo ki kaali nadi ke dono taraf basa hai
    us taraf nepal ke log darchula kahte hai
    darchula ko nepal sarkar ne jila bhi banaya hai
    darchula nepal ke sudur paschim nepal kaa ek jila hai

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  3. श्रीमान छिपलाकोट के रमणीय स्थलों के बारे में भी प्रकाश डाले ..💐🙏🌿

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  4. बहुत ही महत्त्वपूर्ण जानकारियां एकत्र कर के आपने इस खूबसूरती से संजोया की अध्यन करने में रुचि बढ़ती जा रही थी, आशा है अगला अंक जल्दी मिलेगा।

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