पंवार शासकों का दिल्ली दरबार से सम्बन्ध

1.  कल्याणपाल/कल्याण शाह (1505 के बाद)- कल्याण पाल अजैपाल का पुत्र था। सम्भवतः किसी लोदी शासक ने इसे शाह की उपाधि दी थी। अतः नाम कल्याणपाल से कल्याण शाह पड़ा। हालांकि इनके वंशजों ने पुनः पाल उपनाम से शासन किया। शाह उपनाम बलभद्रशाह के समय से वंशानुगत हुआ है।

2. सहजपाल/बलभद्रपाल/बहादुरशाह या रामशाह (1548-1597) (ये सभी एक ही राजा के विभिन्न नाम थे।)- अधिकांशतः मौखिक इतिहास ही इस सम्बन्ध में प्रचलित है कि अकबर ने बलभद्रपाल को शाह की उपाधि दी थी अतः इसके बाद के शासकों ने अपना उपनाम शाह लिखना प्रारम्भ किया। ये भी जान लेना उचित होगा कि सर्वप्रथम शाह की उपाधि कल्याण शाह को मिल चुकी थी, लो सम्भवतः किसी लोदी सुल्तान ने दी थी। किन्तु अकबर ने शाह की उपाधि बलभद्रपाल को दी थी।

3. मानशाह/मानपाल (1591-1611), श्यामशाह (1611-1623/ 23) और मुगल- मानशाह के अकबर तथा जहाँगीर के साथ मैत्रीपूर्ण संबन्ध थे। मानशाह और श्यामशाह के सभाकवि भरत का ज्योतिषि के रूप में मुगल दरबार में बहुत सम्मान था। 1621 में श्यामशाह आगरा में जहाँगीर के दरबार में उपस्थित हुआ। जहाँगीरनामा से ज्ञात होता है कि सर्वप्रथम मुगल दरबार में पहुँचने वाला परमार शासक श्यामशाह था।

4. महीपति शाह (1626-1631) और शाहजहाँ (1627-1658)- महीपति शाह ने सिरमौर के शासक कर्मप्रकाश के राज्यकाल में उसके कैनीगढ़ और विराटगढ़ पर अधिकार कर लिया था। कर्मप्रकाश के पुत्र मान्धाता प्रकाश द्वारा उक्त गढ़ों को वापस विजित करने हेतु नवाजत खाँ के साथ मिलकर साथ मिलकर श्रीनगर क्षेत्र में आक्रमण किया था। महीपतिशाह ने शाहजहाँ का प्रभुत्व स्वीकार नहीं किया।

5. महारानी कर्णावती (1631-1640) और मुगल आक्रमण- महीपतिशाह की मृत्यु के समय उसका पुत्र पृथ्वीपतिशाह अवयस्क था। अतः महारानी कर्णावती ने प्रशासनिक शक्तियाँ अपने हाथों में ले ली। शाहजहाँ ने कर्णावती के समय आक्रमण हेतु पुनः नवाजत खाँ को भेजा।

दून प्रदेश पर मुगल अधिकार तथा सलाण पर आक्रमण

शेरगढ़- 1635 में नवाजत खाँ ने महीपति शाह के सेनापति माधो सिंह भण्डारी द्वारा बनाए गये इस दुर्ग पर अधिकार किया। अब्दुल हमीद लाहौरी ने इसे यमुना तट पर बताया है।

कानीगढ़/वैराटगढ़- यमुना तट से आगे बढ़ने पर कालसी के पास इस पर अधिकार कर इसे मान्धाताप्रकाश को सौंपा गया।

सन्तूरगढ़- कालसी के दक्षिण में इसे विजित कर नवाजत खाँ ने लखनपुर के जमींदार को सौंप दिया।

सलाण पर आक्रमण- मआसिर उल उमरा के अनुसार चण्डीघाट से आगे गढ़वाल सीमा के भीतरी भाग में सफल आक्रमण किया। इससे भयभीत होकर बादशाह की अधीनता स्वीकार करने का संदेश भेज दिया। नवाजत खाँ से दो सप्ताह का समय लेकर दस लाख रू. का नजराना देने की बात कही। रानी कर्णावती ने साजिशन दो सप्ताह को बढ़ाकर ढेड़ माह की प्रतीक्षा करवाई जिससे नवाजत खाँ की रसद(राशन) समाप्त होने की स्थिति आ गई। स्थिति भाँप कर कर्णावती की सेना ने शाही सेना का घेर लिया और कर्णावती ने नवाजत खाँ के सैनिकों की नाक कटवाकर उन्हें वापस भेज दिया। शिव प्रसाद डबराल महारानी को नककट्टी रानी नाम से सम्बोधित करते है।

6. पृथ्वीपतिशाह (1640-1665) और मुगल- इनके कार्यकाल में मुगल सेना ने गढ़वाल राज्य पर तीन आक्रमण किए। शाहजहाँ ने मीर मुगल को आक्रमण के लिए भेजा। युद्ध दून प्रदेश में हुआ जिसमें मीर मुगल मारा गया।

7. खलीलुल्ला खाँ के अभियान (1654-1655)- इनयात खाँ के शाहजहाँ से पता चलता है कि मीर मुगल की असफलता के बाद शाहजहाँ ने खलीलुल्ला खाँ को इस अभियान का उत्तरदायित्व सौंपा। विशाल सेना को देखते हुए गढ़वाली सेना ने विरोध नहीं किया जिससे दून घाटी एवं चण्डीघाट (हरिद्वार) में आसानी से स्थायी सैन्य अड्डे बना लिया।

8. पृथ्वीपतिशाह (1640-1665) और कासिम खाँ का आक्रमण- कासिम खाँ ने 1656 में दून प्रदेश में सन्तूरगढ़ पूर्णतः ध्वस्त कर दिया। पूर्वी भाग से बाजबहादुर चन्द तथा पश्चिम से शाही सेना के आतंक से विवश होकर पृथ्वीपतिशाह ने बादशाह की अधीनता स्वीकार की तथा अपने पुत्र मेदिनीशाह को दिल्ली दरबार में भेजा बादशाह ने उसे माफ कर दिया और खिलअत प्रदान की। 

9. सुलेमान शिकोह को आश्रय- 1656 में पृथ्वीपतिशाह ने बादशाह की अधीनता स्वीकार की थी जिसमें उसकी मदद की थी जहाँआरा तथा दाराशिकोह ने। अतः 1658 में शाहजहाँ की मौत के बाद सत्ता संघर्ष शुरू हो गया था। अतः औरंगजेब से बचते हुए दाराशिकोह का पुत्र सुलेमान शिकोह 1659 में गढ़वाल की शरण में आ गया। मात्र तीन  वर्ष बाद 1659 में ही पृथ्वीपतिशाह ने अधीनता की शर्त का उलंघन कर सुलेमान शिकोह को आश्रय दिया। मुआसिर उल उमरा के अनुसार औरंगजेब ने सुलेमान शिकोह की गतिविधियों को रोकने के लिए चण्डी थाने का थानेदार राजा राजरूप का बनाया। तथा सिरमौर के शासक सौभाग्य प्रकाश को फरमान भेजकर सुलेमान शिकोह पर नजर रखे जाने का आदेश दिया।

शहजादे सुलेमान को सौंपने के लिए राजा जय सिंह ने कई पत्राचार गढ़नरेश को किये पर गढ़नरेश शरणागत के साथ विश्वासघात न करने को न थे। किन्तु मेदिनीशाह पिता के विपरीत थे उन्होंने सुलेमान शिकोह को बन्दी बनाकर जय सिंह के पुत्र राम सिंह को कोटद्वार के निकट सौंप दिया तथा औरंगजेब से मनसब प्राप्त किया।

10. मेदिनीशाह द्वारा बुटौलगढ़ विजय- मेदिनीशाह को औरंगजेब ने हिमाचल का बुटौलगढ़ जीतने का फरमान दिया गया। मेदिनीशाह ने बादशाह के नाम पर किले को विजित किया। बादशाह ने प्रसन्न होकर दून प्रदेश का पट्टा मेदिनीशाह को सौंप दिया जहाँ मेदिनीशाह ने पिता के नाम से पृथ्वीपुर नामक कस्बा बसाया था। यह भी जान लेना उचित होगा की सम्पूर्ण मुगल काल में गढ़वाल का एकमात्र मनसबदार मेदिनीशाह ही था।

11. फतेहपति शाह एवं गढ़वाल-मुगल सम्बन्घ- फतेहपतिशाह के समय गढ़वाली सेना ने सिरमौर क्षेत्र की सीमाएं अपने राज्य में मिला ली थी। औरंगजेब के हस्तक्षेप से विराटगढ़ पर पुनः अपना अधिकार त्याग दिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद भी शाहआलम के शासनकाल तक गढ़वाल कुमाऊँ के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बने रहे।

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