आजादी से पूर्व राज्य की मांग

सर्वप्रथम 1815 में कुमाऊँ में अंग्रेजों के आगमन के साथ ही भौगोलिक संरचना, सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक स्वरूप से उत्तराखण्ड क्षेत्र पृथक हो गया, किन्तु किसी भी स्तर में सीमांकन न होने के चलते इसके पृथक अस्तित्व को आकार न मिल सका। 1815 से 1869 तक उत्तराखण्ड में विशिष्ट न्यायिक व्यवस्था लागू रही। 1815 से ही नान रेगुलेशन सिस्टम लागू हुआ। 1874 में ब्रिटिश हुकुमत ने अधिसूचित जिला अधिनियम लागू कर उत्तराखण्ड क्षेत्र को अन्य साधारण कानून से अलग करने तथा संरक्षण देने की शक्ति स्वयं में समाहित कर दी। 1920 तक राज्य क्षेत्र के सिविल मुकदमें सम्बन्धी मामले उत्तर प्रदेश क्षेत्र से भिन्न थे। भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर आजादी के बाद भी यहाँ जमींदारी उन्मूलन तथा भूमि सुधार कानून-1952 लागू नहीं किया गया। यहां तक की उत्तराधिकार कानून भी अन्य राज्यों से अलग यहां के रीति-रीवाजों पर आधारित थे। अनुसूचित जिला अधिनियम-1874 से बाहर निकाले जाने हेतु 1925 में संयुक्त प्रान्त की विधान परिषद् ने एक समिति का गठन किया। 1927 में समिति ने रिपोर्ट दी, जिसकी सिफारिशें लागू नहीं हुई। 1937 में गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट-1935 लाया गया जिसके तहत कुमाऊं क्षेत्र में अनुसूचित जिला अधिनियम की धाराएं निष्क्रिय तो हुई पर इस अधिनियम से बाहर नहीं किया गया। 24 दिसम्बर, 1937 को तत्कालीन न्यायमंत्री की अध्यक्षता में समिति का गठन किया गया तथा 1940 में कुमाऊँ लाज कमेटी का सृजन किया गया, जिसने 12 विषयों पर अपनी संस्तुति प्रस्तुत की। उत्तराखण्ड क्षेत्र की पृथक प्रशासनिक इकाई के रूप में पहचान कायम करने के प्रयास सर्वदा निरर्थक ही रहे।

                जून, 1897 में प्रथम बार पर्वतीय क्षेत्र के लिए पृथक प्रशासनिक इकाई की मांग शुरू हुई, जब अल्मोड़ा से महारानी विक्टोरिया को बधाई पत्र प्रस्तुत करने के साथ यह मांग रखी गई। 1904 में प्रकाशित नैनीताल गजेटियर में प्रथम बार राज्य हेतु हिल स्टेट शब्द का प्रयोग किया गया। 1911 में डिप्टी कमिश्नर क्ले ने ऋषिकेश-रुद्रप्रयाग रेलवे मार्ग तथा टनकपुर-बागेश्वर रेलवे मार्ग का सर्वेक्षण कार्य किया गया। 27 नवम्बर, 1923 को कुमाऊँ ए सेपरेट प्रोविनेन्स मैमोरेंडम पारित करवाया गया। 1924 में संयुक्त प्रान्त सरकार के विशेष अधिकारी एस.एन. सप्रू द्वारा इंडस्ट्रिल सर्वे आफ गढ़वाल नामक रिपोर्ट में क्षेत्र के पिछड़ेपन का उल्लेख करते हुए प्राकृतिक सम्पदा का इस्तेमाल स्थानीय लोगों के रोजगार दिये जाने हेतु किया गया। 1928 में नेहरू समिति की रिपोर्ट में भौगोलिक आर्थिक आधार पर प्रान्तों का सृजन करने की सिफारिश की गई। पूर्व में 1911 से ही राज्यों को भाषाई आधार पर गठित किया जाता था। 1931 के कराची में हुए कांग्रेस अधिवेशन में भी इस सिफारिश को दोहराया गया था।

                1928 में साइमन कमीशन के भारत आने की खबर पर कुमाऊं के लोगों ने कुमाऊं एक पृथक प्रान्त नामक शीर्षक से स्मृति पत्र आगरा-अवध के गर्वनर के माध्यम से सरकार को सौंपा। 1930 में इंडियन स्टेट्यरी कमीशन (साइमन कमीशन) ने कहा कि जो लोग एक ही भाषा बोलते हैं वे लोग एक ही क्षेत्र या प्रान्त बनाकर निवासित होना चाहिए। 1931 में गढ़वाल क्षेत्र के लोगों की दशा पर कुमाऊं कमिश्नर द्वारा संयुक्त प्रान्त सरकार को रिपोर्ट प्रस्तुत की गई।

5-6 मई, 1938 श्रीनगर में आयोजित गढ़वाल सम्मेलन में नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित की उपस्थिति मे पर्वतीय पिछड़ेपन को स्वीकारते हुए पृथक प्रशासनिक व्यवस्था की मांग को रखा गया। 22 मार्च, 1938 को पहाड़ से पलायन कर दिल्ली में रह रहे लोगों ने अखिल भारतीय पर्वतीय सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में गढ़देश सेवा संघ का गठन किया गया। 1939 में हिमालय प्रान्तीय कार्यकर्ताओं का सम्मेलन हुआ। इसमें श्रीदेव सुमन मुख्य वक्ता थे। इसी सम्मेलन में गढ़देश सेवा संघ का नाम बदलकर हिमालय सेवा संघ नाम दिया गया। 1939 में ही पौड़ी में कांगे्रस का राजनैतिक सम्मेलन आयोजित हुआ। इसमें अलग पर्वतीय प्रदेश की मांग रखी गई जिस पर गौर नहीं किया गया। मांग अनसुनी होने पर प्रताप सिंह नेगी और उमानंद बड़थ्वाल ने गढ़वाल जागृत संस्था का गठन किया।

                1946 हल्द्वानी में बद्रीदत्त पाण्डेय ने पर्वतीय क्षेत्र के लिए पृथक प्रशासनिक इकाई का प्रस्ताव पारित करवाया जिसे गोविन्द बल्लभ पंत ने अस्वीकार कर दिया। प्रथमतः उत्तराखण्ड राज्य हेतु पत्रों के माध्यम से उत्तराखण्ड शब्द गंगादत्त पाण्डेय ने 1948 में प्रयुक्त किया। बद्री दत्त पाण्डेय ने राज्य पुनर्गठन हेतु 1948 में राज्य की औचित्यपूर्ण मांग को विचारार्थ रखा। 01 अगस्त, 1949 को टिहरी रियासत का भारतीय संघ में विलय हो गया।

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उत्तराखंड के लेखक और उनकी प्रमुख पुस्तकें- भाग-1

कुमाऊँनी मुहावरे और लोकोक्तियाँ भाग-01

उत्तराखण्ड भाषा का विकास भाग-02 गढ़वाली भाषा