कुमाऊं में प्रचलित बर्तन
मध्य हिमालय का हस्त शिल्प अत्यन्त प्राचीन है। प्राचीन बसासतों पर पुरातात्विक सर्वेक्षण आधारित शोधपत्रों से ज्ञात होता है कि कालान्तर में यहाँ के निवासियों को धातु-कार्यों, शिल्पकार्यों, हस्तकलाओं व काष्ठकलाओं आदि में दक्षता प्राप्त थी। वर्तमान में इस प्रकार के कार्यों में दक्ष लोगों की कमी होने के कारण सम्बन्धित दक्षतापूर्ण कार्य भी कम दिखाई देने लगा है। ताम्रकारिता को छोड़ दिया जाय तो अन्य सभी शिल्प कार्य अपने अन्तिम पड़ाव पर दिखाई पड़ते हैं। चर्मकारिता तो समाप्त हो चुकी है। मिट्टी का कार्य भी कुछ ही वस्तुओं तक सीमित है। काष्ठ के उत्कृष्ठ नमूने केवल पुराने भवनों में ही देखने को मिलते हैं। काष्ठ निर्मित बर्तनो का निर्माण भी लगभग समाप्त हो चुका है। लौह निर्मित वस्तुएँ भी बाजार से खरीद कर प्रयुक्त की जा रही हैं। ऐसी दशा में परम्परागत शिल्प कार्यों के विविध आयामों को लिपिबद्ध करना आवश्यक है क्योंकि इससे हमें अतीत की संस्कृति, सामाजिक प्रणाली, रहन-सहन आदि के बारे में जानने हेतु किसी न किसी निष्कर्ष में पहुँचने में मदद मिल सकती है। उक्त बिन्दु को ध्यान में रखकर प्रस्तुत लेख में कुमाउनी समाज में अतीत से वर्तमान तक प्रयोग में लाये गये बर्तनों' की जानकारी देने का प्रयास किया गया है।
इन बर्तनो को पाँच भागों में विभाजित किया गया है:-
(अ) धातु के बने बर्तन,
(ब) लकड़ी के बने बर्तन,
(स) मिट्टी के बने बर्तन,
(द) पत्थर के बने बर्तन,
(इ) फलों के खोखले।
(अ) धातु के बने बर्तन- कुमाऊँ में पारम्परिक रूप से लोहे एवं ताँबे के विविध प्रकार के बर्तन बनाये जाते हैं। जिन खानों से लोहा व तांबा निकाला जाता था उनको राजखान के नाम से जाना जाता था। लोहा तथा ताँबे के बर्तनों को बनाये जाने वाले स्थान को 'आफर' कहा जाता था। वर्तमान में लोहे के बर्तन बनाने का कार्य तो कम दिखाई देता है परन्तु ताम्रकारों ने ताँबे के परम्परागत बर्तन बनाने का कार्य अभी भी जीवित रखा है। इसके अतिरिक्त पीतल व कॉसे के परम्परागत बर्तन भी कुमाँऊ क्षेत्र में बहुतायत से उपयोग में लाये जाते रहे। विगत चार दशकों से एल्यूमीनियम तथा स्टील के बर्तनों के प्रसार से इन परम्परागत बर्तनों का प्रयोग कम होता जा रहा है। कुछ मुख्य परम्परागत बर्तन इस प्रकार हैं:-
अर्घ्यः- ताँबे से निर्मित यह पवित्र (बर्तन) पात्र पूजा-अर्चना में उपयोग होता है। पूजा में अर्घ्य स्थापन व देवताओं को जल समर्पित इसी बर्तन से किया जाता है।
अष्ट कुम्भ- ताँबे से बने ये बर्तन यज्ञोपवीत संस्कार के समय काम में लाये जाते हैं। इनकी संख्या आठ से बारह होती है।
आचमनीः- पंचपात्र (पूजा में प्रयुक्त बर्तन) के साथ प्रयुक्त होने वाला ताँबे से बना यह पात्र चम्मच की आकृति लिये होता है। पूजा में इस बर्तन की सहायता से आचमन किया जाता है। भगवान को जल व अन्य वस्तुयें समर्पित करते समय इसका उपयोग किया जाता है।
कलशः पीतल या ताँबे से निर्मित यह सुन्दर बर्तन पानी रखने व भरने के काम में लाया जाता था। इस पर कलाई करके भी इसका उपयोग होता है। कभी-कभी इस बर्तन पर सुन्दर नक्काशी भी की गई होती है
कस्यारः- यह पीतल का बना बर्तन है जो पानी भरने के काम आता है परन्तु इसका आकार घंटीनुमा होता है। वर्तमान में यह बर्तन प्रचलन में नहीं दिखाई देता है।
कड़ाई, कड़ैः- लोहे निर्मित यह बर्तन सब्जी व अन्य व्यंजनों को पकाने में उपयोग होता है। अलग-अलग प्रकार की कढ़ाई जैसे गहरी, चपटी व मुनड़े व बिना मुनड़े वाली आदि प्रकार की कुमाऊँ क्षेत्र में प्रचलित हैं, जिन्हें इनके आकार व बनावट के आधार पर कई नामों जैसै टमकिया, भद्याव, जाम, चासिणि, जबरू से जाना जाता है। लोहाघाट व बागेश्वर की बनी कढ़ाइयां वर्तमान समय में भी प्रसिद्ध हैं।
कनिस्तरः-टिन से निर्मित कनिस्तरो का उपयोग अनाज व तेल रखने के लिये किया जाता है। इसके अलावा सर्दियों के मौसम में इसे पानी गरम करने के लिये भी उपयोग किया जाता है।
कसेराः- यह बर्तन सामान्यतः काँसे का बना होता है। उपर की तरफ इसका मुँह छोटा व नीचे की तरफ का हिस्सा अर्द्ध गोलाई लिये होता है। यह आकार में बड़ा व छोटा होता है। बडे कसेरे का उपयोग शादी, विवाह. पूजा आदि अवसरों पर सब्जियां बनाने में किया जाता है परन्तु छोटा कसेरा पानी भरने के काम में लिया जाता है।
काँसे की थालीः- कॉसे का निर्माण पीतल व टिन को मिलाकर किया जाता है। काँसे की थाली शुद्ध मानी जाती है। विवाह के अवसर पर इसका उपयोग किया जाता है। पुराने समय एवं वर्तमान में भी विवाह के समय मिली काँसे की थाली में 'वर' भोजन करता था। इसकी थाली में 'सेली (आटे से निर्मित दिये व अल्पना) बनाकर 'वर'-वधू की आरती उतारी जाती है।
काँसे का कटोरा (काँसक ब्याल):- यह भी शुद्ध माना जाता है व विवाह के अवसर पर कन्या पक्ष की ओर से वर पक्ष को प्रदान किया जाता है।
कुनि/कुनीः- ताँबे निर्मित यह बर्तन भगवान की मूर्तियों को नहलाने के लिये प्रयुक्त होता है। इस थालीनुमा बर्तन के बीच में स्वास्तिक या सूर्य चन्द्र बने होते हैं।
केतली:- पहाड़ में इसका प्रचलन कई दशक पूर्व ही माना जाता है, जिसे मुख्यतः चाय बनाने हेतु प्रयोग करते हैं। परम्परागत केतली लोहे से बनाई जाती थी परन्तु 4-5 दशक से एल्यूमीनियम से बनी केतली का प्रयोग होने लगा है।
गगरी/ताँबे का घड़ाः- यह ताँबे का बर्तन पानी रखने हेतु प्रयोग किया जाता है। इसका आकार ऊपर की ओर संकरा व नीचे की ओर गोलाई लिये हुये होता है। महिलायें नौले/धारों से पानी भरने में भी इसका प्रयोग करती है। ताँबे का बने होने के कारण इसमें रखा पानी उत्तम व शुद्ध माना जाता है। विवाह के समय कन्या पक्ष द्वारा वर पक्ष को एक गागर अवश्य देने की परम्परा है।
गडुवाः- इसका निर्माण पीतल से किया जाता है। सुन्दर आकार का यह बर्तन विवाह के अवसर पर कन्यादान के समय उपयोग किया जाता है। कन्या व उसके पिता के हाथ में इस बर्तन के द्वारा पानी दिया जाता है जिसे 'गढ़वे धार' कहते हैं। लोटे की तरह का यह बर्तन एक तरफ से केतली की तरह नली लिये होता है।
गिलासः- समान्यतः यह पीतल या कॉसे के बनाये जाते थे। इनका उपयोग पानी व चाय पीने के लिये किया जाता था।
चाल्न (छलनी):- यह टिन के चादर की बनी होती हैं। इसका आकार गोल या चौकोर होता है। इसके चारों ओर के सिरे ऊपर की ओर उठे होते हैं। इसके बीच के चपटे हिस्से में ढेर सारे छेद होते हैं जो छोटे व बड़े नाप की होते हैं। इसका उपयोग आटा, दाल गेहूँ व अन्य अनाजों को छानने के लिये किया जाता है। छोटी छलनी को 'चावनु' या 'चान' कहा जाता है।
चासिणि (बड़ी कढ़ाई):- लोहे से निर्मित यह बड़ी कढ़ाई त्यौहारों में पकवान व अन्य व्यजन बनाने के लिये प्रयोग की जाती है। इसका वजन सामान्य कड़ाइयों से अधिक होता है।
चिम्ट (चिमटा):- पुराने समय में अधिकांषतः लोहे से बने चिमटे उपयोग में लाये जाते थे। कुछ चिमटे बड़े व कुछ छोटे होते हैं। इनका उपयोग रोटी सेकने, चूल्हे से कोयले निकालने व चूल्हे की आग ठीक करने व बच्चों को डराने के लिये किया जाता है। वर्तमान में लोहे के अलावा एल्यूमीनियम व हैण्डोलियम के चिमटों का प्रयोग होने लगा है। कुछ विशेष प्रकार के चिमटे जिनमें टिन के गोल छल्ले लगे होते हैं और जो हिलाने पर मधुर ध्वनि करते है का उपयोग भजन कीर्तन में भी किया जाता हैं।
जतर, जबरूः- लोहे से निर्मित इसका आकार गहरी कढ़ाई की तरह होता है परन्तु कढाई की तरह इसके दोनों तरफ 'मुनडे' नही होते हैं। इसमें सब्जी, डुबके (भट्ट को पीसकर बना व्यंजन) आदि बनाये जाते हैं।
जॉतिः- लोहे का बना यह उपकरण अँगीठी के उपर रखा जाता है। जिसके उपर भोजन बनाने हेतु सम्बन्धित बर्तन रख कर खाना तैयार किया जाता है। जॉती के तीन पॉव होते हैं और यही तीन पॉव इसके गोलाई वाले भाग जिसके उपर बर्तन रखा जाता है की ओर मुड़े होते हैं अर्थात केन्द्र की ओर मुडे होते हैं। अर्थात् केन्द्र की ओर मुड़े होते हैं।
झाँझरः- लोहे से निर्मित यह एक बड़ी छलनी है जो पूरी तलने के काम में लाई जाती है। इस छलनी में आवश्यकतानुसार लोहे की एक से तीन फुट लम्बी छड़ी लगी होती है।
टिन के डब्बेः-टिन के बने डिब्बे साधारणतया एक किलोग्राम से लेकर पाँच किलोग्राम तक होते हैं। इनका उपयोग घी, मसाले, दाल व तेल आदि रखने के लिये किया जाता है।
डाढू, (करछी):- पुराने समय में इसको लोहे से बनाया जाता था। एक लम्बे हत्थे के अग्रभाग पर गहरा कटोरानुमा यह बर्तन दाल व शब्जी परोसने के काम आता है। इसके अलावा दाल को छौंकने के लिये भी इसका प्रयोग किया जाता है। वर्तमान समय में स्टील के बने डाडू प्रचलन में हैं।
पंचपात्रः- पूजा अर्चना में प्रयोग होने वाला यह बर्तन सामान्यतः ताँबे का बना होता है। यह पूजा हेतु पानी रखने के काम आता है. विवाह व अन्य अवसरों पर भी इसका प्रयोग होता है. इस अवसर पर वधू पक्ष की ओर से वर पक्ष को पंचपात्र व आचमनी देने का रिवाज है.
पानसः यह पीतल से बनाया गया पात्र है जिसमें एक मजबूत आधार व स्टॅन्ड के उपर जलाने हेतु कटोरानुमा पात्र बना होता है। ये पानस छोटे व बडे तथा भिन्न भिन्न ऊँचाई व वजन के होते है।
ब्याल (कटोरा):- पुराने समय में पीतल के व कलाई किये हुये कटोरों का उपयोग खाना खाने के लिये किया जाता था। ये छोटे व बड़े कई प्रकार के होते थे। वर्तमान में स्टील, चीनीमिट्टी, व प्लास्टिक के बने कटोरों का उपयोग सामान्य वर्ग के लोगों में भी प्रचलित है।
बाल्टीः लोहे की चादर से निर्मित यह बर्तन पानी भरने के काम में लाया जाता है। वर्तमान में प्लास्टिक की बालटयां भी पानी भरने के प्रयोग में लाई जा रही है।
भगोना/डेगः- पुराने समय में पीतल के बने भगोने प्रचलन में थे। यह बर्तन गोलाई लिये होता है। दूध गरम करने व अन्य चीजों को पकाने हेतु उपयोग में लाया जाता है।
भड्डू:- पीतल व काँसे से निर्मित यह बर्तन उपर से छोटी गर्दन वाला व संकरा होता है। इसमें दाल, तरकारी व मीट बनाया जाता था। इसका भार 3 से 4 किलाग्राम तक होता है।
भदेलीः- लोहे से बना यह बर्तन गहराई लिये होता है। इसमें विभिन्न प्रकार के कुमाउँनी व्यंजन, डुबके, भटिया, रस आदि बनाये जाते हैं। इसका वजन 3 से 4 किलोग्राम तक होता है।
भुजकोरः- पुराने समय में लोहे व पीतल के बने भुजकोर (कद्दूकस) काम में लाये जाते थे। यह चार टाँगों वाला चौकोर व गोल पात्र है, जिसकी ऊपरी सतह पर नुकीले बड़े व छोटे छिद्र पंक्तियों में बने होते हैं। इसका उपयोग ककड़ी, गोला, मूली एवं अन्य वस्तुओं को कोरने के लिये किया जाता है। वर्तमान समय में स्टील के बने भुजकोर प्रचलन में है।
माण्/माणाः- पीतल से बना यह गिलास के आकार का पात्र है। इसका उपयोग अनाज के आदान प्रदान व अनाज भरने के लिये किया जाता है। सामान्यतया यह बर्तन लकड़ी का बनाया जाता है।
लोटा/लोट्ः पीतल, कलई किए व ताँबे के लोटे प्राचीन समय से ही कुमाऊँ क्षेत्र में उपयोग में लाये जाते रहे हैं। वर्तमान समय में भी अलग-अलग आकार प्रकार के लोटे उपयोग में लाये जा रहे है। पूजा अर्चना हेतु ताँबे के लोटे का उपयोग किया जाता है।
सगङः- सगड़ लोहे की चादर से बनाया जाता है। यह वर्गाकार होता है, जो छोटे (30×30 सेमी.) या बड़े (60×60 सेमी) आकार के होते हैं। इन्हें जाड़ों में आग सेकने हेतु प्रयोग में लाया जाता है। आवश्यकता पडने इन्हें इसमें आग जलाकर भोजन बनाने हेतु भी प्रयोग करते हैं।
सडेंसीः-यह लोहे की दो लम्बी छड़ों से बना उपकरण है जो निचले सिरे पर एक रिपिड के द्वारा जुड़े रहते हैं। इसकी छड़ों का आकार प्रश्नवाचले चिन्ह की तरह होता है। यह बर्तनों को पकड़ने व उतारने के उपयोग में लाई जाती है।
हिमाम जस्ताः- यह लोहे से बना होता है गहरा बर्तन होता है। इसके साथ ही लोहे का एक बेलनाकार मूसल भी होता है जिसकी सहायता से मसाले व अन्य चीजें कूटी जाती हैं। सामान्यतः इसका वजन दो से तीन किलोग्राम तक होता है।
शेष अगले भाग में.....
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