गढ़वाल के गोरखपंथी ग्रन्थ

'नौ नाथ और चौरासी सिद्धों वाली उक्ति के समर्थन में 'गोरक्ष-सिद्धांत संग्रह' में नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चन्द्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पट और मलयार्जुन इन नौ मार्ग प्रवर्तक नाथों के नाम गिने गये हैं। चित्रकार व कवि श्री मोलाराम (1740 से 1833 ई०) के 'श्रीनगर राज्य का इतिहास' के आधार पर स्व० भक्तदर्शन मानते हैं कि गढ़वाल में नाथपंथ के प्रवर्तक सत्यनाथ थे तथा गढ़वाल राज्य को सुदृढ़ बनाने में उन्होंने प्रमुखता से भाग लिया था। 'सिद्ध सत्यनाथ द्वारा अजयपाल को सवा सेर गेहूं का दाना देना और आश्विन के महीने में उसकी पूजा करते रहना' कथानक के बाद आपने आगे कहा है- 'सन् 1370 में जब महाराज अजयपाल अपनी राजधानी वहां (देवलगढ़) लाये, तो उन्होंने गुरू सत्यनाथ का मठ स्थापित करने के साथ-साथ अपनी कुलदेवी राजराजेश्वरी के मन्दिर की स्थापना भी वहां पर की। सत्यनाथ का मन्दिर पहले अनुमानतः एक गुफा के रूप में था। बाद में किन्हीं पीर हंसनाथ ने मन्दिर का निर्माण कराया। तद्नुसार 18 गते आषाढ़ संवत् 1683 वि० (जुलाई सन् 1626 ई०) को किन्हीं प्रभातनाथ ने मन्दिर का जीर्णोद्वार करवाया और एक बड़े भंडारे का आयोजन किया। यह वहां के एक शिलालेख से स्पष्ट होता है'। शिलालेख पठनीय नहीं रह गया है। फिर भी उसे पढ़ने का जितना प्रयास किया गया, वह इस प्रकार है:- 

'श्री सत्यनाथ के उपदेशक शाके संवत् 1683 के सावन षोडष गते षा फ देवलगढ़ फफफफ सहजनाथ के सीषो परम हंसनाथ जी चेला फफफ स्तु भंडारा प्रभातनाथ।'

हमारे विचार से शिलालेख का संवत् 1683 शाके है- विक्रमीय नहीं। अस्तु मन्दिर के निर्माण का समय वि० संवत् 1818 श्रावण 16 गते (तदनुसार सन् 1761 ई०) होना चाहिये। गुफा के रूप में सत्यनाथ के जिस मन्दिर का अनुमान भक्तदर्शन जी ने किया है वह विद्यमान मन्दिर के स्थान पर होना असम्भव है-सत्यनाथ की गुफा मन्दिर के पीछे की ओर गाड पार, जहां कई पीरों की समाधियां हैं, उसके नीचे 'पाखे' पर अभी तक अपने अस्तित्व का परिचय देती हैं। साथ ही महापंडित राहुल सांकृत्यायन 'मानोदय' को आधार मानकर अजयपाल द्वारा देवलगढ़ राजधानी परिवर्तन करने का समय सन् 1512 ई० निर्धारित करते हैं। इस प्रकार मन्दिर का निर्माण काल भी अजयपाल के देवलगढ़ राजधानी लाने के 249 वर्ष बाद ठहरता है। कुछ भी हो इतना तो अवश्य है कि अजयपाल का सम्बन्ध सत्यनाथ से अवश्य था और वह उनका गुरू तुल्य आदर करता था। इस बात की पुष्टि देवलगढ़ में लक्ष्मीनारायण के मन्दिर की दायीं ओर भीत पर एक पत्थर पर खुदे हुये चित्र से स्पष्ट होती है। चित्र में अजयपाल सिर पर पगड़ी तथा कानों में कुण्डल पहने हुये प‌द्मासन लगाये बैठे हैं और पास ही भण्डारी खड़ा है। जिसके दायें हाथ में अर्गला और बायें हाथ में पाया है। चित्र की बाई ओर देवनागरी अक्षरों में 'अजैपाल को धर्म पाथो भण्डारी करौं 'कू' लिखा है। नाथ पंथ को स्वीकार करने के कारण ही गढ़वाल के मंत्र साहित्य में अजयपाल की 'आणे' पड़ती हैं।

हिन्दी साहित्य के इतिहास की नवीन खोजों के आधार पर गोरखनाथ का समय कुछ विद्वान विक्रम की दसवीं शताब्दी मानते हैं और जैसा कि गढ़वाल के मन्त्र-साहित्य में गोरख का ही नाम अधिक आता है तथा सत्यनाथ के मन्दिर में एक समाधि के ऊपर (जो कि सम्भवतया सत्यनाथ की समाधि है) सत्यनाथ के मन्दिर में भी उन्हीं की मूर्ति स्थापित है। इससे हमारा ध्यान बरबस उस ओर खिंच जाता है कि सत्यनाथ ही गढ़‌वाल में नाथपंथ के आदि प्रवर्तक नहीं थे, बल्कि उनसे पूर्व भी नाथपंथ गढ़वाल में पहुंच चुका था। स्वयं गोरखनाथ की ये वाणियाँ उस ओर संकेत करती हैं कि उन्होंने केदारखंड (गढ़वाल) का भ्रमण किया था:-

(1) बदन्त गोरषराई परस ले केदारं, पाणी पीओ पूता तृभुवन सारं। ऊंचे-ऊंचे परबत विषम के घाटं, तहां गोरखनाथ कै लिया सेबाटं। काळी गंगा घौळी गंगा झिलमिल दीसै, काउरू का पाणी पुनिर गिरी पई-सै। अरधै योगेश्वर उरधै केदारं, भोला लोक न जाणे मोष दुवारं।

 (2) उत्तरषंड जाइवा सुनि फल खाइवा, ब्रह्म अगनि पहरिवा चीरं नीझर झरणै अमृत पीयौ, यूं मन हूवा थीरं।

('गोरख-वाणी' से)

परब्रह्म-स्पर्शी पिंगला और नाड़ी शुष्मणाओं वाले कायाकेदार और ब्रह्मरन्ध्र वाले उत्तराखण्ड से बाहर भी दृश्यमान रूप में इन पदों में गढ़वाल के रम्य दर्शन होते हैं। एक जनश्रुति के अनुसार गोरखनाथ 15 वर्ष तक देवलगढ़ में रहे भी बतलाये जाते हैं। दूसरी ओर नाथ सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव 9-10 वीं सदी के लगभग नेपाल की तराई में हुआ बतलाया जाता है। इस दृष्टि से भी अपने उ व स्थान से निकट सम्पर्क के कारण नाथपंथ गढ़‌वाल में आ गया होगा।

कुछ भी हो सत्यनाथ की ऐतिहासिक सत्यता से तो इन्कार नहीं किया जा सकता। देवलगढ़ में सत्यनाथ की गद्दी तब से अब तक विद्यमान है। कानों की लौ को फाड़कर उनमें कुण्डल पहिने हुए इन नाथों की एक छोटी सी बस्ती भी वहां पर है। गढ़वाल में अब बहुत ही कम नाथ-पंथी साधु हैं। अधिकांश ने खेती का पेशा अपना लिया है और गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। देवलगढ़ के अतिरिक्त लैन्सडौन, श्रीनगर, चटवापीपल, पीपलकोटि, जोशीमठ, रणेथ, आमड़ी, केदारनाथ, कांडा, जसपुर, थान, कमेड़ा, सेम, रवाईं, कठूड़, बाड़ाहाट, खाडूखेत, बिडोली आदि स्थानों के आस-पास नाथपंथ केन्द्र रहे हैं, और अब भी हैं। गढ़वाल में नाथ सम्प्रदाय के (1) सत्यनाथ पंथी (2) राम के जोगी (3) शिव के रावल (4) पंतड़ (5) नांगे (6) मड़नाथी (7) आई-पंथी (8) निरंजनी (9) धर्म नाथी (10) वैराग पंथी (11-7) तथा (12) योगण। इन बारह पंथों में से प्रायः सभी के जोगी पाये जाते हैं। इनमें कनफटे और बिना कनफटे दोनों प्रकार के नाथ सम्मिलित हैं और इन लोगों के ही आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। सम्प्रदाय के अनुसार गद्दी के अधिपति उत्तराखंड में सत्यनाथ पंथी ही होते हैं। पहले यह गद्दी राम के जोगियों की होती थी। महाराज फतेहपतिशाह (1684-1716 ई०) के समय से सत्यनाथ की गद्दी पर क्रमानुसार निम्नलिखित 'पीर' (महन्त) रहे हैं:-

1- शिवनाथ, 2- थावर नाथ, 3 महेश नाथ, 4 मनसा नाथ, 5 सुजान नाथ, 6-क्षेत्र नाथ, 7- हरिद्वार नाथ, 8 थीर नाथ, (महेश के नाती) 9 बुधनाथ, 10- सिताब नाथ (बुधनाथ के नाती), 11 गणेश नाथ, 12 घनी नाथ, 13-कमल नाथ, 14-बसन्त नाथ (20 मई सन् 1926 से) 15 बुध नाथ (1995 में थे)

            गद्दी पर 'बिन्द' नहीं 'नाद' के ही बैठने की परम्परा है। विद्यमान पीर बसन्त नाथ जी को टिहरी राज्य की ओर से अभी तक 9 रू० प्रतिमास मन्दिर की धूपबत्ती के लिये मिलता है, किन्तु बसन्तनाथ जी के पास थोड़ी सी जमीन है और पारिवारिक पोषण के लिये बैल, बकरियां भी उन्होंने पाल रखी हैं। उनकी पत्नी भादीदेवी तथा उनके 4 लड़के विवाहित हैं और वे मैदानों में सर्विस का धन्धा करते हैं। बसन्तनाथ जी के पास पुराने सिद्धों की वाणियों का एक लघु संकलन भी है।

सिद्धों की वाणियों के अतिरिक्त विद्वान समाज और घुमन्तू सन्यासियों ने नाथ-पंथ से प्रभावित होकर, जिन ग्रन्थों की रचना की वे गढ़वाल के अलावा बंगाल, महाराष्ट्र और भारत से बाहर चीन, बर्मा आदि में समान रूप से प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।

गढ़वाल में इससे सम्बन्धित जिस साहित्य का पता चला है उसमें से कुछ ग्रन्थों का सक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है।

1. ढोल सागर-  ढोल सागर नाम सुनते ही एक विशाल-काव्य ग्रन्थ का अनुमान लगता है, किन्तु यह ग्रन्थ आकार की दृष्टि से ऐसा है नहीं। 'ढोल' का 'बीज में वृक्ष' वाला विराट अर्थ लेकर जिस दार्शनिकता का खुलासा करने की कोशिश इसमें की गई है, उस दृष्टि से आकार लघु होने पर भी इसकी महत्ता लघु नहीं है। भारत भर में मंगल मुहूत्तों पर ढोल बजाने का सगुन प्राचीन काल से माना जाता है। हिमवन्त में यह कार्य वहां के हरिजनों की एक जाति' औजी' (ढोल वादक) द्वारा होता है। उन्हीं के लिए इस ग्रन्थ की रचना हुई प्रतीत होती है। ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर 'सुनो रे औजी' कहकर सम्बोधित किया गया है। ढोलसागर नामक यह उपयोगी ग्रन्थ अगस्त सन् 1932 ई० में पंडित ब्रह्मानन्द थपलियाल द्वारा श्री बदरीकेदारेश्वर प्रेस पौड़ी से सम्पादित व प्रकाशित भी हो चुका है। इसके अलावा एक हस्तलिखित प्रति हमें श्री उम्मेदसिंह रावत द्वारा पं० महीधर गैरोला, फलस्वाड़ी सितोनस्यूं की पौष ४ गते संवत 1958 (सन् 1928) की नकल की हुई मिली है। दोनों प्रतियों में कई स्थानों पर पाठ भेद है। लेख में हम दोनों को क्रमशः 'क' और 'ख' प्रतियों के नाम से पुकारेंगे।

ढोल- सागर के प्रारम्भ में सृष्टि की उत्पत्ति, सप्तद्वीप, नवखंड, अष्ट पर्वत तथा पृथ्वी से ऊपर वायु मंडल से लेकर निरकांर मंडल और बैकुण्ठ तक गिनाये गये हैं। 'ओंकार' शब्द की उत्पत्ति इसमें इस प्रकार है- 'पृथ्वी कथ भूता? विष्णु जी जा दिन कमल से उपजे ब्रह्मा जी ता दिन कमल भे चैतं। विष्णु जब कमल से छूटे तब नहिं चेतं। ओंकार शबद भये चेतं।

ढोल की प्राचीनता के बारे में बतलाया गया है कि प्रथम राजा इन्द्र का उदामदास ढोली था जिसका 'अमृत का ढोल' था। द्वापर में मान्धाता राजा का बामदास ढोली था, जिसका 'गगन को ढोल अविकारं तम शून्यम् शब्दम्' था। त्रेता में महेन्द्र नामक राजा का विदिपालदास ढोली था, जिसका 'काष्ठ को ढोलं अविकार तम् सून्यं शब्दम्' था एवं कलियुग में राजा वीर विक्रमाजीत का अगवानदास ढोली था, जिसका 'अंसतत्र (?) को ढोलं बस्तर को शब्दम्' था। शब्दोत्पत्ति के बाद वह अक्षर में आया और उसी के ज्ञान के लिये विद्या कहा गया है। विद्यारम्भ के लिये 'ओनमसी घं (ऑनमः सिद्ध) के बाद बाराच (बारहखड़ी) इस प्रकार दी गई है। यहां पर एक बात यह स्मरणीय है कि ढोल बिना दमाऊँ के अपना रंग नहीं जमा सकता। दमाउँ उसके प्रत्येक ताल के आरोह अवरोह का जीवन संगी है, किन्तु दमाऊँ के बारे में अभी तक किसी पुस्तक का नाम नहीं सुना गया।

ढोल सागर में शंकर वेदान्त का जिक्र हुआ है। अस्तु यह 9 वीं सदी के पूर्व की रचना कदापि नहीं हो सकती। इसमें 'दुनियां', 'आवाज' आदि उर्दू की रचना शब्द भी प्रयोग हुए हैं। भाषा प्रायः खिचड़ी है। न संस्कृत है, न गढ़वाली और न हिन्दी। एक ही वाक्य में शब्दों के भिन्न प्रयोग हैं। 'कौन राशी तेरा दैणा हाथ की गजावलम्' में रेखाकिंत में जो अन्तर है उसका कारण प्रतिलिपियों का प्रतिफल ही कहा जा सकता है।

2. घट-स्थापना- इक्कावन पृष्ठों की यह हस्तलिखित पुस्तक जिसके अन्त में 'संवत 1850 का माघमासे शुक्ल पक्षे चश्यायास्तिथौ मंगलवारे श्री अलकनन्दा निकटे दुमकि शुभस्थाने लिषीत समुबेसुर स्थाने झालि ग्रामे ग्रामिदं पोस्थिकं लेषितं नेत्रमणी ब्राह्मणो' लिखा है। यह कह देना कि यह रचना नेत्रमणी ब्राह्मण द्वारा हुई संदेहास्पद प्रतीत् होता है। 'लेषितं' शब्द का प्रयोग प्रायः गढ़वाल में प्रतिलिपि करने के अर्थ में भी व्यवहृत हुआ है। भाषा की दृष्टि से देखने पर यह अवश्य प्रतीत होता है कि इसका रचनाकाल ढोल सागर के ही लगभग का है। कहीं-कहीं ऐसा भी प्रतीत होता है कि समय-समय पर इसमें परिवर्तन भी किये जाते रहे हैं।

3. इन्द्रजाल- हिमालयन मैजिक का यह ग्रन्थ जो हमें प्राप्त हुआ है, वह देवलगढ़ के निकट झाला ग्राम निवासी श्री गोकुल देव बहुगुणा के पितामह पं० गोविन्दराम जी का सम्वत् 1900 का उल्था किया हुआ है। उनके संग्रह में इस प्रकार के अनेक ग्रन्थ थे, किन्तु इस विश्वास के कारण कि ऐसी पोथियों को रखने से संतति अहित होता है, परिवार द्वारा रद्दी की भांति वे आग की लपटों को सौंप दिये गये। पाठळ्यों बिडोल्स्यूं के स्व शोभाराम जी के यहां ऐसी तन्त्र-मन्त्र की पुस्तकें होने की सूचना मिली है। स्व० पं० तारादत्त गैरोला ने 'हिमालयन मैजिक' नाम से एक पुस्तक लिखी थी जो प्रकाशित न हो सकी। सम्भव है उन्होंने इस प्रकार की सामग्री का उपयुक्त लाभ उठाया हो और उनकी विलक्षण संग्रहकारिणी प्रवृत्ति के अनुसार उनके यहां पर इस विषय पर अधिक सामग्री मौजूद हो। श्री महीधर शर्मा बड़थ्वाल ने 'गढ़वाल में कौन कहां' में तन्त्र-मन्त्र करने करने वालों की एक बड़ी सूची प्रकाशित की है। उन लोगों के पास भी ऐसी सामग्री मिल सकती है। इन्द्रजाल नामक यह ग्रन्थ लगभग दो सौ पृष्ठों में सम्पूर्ण हुआ है। यह नटों की खाने कमाने की विद्या की पोथी है। हो सकता है यह अधिक प्राचीन हो और गोरख के नाम से सम्बन्धित मन्त्र जो इसके अन्त मे हैं, वे पीछे से इसमें जोड़े गये हों। इस ग्रन्थ में तीन प्रकार का मसाला है। पहले भाग में वैज्ञानिक आधार पर होने वाले चमत्कारों की विधियां हैं, जादूगरी के चमत्कारों वाले इस भाग को चातुरी भेद कहा गया है। इसमें एक विशेषता यह है कि इसमें बहुत से चातुरी-भेद 'सोरठों' में लिखे गये हैं। दूसरे भाग में वशीकरण संतति प्राप्त करने हेतु गांठे (ताबीज) बांधना, दुश्मन के घर में प्रस्तर वृष्टि करना, धन प्राप्ति, चोर आदि का भय निवारण आदि अंक कोष्टकों के जन्त्र हैं। तीसरा भाग मन्त्रों का है जिसमें मन्त्रों द्वारा चमत्कार होने की विधियां हैं। इन चमत्कारों में 'बिच्छू को मन्त्र', 'नजर का मन्त्र', 'टिड्डी को मन्त्र' आदि अनेक विषय लिये गये है। उदाहरण देखिए 'पैसा का मंत्र'

ओऽम् काली देवी कील कीला भैरों चौसठ जोगनी बावन बीर........ तामा का पैसा वजर की ढाल कील्या पैसा चले तो गुरू गोरखनाथ लाजै। शबद सांचा पीड़ काचा फुर्र मन्त्र ईश्वरो वाचा'।

4. श्रीनाथ जी की सुकलेस-  घुमन्तू जोगी अपने अनुभव अन्य जोगियों को बतलाया करते हैं। इसमें उसी प्रकार का वर्णन है। वर्णन प्रायः भौगोलिक है। कंधार, जावा आदि दूर-दूर देशों की भी प्रसिद्ध वस्तुओं के कुछ नाम इसमें गिने गये हैं। किसी गोरख पंथी साधु की यह रचना 15 वीं शताब्दी के बाद की प्रतीत होती है। श्रीनाथ प्रायः शिव व मत्स्येन्द्रनाथ के लिये आया करता है। कहीं-कहीं गोरखनाथ के लिये भी इसका प्रयोग होता है। सुकलैस (शुल्क यश) उज्जवलकीर्त्ति-गाथा के अर्थ में प्रयोग हुआ है।

5. समैणा- भूत विद्या के कर्मकाण्ड को समैणा की संज्ञा दी गई है। इसमें विभिन्न प्रकार की भूत पूजाओं के लिये बाकायदा विधियाँ निर्धारित की गई हैं। भूतों की उत्पत्ति और उनकी वंशावलि का बहुत ही विचित्र वर्णन इसमें मिलता है। शिव के' चारण-वाण' इन्हें कहा गया है और इन्हीं के लिये बलि देने का विधान भी है। इनके राजा भूतनाथ की उत्पत्ति का वर्णन एक स्थल पर आया है-

नहिं जल नहिं थल नहिं ऊपर नहिं अकास नहिं पातालः नहिं मेरु नहिं मन्द्रि नहंकारं माई न बाप गुरू ना चेला तल मैं धरति उप्र अकास प्रथमैं घोर भरधारं। सासनै सर्वदे त्रीलोकं ऊँकार गुरू न चेला धौ-धौं कारं माई न बाप उपजे संभु आपै आपं। एक स्थल पर 'छैल मूड़ि का भैंसा दानो' पर चढ़े हुये 'घाडि घुंगरि' वाले यम का आभास भी दिया गया है, किन्तु फिर भी भूत विद्या केवल भूत विद्या ही बनकर रह गई।

6. जागर (अलिखित)- जागर एक प्रकार से गढ़‌वाल के लोक गीत हैं। जिनके स्वर अभी कागज पर नहीं समेटे गये हैं। अधिकांश जागरें संत मत से सम्बन्धित हैं। प्राचीन वीर पूजाओं पर ऐसा प्रतीत होता है कि गढ़वाल में नाथ पंथ की कलई पुत गई और बाहर से उनका स्वरूप ही बदल गया। 'हीत' और भैरों आदि के गीत ऐसे ही हैं। गरुड़ासण और निरंकार 10 अलवत्ता नाथ-पंथ की ही देन लगती है। उसके बारे में स्व० डा० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल का मत है कि वे अपने मुसलमान न होने के प्रमाण हेतु ऐसा करते हैं। क्योंकि नाथ पंथ में हिन्दू-मुस्लिम का भेदभाव न था। जागरों में दसवीं सदी के बाद के कई संतों के नाम आते हैं तथा उनमें नाथ-पंथी सिद्धों के जीवन की विभिन्न घटनाओं का अतिरंजन होता है। कई बार जागरी नाथ पंथ सन्यासियों का ऐसा सम्बन्ध जोड़ते हैं कि इतिहास का विद्यार्थी चक्कर में पड़ जाता है। उदाहरणार्थ श्री कृष्णचन्द्र की दूसरी रानी चन्द्रावली के गर्भ से उत्पन्न कृष्णावती को वचन दान में मांगकर गोरखनाथ का उसे अपनी चेली बनाने का प्रसंग इस लीलागान में कहा जाता है कि कृष्ण को गोरखनाथ ने चन्द्रावली हरण का मंत्र दिया था और साथ ही साथ वचन ले लिया था।

- अबोध बन्धु बहुगुणा 

यह आलेख अबोध बन्धु बहुगुणा जी का गढ़वाल और गढ़वाल पुस्तक से लिया गया है जिसके सम्पादक चन्द्रपाल सिंह रावत जी है। 

 

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