उत्तराखण्ड में वन सम्बन्धी विभिन्न शब्दावलियों को देखेंः-
यह लेख उत्तराखण्ड गढ़वाल का जनजीवन नामक पुस्तक जिसके लेखक डॉ0 शिवप्रसाद नैथानी जी है से लिया गया है। कुछ अर्थों जैसे कि डॉ0 नैथानी जी ने ढिकाला के सम्बन्ध में लिखा है वह मुझे उचित प्रतीत नहीं होते क्योंकि वास्तविक अर्थ इससे भिन्न होता है। ऐसे ही अन्य शब्दों के साथ भी हो सकता है। कृपया पढ़ें और ऐसे शब्दों के बारे में कमेंट में बतायेंः-
चौबीसी छान- जहां वर्षाकाल में पशुओं, चरवाहों के अस्थाई निवास बनते हों। इसे थाच, धाचर भी कहते हैं।
डाबड़- जहां, चट्टानें टूटी पड़ी हैं, पत्चर बिखरे हैं। एक नाम काबड़ भी है।
ढंगार- प्रपाती शब्द का गढ़वाली में पर्यायवाची।
बुग्याल- ऊँचाई पर दूब जैसी घास का चारागाह। बुग पौष्टिक घास का नाम भी है। काश्मीर में मर्ग नाम है।
भुज्याली- भोज वृक्षों का क्षेत्र।
रिंगाली- रिंगाल वनों का क्षेत्र।
भाबड़- एक घास, जिससे रस्सी बनती है। इसे बाब्यो भी कहते है।
टिपाल- लीसा एकत्र करने का कार्य।
छिलका- लीसा वाली चीड़ लकड़ी जो तेजी से आग पकड़ती है।
डल्ली- लीसा का ठोस टुकड़ा।
डेकाला- लकड़ी के छोटे टुकड़े। संभवतः डेकाला डिपो होने से ही ढिकाला नाम पड़ा है कार्बेट पार्क में।
हेकड़ी- गोल तने के छोटे टुकड़े।
तंदेल/तंडेल- मजदूर दल का मेट। पानी के जहाज पर भी टडेल कहते हैं।
बंगानी- बंगाण, रवांई क्षेत्र का कुशल वन श्रमिक जो नदी प्रवाह में स्लीपरों को बहाने में कुशल होता है।
पच्छिमी- हिमाचली मजदूर जो छपान, चिरान, आराकसी में कुशल माने जाते हैं।
कुनोरा- किन्नौर हिमाचली वन मजदूर।
बुशैरी- बुशहेर (शिमला) रियासती मजदूर जो उच्चांश के वनों के कार्य में कुशल माने जाते थे।
मारछा- सीमान्त अन्न के व्यापारी, प्रायः माणा गाँव वासी।
मालदार- वन प्रकाष्ठ का खरीददार। अब यह नाम ठेकेदार में सिमट गया है।
राहवारी- सुरक्षित वनों से गुजरने वाले पशुओं पर कर, जो व्यापार के लिए रखे गए हैं।
सोयमभूमि- वह भूमि जो न सुरक्षित में है न किसी ग्राम के नाम में है। खुला जंगल।
हलनासी- खेती के काम में प्रयुक्त होने वाले लकड़ी के उपकरण प्राप्त करने हेतु ग्राम किसानों का प्रयुक्त शब्द ।
पक्का माल- 12 फुट लम्बा, 10 फुट चौड़ा, 5 फुट मोटा स्लीपर ग्रुप।
चुन्डा-मुण्डा- छूटी पड़ी, सूखी वन लकड़ी जिसे उठाने की ग्राम वासियों को ईंधन हेतु अनुमति मिलती रही है।
कुकाट- घटिया प्रजाति का वृक्ष लकड़ी।
बांसौं, बांसवाड़ा, रिंगाली- सब बांस से सम्बन्धित हैं। रिंगाली प्राचीन नाम है, पवित्र स्थान में देव रिंगाली।
सौड़, चौड़- समतल स्थान। वनों के मध्य का चौड़ा समतल स्थान।
कांठा-डांडा- ऊँची पहाड़ी का पार्श्व, शीतल, बर्फमय। पहाड़ के लिए गढ़वाली में प्रयुक्त नाम।
भेल- भ्योल पहाड़ी का सीधा खड़ा निचला पार्श्व। बोलियों में किचित परिवर्तन से अन्तर।
भिटा, भिड़ा-पहाड़ी का सीधा खड़ा, ऊँचा उठा पार्श्व।
गड, गाड, गौलागदन- जलपूरित छोटा नाला। अनेक नालों से बनी नदी। नदी में छोटा जल प्रवाह गधेरा।
घार-धुरा- नाक की धार की तरह पहाड़ी का उभरा भाग। घुरा ऊँची चोटी, जो धार में हो।
पोड़-पखाण- नदी किनारे की पहाड़ी चट्टानें। चट्टानों भरा पहाड़ी पार्श्व जहां कम वनस्पति हो।
सेम-सिमन्द- सेम, जल की नमी वाली भूमि। प्रायः अनुपजाऊ। सेम-नाग देवता के प्रतीकार्थ में भी।
डंग-डांग-ढांग- क्रमशः पथरीला/पथरीले के साथ उभरा धरातल और भी ऊँचा ढंगार स्थान-ढांगू। गड्डी- गहरी घाटी का गर्म स्थान गंगाड़ गंगा की घाटी का जलप्रवाहक क्षेत्र।
पातल-तप्पड़- सैण गहरा स्थान चौड़ का पर्यायवाची। समतल विशेष स्थल जो दूहों-पहाड़ों के बीच हो।
ओडा, दुसांघ, मुनारा- सीमा विभाजक। दो सीमाओं का मिलान क्षेत्र। सीमा पर खड़ा चिन्द्र। बांगर-खादर- प्रायः द० गढ़वाल, भाबर में प्रयुक्त बांगर खुला मैदान खादर- जहाँ धरातल पर पानी मिल जाता है। तराई में जल प्राप्ति स्थान का विशेष नाम-भांते।
चौतरा-बुंगा- चबूतरा, छोटा गढ़, ऊँचा स्थान, कोट।
तल्लादेस, मधेसू- कुमाऊँनी बोली में भावर क्षेत्र। गढ़वालियों का भावर। नेपाल में भी मधेस है, निवासी मधेसी कहलाते हैं।
रौल रौखड़- सूखी गहरी घाटी केवल जहां बरसात में नाला बहता हो।
घुँडा छीरा- छेडा जहाँ जल प्रवाह को रोका गया हो। छीरा बहती आती ऊँचाई से गिरती जलधाराएँ, छोटा प्रपात ।
बनजाण- विना बर्फ की ऊँची ठंडी चोटी। संभवतः रवाई का बंगाण शब्द इसी तरह से बना हो।
ढंढक- दण्डक, वन का निवासी, उपद्रव करे तो ढंढकी। टिहरी में प्रचलित शब्द।
दुगड्डा-तिगड्डा- तियूंनी जहाँ दो गाड़ मिलें। जहां 3 गाड़ मिलें जहां तीन जलधारायें मिलें।
तलांव-उपरांव- सिंचित और असिंचित क्षेत्र। सिंचित क्षेत्र का एक नाम कुंडली भी तो पचार-सिमार भी है।
तलाई- जहां से सिंचाई सुविधा हो। पूर्वीनयार का पूर्वी तट क्षेत्र जहां मिचें अधिक होती हों।
बगड़-रगड़- नदी किनारे के पथरीले कंकड़ भरे तट। बह गया तट क्षेत्र।
भ्वींता-छींका- गाड़ गधेरे पर बना पुश्तों के ऊपर का शीतकालीन पुल रस्सों से बना पार करने का पुल।
क्वांली, रिंगाली, देव वन- क्रमशः कुलाई चीड़ क्षेत्र। बारीक बांस क्षेत्र। देवदार प्रजाति क्षेत्र।
खांड-खंडूला- वह भूमि जिसे कमा खाने को दिया गया हो। मौरूसी हक न हो। पहले प्रायः शूद्र-सेवक वर्ग को दिया जाता था।
पवेला- राठ क्षेत्र में भांग खेती व कपड़ा बुनने वाली प्राचीन जाति।
राठ- राष्ट्रीय का अपभ्रंश। बीच की भूमि, उपजाऊ-शस्य स्यामला।
तिमिरवन- नदी गाड़ किनारे का झाड़-झंखाड़ कठिन क्षेत्र ।
दूधातोली वन- जहां दूध बढ़ाने वाली 2 घास होती हैं। दूधा घास, तोली घास (डबराल-भाग-7) जिसके खाने से गायों के दूध में सुगन्ध आती है।
बुग्याल- जहाँ हरी मखमली दूब जैसे बुग घास होती हो। रवांई में मोर घास।
खिंल-कटील इजर- जंगल से लगी भूमि। वह भूमि जो 2-3 साल बाद खेती लायक होती है।
रवन्ना- जंगल विभाग का आज्ञा पत्र।
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