उत्तराखण्ड के परम्परागत आवास भाग-2


जहां तक आवासीय परम्पराओं की बात की जायेगी इसे क्षेत्रगत आधार पर बांटा जा सकता है जो भौगोलिक आवश्यकता के अनुरूप बनाया जाता रहा है जैसे कि हिमालय के उच्च बर्फीले क्षेत्र में मात्र पत्थर की उपस्थिति थी उसके अनुरूप शुद्ध पत्थर के आवास बनाये गये, जबकि निचले क्षेत्र में जहां लकड़ी की प्रचुरता थी वहां लकड़ी की बाहुल्यता से आवास बनाये गये। उत्तराखंड की वास्तुकला स्थानीय जलवायु, भूगोल और प्राकृतिक संसाधनों के अनुरूप विकसित हुई है। यहाँ के पारंपरिक आवासों में पत्थर, लकड़ी, मिट्टी और फूस का प्रयोग प्रमुख रूप से देखा जाता है। गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्रों की भिन्न भौगोलिक और सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण यहाँ अलग-अलग प्रकार के आवास निर्मित किए गए। उत्तराखंड के पारंपरिक आवास वास्तुकला, संस्कृति और स्थानीय ज्ञान का संगम हैं, जो आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाए हुए हैं।

1. पंचपुरा घर- उत्तरकाशी क्षेत्र में पाए जाने वाले पंचपुरा घर पारंपरिक बहुमंजिला आवास होते हैं। ये घर मुख्य रूप से पत्थर और देवदार की लकड़ी से बनाए जाते हैं। ये अधिकतर पाँच मंजिलों के होते हैं, निचली मंजिल में पशुओं के लिए जगह होती है। मध्य मंजिलों में अनाज भंडारण और रहन-सहन की व्यवस्था होती है। ऊपरी मंजिल पूजा स्थल और मेहमानों के लिए होती है। लकड़ी और पत्थर का संतुलित उपयोग इसे मजबूत और टिकाऊ बनाता है। इन्हें कोटी-बनाल भवन भी कहा जाता है। यह पूर्णतः भूकम्परोधी मकान हैं। कोटी बनाल वास्तुकला पर दुनिया की नजर तब गई जब साल 1991 में उत्तरकाशी में एक बड़ा भूंकप आया था। इस भूकंप के झटकों ने सीमेंट और ईंटों से बने मजबूत लगने वाले सारे घरों को जमींदोज़ कर दिया था। लेकिन यहां मौजूद सालों पुराने मकानों की पांच मंजिला इमारतें टस से मस नहीं हुई। इस घटना ने वैज्ञानिकों का ध्यान इन मकानों की निर्माण शौली की तरफ खींचा। जिसके बाद इन मकानों पर रिसर्च शुरु हो गई। इस रिसर्च में पता चला की ये मकान 900 से 1000 साल पुराने हैं। इस रिसर्च के बाद से ही उत्तरकाशी के इन मकानों की निर्माण शैली को कोटी बनाल नाम दिया गया। कोटी बनाल उत्तरकाशी के गांव का नाम है जिसके नाम पर इस शैली का नामकरण किया गया। 

2. काठ-कुणी वास्तुकला (गढ़वाल और कुमाऊं की पारंपरिक शैली)- गढ़वाल और कुमाऊं में काठ-कुणी शैली के घर मिलते हैं, जिनमें लकड़ी और पत्थर का अद्भुत संयोजन होता है। लकड़ी की नक्काशीदार दीवारें और खिड़कियाँ। मोटे पत्थरों की दीवारें जो भूकंपरोधी होती हैं। छतें स्लेट (पत्थर) से बनी होती हैं। मकान गर्मियों में ठंडे और सर्दियों में गर्म रहते हैं। 

3. नाग और नागर शैली के मकान एवं मंदिर- गढ़वाल और कुमाऊं में नाग और नागर शैली के मंदिरों के साथ-साथ इसी शैली के कुछ आवासीय भवन भी मिलते हैं। नाग शैली उत्तराखंड के ऊँचाई वाले क्षेत्रों में देखने को मिलती है। इसमें पत्थर की मोटी दीवारें और लकड़ी की जटिल नक्काशी होती है। छतें अधिकतर लकड़ी की बीम से बनी होती हैं। मंदिरों में शिखर ऊँचाई लिए होते हैं। नागर शैली के भवन अधिकतर मैदानों और निचले पहाड़ी क्षेत्रों में देखे जाते हैं। इनमें घुमावदार छतें और अधिक सजावटी नक्काशी होती है। मकानों में बड़े-बड़े आंगन होते हैं।

4. चाल या मंजिले मकान- गढ़वाल और कुमाऊं के ग्रामीण क्षेत्रों में चाल या मंजिले मकान आम होते हैं। अधिकतर दो से तीन मंजिलों के होते हैं। निचली मंजिल में मवेशियों और अनाज भंडारण की व्यवस्था होती है। ऊपरी मंजिल में रहने के लिए कमरे और रसोई होती है। लकड़ी और पत्थर का संयोजन इन घरों को मजबूत बनाता है।

5. अंगन्या घर- इन घरों में एक बड़ा आंगन होता है, जिसके चारों ओर कमरे होते हैं। ये घर अधिकतर परिवारों के सामूहिक रहने की व्यवस्था को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। आंगन खेती-किसानी के कार्यों और सामाजिक गतिविधियों के लिए प्रयोग होता है। 

6. थापली या छान अथवा खर्क- छानी और खर्क उत्तराखंड में पशुपालकों और किसानों के अस्थायी निवास के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। छानी एक साधारण झोपड़ी होती है, जिसे घास, लकड़ी, मिट्टी और पत्थरों से बनाया जाता है। खर्क अधिक स्थायी संरचना होती है, जहाँ ग्वाले (पशुपालक) और भेड़-बकरी पालक गर्मियों में अपने पशुओं को चराने के लिए रहते हैं। यह मुख्य रूप से ऊँचाई वाले बुग्यालों (ऊँचे चारागाहों) में बनाए जाते हैं। इनमें एक छोटा कमरा और मवेशियों के लिए एक शेड होता है। यह कृषि और पशुपालन आधारित जीवनशैली का महत्वपूर्ण हिस्सा है। ऊँचाई वाले क्षेत्रों में गुज्जर और भोटिया समुदायों के लोग भी इस प्रकार के अस्थायी घरों का प्रयोग करते हैं। ये घर लकड़ी, मिट्टी, फूस और घास से बनाए जाते हैं। गर्मियों में उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रहने और पशुपालन के लिए इनका उपयोग किया जाता है। 

7. मिट्टी और फूस के मकान (तराई-भाबर क्षेत्र के घर)- उत्तराखंड के तराई और भाबर क्षेत्रों में मिट्टी और फूस के मकान आमतौर पर देखे जाते हैं। ये घर गर्मियों में ठंडे और सर्दियों में गर्म रहते हैं। इनका निर्माण स्थानीय संसाधनों का उपयोग करके किया जाता है, जिससे ये कम लागत में टिकाऊ बनते हैं।

8. पत्थर के मकान (डंगरिया घर)- हिमालयी ऊँचाई वाले क्षेत्रों में, जहां वर्षभर ठंडक बनी रहती है, वहां पत्थरों के मजबूत मकान बनाए जाते हैं। ये घर मोटे पत्थरों से निर्मित होते हैं और इनकी दीवारें बहुत मोटी होती हैं ताकि अंदर ठंड न पहुंचे। छत अक्सर स्लेट (पत्थर की पट्टियों) से बनी होती है।

उत्तराखंड की स्थापत्य परंपरा केवल सामान्य आवासों तक सीमित नहीं थी, बल्कि सामाजिक, धार्मिक और सामरिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मठ, धर्मशालाएँ, कोट और अन्य विशेष भवनों का भी निर्माण किया जाता था। ये संरचनाएँ न केवल स्थानीय समाज की आवश्यकताओं को दर्शाती थीं, बल्कि उत्तराखंड की समृद्ध स्थापत्य और सांस्कृतिक विरासत का भी प्रतीक थीं।

1. मठ- उत्तराखंड में मठों का विशेष महत्व है, क्योंकि यह स्थान आध्यात्मिक अध्ययन, साधना और भिक्षुओं के निवास के लिए उपयोग किए जाते हैं। मठ अधिकतर पत्थर और लकड़ी से बनाए जाते हैं। इनमें एक मुख्य मंदिर, भिक्षुओं के कक्ष और एक सभा भवन होता है। बद्रीनाथ, केदारनाथ और जागेश्वर जैसे तीर्थस्थलों में कई प्राचीन मठ स्थित हैं। मठों का उपयोग धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन और आध्यात्मिक अनुष्ठानों के लिए किया जाता है।

2. धर्मशाला- धर्मशालाएँ उन यात्रियों और तीर्थयात्रियों के लिए बनाई जाती थीं, जो लंबी यात्रा के दौरान आराम के लिए ठहरते थे। स्थानीय अंचल में इन्हें मन्या या मड्या भी कहा जाता है। पत्थर और लकड़ी से बनी ये संरचनाएँ तीर्थ स्थलों और प्रमुख मार्गों पर बनाई जाती थीं। इनमें ठहरने के लिए बड़े कमरे और एक सभा स्थल या बैठक कक्ष होता था। कई धर्मशालाओं में अन्न क्षेत्र (भोजनालय) भी होता था। इनका निर्माण समाज के धनाढ्य वर्ग द्वारा या मंदिरों से जुड़ी संस्थाओं द्वारा किया जाता था। इन धर्मशालाओं को पुराने अभिलेखों में पान्थशाला के रूप में उल्लिखित किया गया है। भूदेव के बागेश्वर शिलालेख में भी पान्थशाला निर्माण का वर्णन किया गया है। पूर्वी छोर की निवासी जसुली शौक्याण की 300 से अधिक धर्मशालाओं का पाया जाना भी इन धर्मशालाओं के प्रयोग एवं आवश्यकता पर प्रकाश डालता है। 

3. ग्रामीण कोट- कोट का उपयोग मुख्य रूप से सुरक्षा, प्रशासन और शासकों के निवास के लिए किया जाता था। ग्रामीण कोट गांव के बीच चौराहें में होते थे। इसका प्रधान सयाना, बढ़ा या थोकदार होता था। गांव के इस पूर्व कोट में वर्तमान में इस स्थल में धार्मिक, सामाजिक एवं सामूहिक कार्य होते हैं। मोटी पत्थर की दीवारें, जो कोट को मजबूत और आक्रमणरोधी बनाती थीं। इनका उपयोग गाँव या क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था देखने के लिए किया जाता था। कुछ कोटों का प्रयोग स्थानीय प्रशासनिक कार्यालय के रूप में किया जाता था। गढ़वाल और कुमाऊं में कई प्राचीन कोट देखने को मिलते हैं, जैसे चांदपुर गढ़ी, कालिंजर कोट, बारामंडल कोट आदि।


बाखली वाले घर- उत्तराखंड में पारंपरिक आवासीय संरचनाओं में बाखली एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह एक समुदायिक आवास प्रणाली है, जो गाँव के सामाजिक ताने-बाने और सामूहिक जीवन शैली को दर्शाती है। बाखली क्या है? बाखली शब्द कुमाऊंनी और गढ़वाली भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ क्तिबद्ध या जुड़ा हुआ मकान समूह होता है। यह संयुक्त परिवार और समुदाय आधारित रहने की प्रणाली है, जहाँ घर आपस में जुड़े होते हैं। बाखली में कई परिवार एक साथ रहते हैं, जिससे आपसी सहयोग और सुरक्षा बनी रहती है।



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