राईं गढ़ के नाम पर पड़ा रवाँई

रवाँई घाटी का पूर्व नाम 'रांई गढ़' था। जो अब हिमाचल प्रदेश का भाग है। यही राई कालान्तर में रवाँई पुकारा जाने लगा। भारत की आजादी के पश्चात गढ़वाल रियासत का 2 अगस्त 1949 को भारतीय संघ में विलय हो गया। और 1960 में टिहरी से उत्तरकाशी को अलगकर सीमान्त जिले का गठन कर दिया गया। इसकी यमुना घाटी में ही रवाँई का विस्तार है। यहां की धार्मिक व सांस्कृतिक परम्पराएं काफी समृद्ध है। रवाँई-जौनपुर व जौनसार-बावर की संरचना, संस्कृति व रीतिरिवाजों में साम्य है इसीलिए अलग-अलग जिलों में फैले इन क्षेत्रों को 'त्रिगुट' यानी एक प्राण, तीन शरीर एक कहा जाता है। मध्य हिमालय क्षेत्र के रवाँई-जौनपुर व जौनसार बावर में आज भी संयुक्त पारिवारिक परम्परा बेहद समृद्ध है, यहां महिलाओं को परिवार में प्रथम दर्जा दिया जाता है जिस कारण इस क्षेत्र में दहेज जैसी कुप्रथा आज तक घुस भी नहीं पाई है। इसीलिए यहां के राजस्व पुलिस व पुलिस थानों में दहेज प्रताड़तना व हत्या के एक घटना ढूंढे नहीं मिलती।
   ai निर्मित प्रतीकात्मक फोटो

अपनी अनुपम व अद्वितीय छटा के लिए रवाँई-जौनपुर प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है। राजशाही के शासन काल में रवाँई एक परगने के रूप में जाना जाता था जो राड़ी डांडा से लेकर हिमाचल प्रदेश से लगे हरकीदून तक फैला है। यहां के सेब के बाग, सैनी सेराँई का धान व आराकोट की सुंदरियां किसी का मन मोहने के लिए काफी हैं। हनोल स्थित महासू देवता के प्रति तीनों क्षेत्रों के लोगों में अटूट आस्था है उसी प्रकार न्याय के देवता पोखू के प्रति भी सभी की सामान आस्था है।

जौनसारी जनजाति के साथ ही रवाँई-जौनपुर को जनजाति क्षेत्र का दर्जा दिलवाने का प्रयास सर्व प्रथम अशोक आश्रम कालसी के तत्कालीन संस्थापक पं. धर्म देव शात्री ने किया था, उन्होंने भारत सरकार को प्रस्ताव भेजा था कि सामान रीति-रिवाज व संस्कृति वाला एक क्षेत्र (जौनसार-बावर) को जनजाति क्षेत्र का दर्जा मिल गया है और दूसरा रवाँई-जौनपुर इससे वंचित रह गया है इसलिए इस क्षेत्र को भी जनजाति की सूची में जोड़ा जाए। इस मांग को दौलत राम रवॉल्टा, जोत सिंह रखॉल्टा, मैसा नन्द, हुकम सिंह पंवार, सरदार सिंह रावत, सकल चंद रावत, राजेंद्र सिंह रावत, ब्रह्मदत्त, जयवीर सिंह जायड़ा तथा लक्ष्मण सिंह पंवार जैसे नेताओं ने आगे बढ़ाने का प्रयास किया पर यह न्यायोचित मांग कहीं राजनीति के भंवर में फंस कर रह गयी। हां, इसका एक लाभ क्षेत्र को जरूर मिला कि राज्य गठन के बाद इसे पिछड़े वर्ग का दर्जा अवश्य मिल गया।

रवाँई-जौनपुर व जौनसार-बावर को मिलाकर यह क्षेत्र दुनियाभर के पर्यटन प्रेमियों को आकर्षित करने की क्षमता रखता है बस जरूरत है तो उत्तराखंड सरकार के सकारात्मक सोच व प्रयास की।

डॉ. रतन सिंह जौनसारी का यह लेख रवाईं कल, आज और कल स्मारिका 2013 से साभार.

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