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उत्तराखण्ड के परम्परागत आवास भाग-2

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जहां तक आवासीय परम्पराओं की बात की जायेगी इसे क्षेत्रगत आधार पर बांटा जा सकता है जो भौगोलिक आवश्यकता के अनुरूप बनाया जाता रहा है जैसे कि हिमालय के उच्च बर्फीले क्षेत्र में मात्र पत्थर की उपस्थिति थी उसके अनुरूप शुद्ध पत्थर के आवास बनाये गये, जबकि निचले क्षेत्र में जहां लकड़ी की प्रचुरता थी वहां लकड़ी की बाहुल्यता से आवास बनाये गये। उत्तराखंड की वास्तुकला स्थानीय जलवायु, भूगोल और प्राकृतिक संसाधनों के अनुरूप विकसित हुई है। यहाँ के पारंपरिक आवासों में पत्थर, लकड़ी, मिट्टी और फूस का प्रयोग प्रमुख रूप से देखा जाता है। गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्रों की भिन्न भौगोलिक और सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण यहाँ अलग-अलग प्रकार के आवास निर्मित किए गए। उत्तराखंड के पारंपरिक आवास वास्तुकला, संस्कृति और स्थानीय ज्ञान का संगम हैं, जो आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। 1. पंचपुरा घर - उत्तरकाशी क्षेत्र में पाए जाने वाले पंचपुरा घर पारंपरिक बहुमंजिला आवास होते हैं। ये घर मुख्य रूप से पत्थर और देवदार की लकड़ी से बनाए जाते हैं। ये अधिकतर पाँच मंजिलों के होते हैं, निचली मंजिल में पशुओं के लिए जगह होती...

उत्तरकाशी की दो खूबसूरत झीलें

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भराड़सर ताल :- यह ताल मोरी के समीप 16000 फीट की दुर्गम ऊँचाई पर है। यह दिव्य स्थल बाहरी दुनिया के लिए अभी तक नितांत अपरिचित है। इसकी जानकारी स्थानीय भेड़ पालकों व बुजुर्ग लोगों को ही है। यह क्षेत्र अनूठे वन्य जीवन, वानस्पतिक वैभव के कारण दर्शनीय है। इस विशाल झील की विशेषता है कि यह पल-पल अपना रंग-रूप बदलती रहती है। झील के उत्तरी कोने पर बर्फ का एक बड़ा ग्लेशियर स्थिर होकर पसरा रहता है। वर्षाकाल में यहां शुष्क शिलाओं पर भी झरने फूटते व अगणित पुष्प खिलते दिखायी देते हैं। दिव्य पुष्प ब्रह्म कमल व फेन कमल यहां बहुतायत में खिले रहते हैं। नैटवाड़ जो मोरी से 12 किमी. दूर है, से पैदल यात्रा शुरू होती है। घने जंगल व बुग्यालों से होते हुए 15 किमी. दूर कैल्डारी उडयार (12000 फीट) पहुंचते हैं। फिर किड्डी ओडी, डालधार, नौलधार होते हुए अत्यंत कठिन दुर्गम चढ़ाई पार करते हुए बौधार-दर्रा (15000 फीट) पहुंचा जाता है। वहां से उतरते हुए कोई एक घंटे बाद भराड़सर ताल पहुंचा जाता है। भराड़सर ताल साहसिक पर्यटन का स्वर्ग है। यह गोलाकार झील लगभग 1.5 किमी. परिधि में फैली हुई है। झील के चारों ओर दुर्लभ ब...

बदलपुर- बावन गढ़ों में से एक

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बदलपुर- बावन गढ़ों में से एक रिखणीखाल क्षेत्र के सभी गढ़ों में से यह सबसे पुराना और भव्य था। 1864 के बन्दोबस्त से पूर्व अविभाजित बदलपुर पट्टी के लिए 'बदलपुर गढ' अभिलेख मिलता है। एटकिन्सन के अनुसार तब इसके पश्चिम में कौड़िया और सीला पट्टियाँ, पूर्व में कोलागाड़, इडियाकोट, पैनो एवं दक्षिण में पाटलीदून था। पौड़ी से कोटद्वार जाने वाला बसमार्ग उत्तर-पश्चिमी छोर के एक छोटे से हिस्से से होकर गुजरता था। वर्ष 1864 में नयार नदी के उत्तर में पड़ने वाले गाँवों को बगल की पट्टियों में शामिल किया गया। गवाणा तल्ला को कोलागाड में, हलूणी को गुराडस्यूं में, बारह गाँवों को मौंदाडस्यूं में शामिल किया गया। इससे बदलपुर गढ़ की विशाल सीमा का सरलता से अनुमान होता है। रतूड़ी ने ठाकुरों की बावन गढ़ों की सूची में बयालीसवें क्रम पर बदलपुर गढ़ की स्थिति बदलपुर पट्टी के बदले बदलपुर परगने में शायद भ्रमवश दिखाई है। बदलपुर के परगने के रूप में अस्तित्व में रहने की जानकारी नहीं मिलती है। पूर्व चर्चित चाँदपुर और ग्यारह गाँव सूचियों में बदलपुर गढ़ तेरहवें स्थान पर है। ऐतिहासिक ग्रंथों में इस गढ़ के सम्बन...

न्यौता परम्परा में सौंफ-सुपारी

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भारतीय संस्कृति में 'न्यौता' देने की परम्परा न केवल सामाजिक संबंधों को प्रगाढ़ करने का माध्यम रही है, बल्कि यह विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप भी विकसित होती रही है। उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में न्यौते की परम्परा का एक अत्यंत रोचक और विशिष्ट रूप देखने को मिलता है, जिसमें 'सौंफ' और 'सुपारी' देना एक अनिवार्य प्रथा रही है। आवागमन की कठिनाइयाँ और न्यौते की विशेष व्यवस्था-  उत्तराखंड के दुर्गम पर्वतीय गाँवों में आवागमन सदैव एक कठिन कार्य रहा है। एक गाँव से दूसरे गाँव तक पहुँचने के लिए घने जंगलों, तीखी चढ़ाइयों और गहरी उतराइयों से होकर गुजरना पड़ता था। आज के समय में जबकि मोबाइल और व्हाट्सएप्प जैसे संचार के साधन उपलब्ध हैं, तब भी न्यौते की पारम्परिक विधियाँ यहाँ अपना महत्त्व बनाए हुए हैं। परन्तु पूर्व में, जब कोई त्वरित संपर्क का साधन नहीं था, तब न्यौते को पहुँचाना अपने आप में एक बड़ी जिम्मेदारी और श्रमसाध्य कार्य होता था। सौंफ और सुपारी का प्रतीकात्मक महत्त्व- न्यौते के साथ सौंफ और सुपारी देना एक गहरी सांस्कृतिक परम्परा है। सौंफ को यहाँ शुभता, शी...

कुमाऊं में विवाह संस्कार

पुरातन काल से ही भारतीय हिन्दू समाज में विवाह को जीवन का एक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है। विवाह स्त्री-पुरुष का मिलन मात्र नहीं अपितु एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जहां से मानव वंश को आगे बढ़ाने, पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति करने और जीवन के विविध आयामों से जुड़ने की शुरुआत होती है। कुमाऊं अंचल में प्रचलित वैवाहिक प्रथा के सन्दर्भ में यदि हम बात करें, तो हम पाते हैं कि यहां सामाजिक वर्ण-व्यवस्था के अनुरुप वैवाहिक सम्बन्ध और विवाह पद्धतियां प्रचलित रही हैं और सामान्य अन्तर और विविधता के साथ कमोवेश आज भी चलन में हैं। यदि 1920 से पूर्व और उसके समकालीन समय की बात की जाय तो तत्कालीन कुमांऊ अंचल में परम्परागत तौर पर तीन तरह के वैवाहिक सम्बन्ध प्रचलित थे (पन्नालाल, आई.सी.एस, 1920, सरकारी अभिलेख)। जिनका विवरण नीचे दिया जा रहा है। (क) विवाह संस्कार वाली पत्नी लोगों के समक्ष जब किसी महिला को पत्नी बनाने के लिए अनुष्ठान, संस्कार तथा स्थानीय रीति-रिवाज के साथ विवाह किया जाता है उसे विवाह संस्कार द्वारा मान्य पत्नी का दर्जा दिया जाता है। कुमाऊं अंचल में इस तरह का वैवाहिक सम्बन्ध सर्वाधिक प्रचलन में ...

उत्तराखण्ड की लोक भाषा-मझ कुमैय्यां

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देवभूमि उत्तराखण्ड की लोकभाषाओं को कहने के लिए तो अनेक बोली भाषाओं में विभक्त किया है। लेकिन मूल रूप से ये सभी भाषा बोलियाँ उन्ही गढ़वाली और कुमाऊँनी भाषाओं की बोलियाँ हैं, जिन्हें जार्ज ग्रियर्सन ने भाषा विभेद तैयार करने के लिए अलग-अलग भाषाओं का नाम दिया। परन्तु ये दोनों भाषाएं मूल रूप से शौरसेनी अपभ्रंश से उत्पन्न हुई हैं। यह शौरसेनी अपभ्रंश भाषा भी उसी प्राकृत की पुत्री है, जिसका जन्म पाली से हुआ था। इस तरह पाली संस्कृत की पुत्री और संस्कृत वैदिक भाषा की पुत्री है। भाषा के इस विकास में कुमाउँनी और गढ़वाली दोनों ही भाषा का गोत्र और वंश एक ही है। इनकी एक ही प्रकृति और प्रवृत्ति है। एक जैसी बोलियाँ, एक जैसा वाक्य विन्यास और एक जैसी सहायक क्रियाएं फिर भी अंग्रेजों ने इन्हें क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग दो भाषाओं में विभाजित कर दिया। इन्ही दोनों संस्कृत पुत्रियों की एक बोली है। मझ कुमैय्यां या मांझ कुमैय्यां। इस बोली का बोलने का क्षेत्र है, गढ़वाल और कुमाऊँ का सीमावर्ती दुसान क्षेत्र, यह मूल रूप से गढ़वाली की बोली है लेकिन इसे कुमाऊँ में भी बोला जाता है। इसलिए इस मझ कुमैय्यां क...

मार्च्छा : समाज, संस्कृति और भाषा

चमोली जनपद के सबसे उत्तर में स्थित जोशीमठ के निकट विष्णुप्रयाग है जिसके पश्चिम की ओर से अलकनन्दा नदी और पूर्व की ओर से गौली नदी आकर संगम बनाती है। अलकनन्दा बद्रीनाथ धाम के उत्तर-पश्चिम में स्थित अलकापुरी बांक से निकलती है तथा धौली नदी का उद्‌गम नीति पास (गुठिंग ला) में मुचुकुन्द गुफा के निकट स्थित धौली पर्वत है। यह स्थान जोशीमठ से करीब 115 किमी की दूरी पर है। नीति पास (गुठिंग ला) पुराने भारत-तिब्बत व्यापरिक मार्ग पर स्थित है। 1961 तक नीति घाटी के लोग इसी मार्ग से तथा बड़ाहोती, डामज्यन पास से होकर व्यापार के लिए जाते थे। उन दिनों माणा घाटी तथा नीति घाटी के लोगों का मुख्य आजीविका का आधार तिब्बत व्यापार चा। माच्छा भाषा (रंग्फा काम्ची) नीति घाटी के तीन गांवों नीति, गमसाली व बाम्पा तथा माणा घाटी के सात गांवों में बोली जाती है। इसके अलावा जोशीमठ के निकट परसारी, मेरग आदि गांवों में भी बोली जाती है। इस भाषा को स्थानीय जन रंग्फा काम्ची के नाम से पुकारते हैं। सम्भवतः घाटी से बाहर के लोगों ने इस घाटी की बसासतों के आधार पर इसे मार्च्छा नाम दे दिया है। मेरा मानना है कि नीति घाटी के ऊपरी किनारे यानी...