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हिमालयी जड़ी बूटियाँ

हिमालयी क्षेत्र की जड़ी-बूटियों द्वारा विभिन्न रोगों के उपचार के सम्बन्ध में, यद्यपि विस्तृत जानकारी देना यहाँ पर सम्भव नहीं है फिर भी संक्षिप्त में उदाहरण स्वरूप कुछ जड़ी-बूटियों के वानस्पतिक नाम तथा स्थानीय नामों के साथ उनके उपयोगों का विवरण निम्नवत् है- 1. रत्ती (एब्रस प्रिकेटोरियस) जड़ तथा पत्तियाँ कफ, दमा, ज्वर, तथा चक्कर में लाभप्रद। 2. अतीस (एकोनिटम हट्रोफिलम)- बड़े ज्वर तथा उदर जनित अनेक असाध्य रोगों में रामबाण। 3. लटजीरा (एकाइरेन्थस एसपरा)- बीज, चर्मरोगों, सिर दर्द तथा श्वांस रोग में उपयोगी। 4. बेंत (एगलमार्मेलोस)- पत्तियाँ कृमिनाशक तथा गले के दर्द में काम आती हैं। फल गठिया बात की प्रसिद्ध दवा है। 5. बासिंग (अघैटोडावैसिका)- जड़ें खून की बिमारियों में तथा पत्तियाँ कफ, श्वास तथा रतौंधी में लाभप्रद होती हैं। 6. जम्बू (एलियमस्ट्रोचि) इसकी पत्तियों का नमक के साथ गरम पानी में बनाया गया रस घाव एवं जख्मी अंगों को सेकने के काम में आता है। 7. गंद्रायन (एंगोलिकाग्लाओका)- सुगन्धित जड़ें मशाले के अतिरिक्त पेटदर्द. क्षुधा एवं स्वास्थ्य वर्धक। 8. 8. कुर्चापाती (आर्टीमिसिया ...

बाईस जतकाव

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बाइस जतकाव माने 22 बार सन्तान उत्पत्ति होना। उत्तराखण्डी समाज में कुछ विचित्र की सामाजिक प्रथाएँ भी देखने को मिलती हैं, जैसे - यदि किसी महिला की एक ही पति से 22 संतानें (बाईस जतकाव) पैदा होती हैं तो उस महिला का अपने पति के साथ मकान के छत की धुरी (दोनों ओर की ढालू छत का मिलन बिन्दु) में उनका पुनर्विवाह किया जाता था। जोहार की भोटिया जनजाति में यह पुनर्विवाह 20 संतानोत्पत्ति के बाद होता था। इसी तरह यदि किसी व्यक्ति को मृत समझकर उसकी वैतरणी (कालदान) कर दी गई हो और वह चेतनावस्था में लौटकर पुनः जीवित हो जाय या किसी की मृत्यु की सूचना के आधार पर उसका अंत्येष्टि संस्कार सम्पन्न कर दिया गया हो, लेकिन वह पुनः प्रकट हो जाय तो ऐसे व्यक्ति के नामकरण से लेकर विवाह तक के सभी संस्कार पुनः सम्पन्न करने पड़ते हैं, तभी उसे घर-परिवार के सदस्यों में सम्मिलित किया जा सकता है। डॉ. शेर सिंह बिष्ट जी की पुस्तक कुमाऊँ हिमालय समाज एवं संस्कृति का एक अंश.

राईं गढ़ के नाम पर पड़ा रवाँई

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रवाँई घाटी का पूर्व नाम 'रांई गढ़' था। जो अब हिमाचल प्रदेश का भाग है। यही राई कालान्तर में रवाँई पुकारा जाने लगा। भारत की आजादी के पश्चात गढ़वाल रियासत का 2 अगस्त 1949 को भारतीय संघ में विलय हो गया। और 1960 में टिहरी से उत्तरकाशी को अलगकर सीमान्त जिले का गठन कर दिया गया। इसकी यमुना घाटी में ही रवाँई का विस्तार है। यहां की धार्मिक व सांस्कृतिक परम्पराएं काफी समृद्ध है। रवाँई-जौनपुर व जौनसार-बावर की संरचना, संस्कृति व रीतिरिवाजों में साम्य है इसीलिए अलग-अलग जिलों में फैले इन क्षेत्रों को 'त्रिगुट' यानी एक प्राण, तीन शरीर एक कहा जाता है। मध्य हिमालय क्षेत्र के रवाँई-जौनपुर व जौनसार बावर में आज भी संयुक्त पारिवारिक परम्परा बेहद समृद्ध है, यहां महिलाओं को परिवार में प्रथम दर्जा दिया जाता है जिस कारण इस क्षेत्र में दहेज जैसी कुप्रथा आज तक घुस भी नहीं पाई है। इसीलिए यहां के राजस्व पुलिस व पुलिस थानों में दहेज प्रताड़तना व हत्या के एक घटना ढूंढे नहीं मिलती।    ai निर्मित प्रतीकात्मक फोटो अपनी अनुपम व अद्वितीय छटा के लिए रवाँई-जौनपुर प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है। रा...

बाड़ाहाट शक्ति स्तंभ

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 विश्वनाथ मंदिर के सामने स्थित है. प्राचीन त्रिशूल (21 फीट ऊंचा) है, जिसमें ब्राह्मी एवं शंख लिपि में लेख प्राप्त हुए हैं. इस त्रिशूल में तीन श्लोक उत्कीर्ण हैं. प्रथम श्लोक में गणेश्वर नरेश द्वारा शिव मंदिर के निर्माण का उल्लेख किया गया है. द्वितीय श्लोक में गणेश्वर के पुत्र श्री गुह का उल्लेख है. तृतीय श्लोक में राजा गुह की शत्रुओं पर विजय करने का उल्लेख है. इस त्रिशूल में अशोकचल्ल द्वारा 1193 ई. में केदार भूमि जीतने का उल्लेख किया गया है.

उत्तराखण्ड का राज्य वृक्ष बुरांस: एक संपूर्ण विवरण

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उत्तराखण्ड की प्राकृतिक सुंदरता का प्रतीक, बुरांस (Rhododendron arboreum) न केवल अपनी सुंदरता के लिए बल्कि पारिस्थितिक, औषधीय और सांस्कृतिक महत्व के लिए भी जाना जाता है । यह उत्तराखण्ड के लोगों के लिए गर्व का विषय है। वैज्ञानिक रूप से ‘रोडोडेन्ड्रोन अरबोरियम’ कहलाने वाला बुरांस , स्थानीय बोलियों में बुरांश, लाल बुरांश, ब्रास या बरह-के-फूल जैसे नामों से भी जाना जाता है । बुरांस पूरे हिमालयी क्षेत्र और पड़ोसी देशों में 800 से 3000 मीटर की ऊंचाई तक पाया जाता है । भारत के अलावा, यह भूटान, चीन, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका, थाईलैंड, पाकिस्तान और तिब्बत में भी मिलता है । स्थानीय तौर पर बुरांश के फूल को कफ्फू फूल भी कहा जाता है। हालांकि कफ्फू शब्द का प्रयोग उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में मोनाल के लिए किया जाता है। सम्भवतः कफ्फू का प्रिय भोजन होने के कारण इसे भी कफ्फू फूल कहा गया हो। बुरांस: वानस्पतिक विशेषताएं बुरांस एक सदाबहार झाड़ी या छोटा पेड़ है, जो आमतौर पर 12 मीटर तक ऊंचा होता है । इसके पत्ते गहरे हरे, चमड़े जैसे और 7 से 19 सेमी लंबे होते हैं, जिनकी निचली सतह पर हल्के भूरे र...

अस्कोट-आराकोट अभियान सम्पूर्ण विवरण

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अस्कोट-आराकोट अभियान उत्तराखंड की एक ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण पदयात्रा है, जो हिमालयी समाज, पर्यावरण और संस्कृति को गहराई से समझने का प्रयास करती है।  यह अभियान हर दस वर्षों में आयोजित होता है और 2024 में इसकी छठी यात्रा का आयोजन हुआ, जो इस अभियान की 50वीं वर्षगांठ भी थी।  अस्कोट-आराकोट अभियान: बिंदुवार विवरण 1. उत्पत्ति और प्रेरणा इस अभियान की शुरुआत 25 मई 1974 को श्रीदेव सुमन की जयंती पर हुई थी। गांधीवादी पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा की प्रेरणा से इस यात्रा की रूपरेखा तैयार की गई थी, जिसमें कुमाऊँ और गढ़वाल विश्वविद्यालयों के छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और ग्रामीणों ने भाग लिया।  2. यात्रा मार्ग और विस्तार अभियान की शुरुआत पिथौरागढ़ जिले के पांगू-अस्कोट से होती है और यह उत्तरकाशी जिले के आराकोट में समाप्त होता है। यह यात्रा लगभग 1150 किलोमीटर लंबी होती है और उत्तराखंड के 7 जिलों—पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी, उत्तरकाशी और देहरादून—के लगभग 350 गांवों से होकर गुजरती है। यात्रा के दौरान पदयात्री 35 नदियों, 16 बुग्यालों, 20 खरकों...

वस्त्र-आभूषण सम्बन्धी शब्दावली (बुक्सा जनजाति)

अंगूठी- मुंदरिया ओवर कोट-बरंडी कोट कंगन-करधनी कड़ा, खड़आ- करधनी, टैंगनी कुंडल-बुन्दा घाघरा-चूड़ी जेवर-गुनिया, घाघरो चुरिया-चीज पहुँची-पाँची पाजेब- चेन पट्टी पायजामा- पैजामा, पतलून फ्रॉक-झुगली बिछुए-बिछिया नाक की बाली- लौंग, फुल्ली सतलड़ी माला-हलेम हँसली-हँसलिया सोना-सोनो कर्णफूल- झुमका/पखरे लिहाफ- खतरी कलाई में पहने जाने वाले चाँदी के आभूषण- खडुआ, परिबंध, पहुँची बाँह में पहने जाने वाले चाँदी के आभूषण- खैला, बात्वक

लूंगला उत्सव

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कृषि प्रधान क्षेत्रों में अपने कठिन कार्यों के बीच यहां के लोग किसी न किसी तरह अपने कुछ पल मनोरंजन व खुशी के लिए निकाल देते हैं। ज्येष्ठ-आषाढ़ में उत्तरकाशी के रवांई क्षेत्र में धान की रोपाई का काम जोरों पर होता है जिसको वे त्यौहार के रूप में मनाते हैं। इस त्यौहार को 'लूंगला' नाम से जाना जाता है। क्षेत्र के लोग आज भी रोपाई का कार्य शुरू करने के लिए शुभदिन-शुभ मुहूर्त निकालते हैं। ढोल बाजों के साथ रोपाई का कार्य आरंभ किया जाता है। किसी दिन एक परिवार के खेतों की रोपाई की जाती है तो दूसरे दिन सभी मिलकर दूसरे परिवार की रोपाई पूरी करते हैं। इस परंपरा को 'पडयाला' या 'सटेर' कहा जाता है। इस अवसर पर यह प्रयास रहता है कि एक परिवार की रोपाई एक ही दिन में पूरी हो जाए। इसलिए आवश्यकतानुसार गांव की महिलाओं व पुरुषों को रोपाई के लिए बुला लिया जाता है। जिससे खेतों में रौनक बढ़ जाती है। बाजगी लोग खेतों की मेड़ पर बैठकर ढोल वादन करते हैं। महिलाएं रोपाई करती हुई लायण, छोड़े, पंवाड़े व बाजूबंद गाती हैं। रोपाई के अवसर पर घरों में पकवान के रूप में स्वाले-पकोड़े, हलुवा-पूरी...

क्यूंसर का मेला

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जनपद के जौनपुर विकास खंड का यह एक लोकमान्य देवता है। इसका मंदिर पालीगाड़ पट्टी में बगसील गांव के अन्तर्गत देवलसारी नामक स्थान पर स्थित है। जहां इसकी पूजा नागराज के रूप में की जाती है। इस स्थान पर आश्विन मास की संक्रांति को एक उत्सव का आयोजन किया जाता है। लोक कथा प्रचलित है कि एक बार इस गांव में एक साधु आया। उसे देवलसारी सेरा बहुत पसंद आया किन्तु यहां के सयाणें ने उसकी प्रताड़ना करके उसे भगा दिया। क्रुद्ध होकर साधु ने श्राप दे दिया कि तुम्हारे इस सेरे में धान की जगह देवदारु के वृक्ष उग जायेंगे, ऐसा ही हुआ। लोगों ने देखा कि खेतों में धान की जगह देवदारु उग आए हैं और जिस स्थान पर साधु बैठा हुआ था, वहां पर एक नाग कुंडली मारे बैठा हुआ है। तब भयभीत होकर गांव के लोगों ने दूध, दही, पुष्प-फल लाकर उसकी पूजा की। पश्चात् उस स्थान पर एक मंदिर का निर्माण कर दिया गया। इस मंदिर में स्थित शिवलिंग के निकट जलकुंडी है। इसके जल के सम्बन्ध में लोगों का कहना है कि आश्विन मास की संक्रांति के दिन जब पुजारी उस जलकुंडी के समक्ष शंख ध्वनि करता है तो जलकुंडी से जल स्वतः ही बाहर की ओर प्रवाहित होने लगता ...

चौखुटिया

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चौखुटिया शब्द उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित एक कस्बे का नाम है। यह कस्बा रामगंगा नदी के तट पर बसा हुआ है। उत्पत्ति: यह शब्द कुमाऊंनी भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है:  * चौ (chau): जिसका अर्थ है "चार"।  * खुट (khut): जिसका अर्थ है "पैर"। इस प्रकार, "चौखुट" का शाब्दिक अर्थ "चार पैर" होता है। चौखुटिया के संदर्भ में, इन "चार पैरों" का अर्थ है चार रास्ते या दिशाएँ जो इस स्थान से विभिन्न ओर जाती हैं। ये चार मार्ग चौखुटिया को रामनगर, कर्णप्रयाग, रानीखेत और तड़ाग ताल से जोड़ते हैं। स्थानीय रूप से "चौखुटिया" शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से इस कस्बे और इसके आसपास के क्षेत्र के लिए किया जाता है।   इसके अतिरिक्त, स्थानीय लोक साहित्य और संस्कृति में भी इस शब्द का प्रयोग मिलता है, जैसे कि चौखुटिया-गेवाड़ क्षेत्र में प्रचलित झोड़ा नामक लोकगीत में। संक्षेप में, "चौखुटिया" एक स्थान का नाम है जिसकी उत्पत्ति कुमाऊंनी भाषा के "चार पैर" अर्थ वाले शब्दों से हुई है, जो यहाँ से निकलने वाले चार महत्वपूर्ण रास्तों को इंगित करता...

रवाँई का एक अनूठा लोकानुष्ठान 'खोदाईं'- श्री महावीर रखाँल्टा

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रवाँई क्षेत्र में एक कहावत प्रसिद्ध है कि 'डूम कू जागरु अर खसिया अनिंदरु' यानि हरिजन का जागर और खसिया राजपूत जागे। यह कहावत यूँ ही प्रचलित नहीं है। बल्कि इस क्षेत्र के हरिजनों में ऐसे 'जागर' की परम्परा भी है जिसमें भागीदारी हरिजन परिवारों की होती है और श्रवण के लिए गाँव और आसपास के सारे लोग आते हैं। सामान्यतः तीसरे या पाँचवें वर्ष रात्रि जागरण एवं स्तुति का यह अनुष्ठान किसी एक हरिजन परिवार में होता है, लेकिन सक्रिय सारे हरिजन परिवार रहते हैं। स्थानीय वासियों में यह अनुष्ठान 'खोदाई' के नाम से ख्यात है। 'खोदाई' को सम्पन्न कराने के लिए एक विशिष्ट व्यक्ति 'जग' को आमंत्रित किया जाता है तथा उसके साथ दो-तीन व्यक्ति और होते हैं।                 पुस्तक जिससे यह लेख लिया गया है। तीन रात्रियों में सम्पन्न होने वाली खोदाई में जगऱ्या की प्रमुख भूमिका होती है। वह गाते हुए अनुष्ठान हो आगे बढ़ाता है और बाकी लोग उसी को दोहराते हुए उसका साथ देते हैं। खोदाई के लिए पहले मकान की छत उखाड़नी पड़ती थी और वहीं बैठकर सवर्ण लोग पूरी रात खोदाईं देखते थे। खोदाई क...

गाडू-घड़ी यात्रा क्या है?

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यह यात्रा नरेंद्रनगर के राजमहल से शुरू होती है। यहां टिहरी राजपरिवार की सुहागिन महिलाएं पीले वस्त्र धारण कर पारंपरिक तरीके से तिल का तेल निकालती हैं। इस तेल को एक पवित्र कलश ('गाडू घड़ा') में भरा जाता है। पूजा-अर्चना के बाद, यह कलश डिमर गांव के पुजारी को सौंप दिया जाता है, जो इसे विभिन्न पड़ावों से होते हुए बद्रीनाथ धाम तक ले जाते हैं। गाडू-घड़ी यात्रा का महत्व:  * बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने की शुरुआत: यह यात्रा बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने की प्रक्रिया की शुरुआत मानी जाती है।  * भगवान बद्रीनाथ का अभिषेक: इस कलश में भरे गए तिल के तेल का उपयोग बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने पर भगवान बद्री विशाल के प्रथम अभिषेक और पूरे वर्ष उनकी प्रतिमा पर लेप करने के लिए किया जाता है।  * राजपरिवार की भूमिका: टिहरी राजपरिवार इस परंपरा को सदियों से निभाता आ रहा है और उनका इसमें महत्वपूर्ण योगदान है। माना जाता है कि टिहरी के राजा भगवान बद्रीनाथ के 'बोलते रूप' हैं।  * सांस्कृतिक महत्व: यह यात्रा उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक और धार्मिक परंपरा का प्रतीक है, जिसमें स्थानीय लोगों की गह...

उत्तराखण्ड के परम्परागत आवास भाग-2

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जहां तक आवासीय परम्पराओं की बात की जायेगी इसे क्षेत्रगत आधार पर बांटा जा सकता है जो भौगोलिक आवश्यकता के अनुरूप बनाया जाता रहा है जैसे कि हिमालय के उच्च बर्फीले क्षेत्र में मात्र पत्थर की उपस्थिति थी उसके अनुरूप शुद्ध पत्थर के आवास बनाये गये, जबकि निचले क्षेत्र में जहां लकड़ी की प्रचुरता थी वहां लकड़ी की बाहुल्यता से आवास बनाये गये। उत्तराखंड की वास्तुकला स्थानीय जलवायु, भूगोल और प्राकृतिक संसाधनों के अनुरूप विकसित हुई है। यहाँ के पारंपरिक आवासों में पत्थर, लकड़ी, मिट्टी और फूस का प्रयोग प्रमुख रूप से देखा जाता है। गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्रों की भिन्न भौगोलिक और सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण यहाँ अलग-अलग प्रकार के आवास निर्मित किए गए। उत्तराखंड के पारंपरिक आवास वास्तुकला, संस्कृति और स्थानीय ज्ञान का संगम हैं, जो आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। 1. पंचपुरा घर - उत्तरकाशी क्षेत्र में पाए जाने वाले पंचपुरा घर पारंपरिक बहुमंजिला आवास होते हैं। ये घर मुख्य रूप से पत्थर और देवदार की लकड़ी से बनाए जाते हैं। ये अधिकतर पाँच मंजिलों के होते हैं, निचली मंजिल में पशुओं के लिए जगह होती...

उत्तरकाशी की दो खूबसूरत झीलें

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भराड़सर ताल :- यह ताल मोरी के समीप 16000 फीट की दुर्गम ऊँचाई पर है। यह दिव्य स्थल बाहरी दुनिया के लिए अभी तक नितांत अपरिचित है। इसकी जानकारी स्थानीय भेड़ पालकों व बुजुर्ग लोगों को ही है। यह क्षेत्र अनूठे वन्य जीवन, वानस्पतिक वैभव के कारण दर्शनीय है। इस विशाल झील की विशेषता है कि यह पल-पल अपना रंग-रूप बदलती रहती है। झील के उत्तरी कोने पर बर्फ का एक बड़ा ग्लेशियर स्थिर होकर पसरा रहता है। वर्षाकाल में यहां शुष्क शिलाओं पर भी झरने फूटते व अगणित पुष्प खिलते दिखायी देते हैं। दिव्य पुष्प ब्रह्म कमल व फेन कमल यहां बहुतायत में खिले रहते हैं। नैटवाड़ जो मोरी से 12 किमी. दूर है, से पैदल यात्रा शुरू होती है। घने जंगल व बुग्यालों से होते हुए 15 किमी. दूर कैल्डारी उडयार (12000 फीट) पहुंचते हैं। फिर किड्डी ओडी, डालधार, नौलधार होते हुए अत्यंत कठिन दुर्गम चढ़ाई पार करते हुए बौधार-दर्रा (15000 फीट) पहुंचा जाता है। वहां से उतरते हुए कोई एक घंटे बाद भराड़सर ताल पहुंचा जाता है। भराड़सर ताल साहसिक पर्यटन का स्वर्ग है। यह गोलाकार झील लगभग 1.5 किमी. परिधि में फैली हुई है। झील के चारों ओर दुर्लभ ब...