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बदलपुर- बावन गढ़ों में से एक

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बदलपुर- बावन गढ़ों में से एक रिखणीखाल क्षेत्र के सभी गढ़ों में से यह सबसे पुराना और भव्य था। 1864 के बन्दोबस्त से पूर्व अविभाजित बदलपुर पट्टी के लिए 'बदलपुर गढ' अभिलेख मिलता है। एटकिन्सन के अनुसार तब इसके पश्चिम में कौड़िया और सीला पट्टियाँ, पूर्व में कोलागाड़, इडियाकोट, पैनो एवं दक्षिण में पाटलीदून था। पौड़ी से कोटद्वार जाने वाला बसमार्ग उत्तर-पश्चिमी छोर के एक छोटे से हिस्से से होकर गुजरता था। वर्ष 1864 में नयार नदी के उत्तर में पड़ने वाले गाँवों को बगल की पट्टियों में शामिल किया गया। गवाणा तल्ला को कोलागाड में, हलूणी को गुराडस्यूं में, बारह गाँवों को मौंदाडस्यूं में शामिल किया गया। इससे बदलपुर गढ़ की विशाल सीमा का सरलता से अनुमान होता है। रतूड़ी ने ठाकुरों की बावन गढ़ों की सूची में बयालीसवें क्रम पर बदलपुर गढ़ की स्थिति बदलपुर पट्टी के बदले बदलपुर परगने में शायद भ्रमवश दिखाई है। बदलपुर के परगने के रूप में अस्तित्व में रहने की जानकारी नहीं मिलती है। पूर्व चर्चित चाँदपुर और ग्यारह गाँव सूचियों में बदलपुर गढ़ तेरहवें स्थान पर है। ऐतिहासिक ग्रंथों में इस गढ़ के सम्बन...

न्यौता परम्परा में सौंफ-सुपारी

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भारतीय संस्कृति में 'न्यौता' देने की परम्परा न केवल सामाजिक संबंधों को प्रगाढ़ करने का माध्यम रही है, बल्कि यह विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप भी विकसित होती रही है। उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में न्यौते की परम्परा का एक अत्यंत रोचक और विशिष्ट रूप देखने को मिलता है, जिसमें 'सौंफ' और 'सुपारी' देना एक अनिवार्य प्रथा रही है। आवागमन की कठिनाइयाँ और न्यौते की विशेष व्यवस्था-  उत्तराखंड के दुर्गम पर्वतीय गाँवों में आवागमन सदैव एक कठिन कार्य रहा है। एक गाँव से दूसरे गाँव तक पहुँचने के लिए घने जंगलों, तीखी चढ़ाइयों और गहरी उतराइयों से होकर गुजरना पड़ता था। आज के समय में जबकि मोबाइल और व्हाट्सएप्प जैसे संचार के साधन उपलब्ध हैं, तब भी न्यौते की पारम्परिक विधियाँ यहाँ अपना महत्त्व बनाए हुए हैं। परन्तु पूर्व में, जब कोई त्वरित संपर्क का साधन नहीं था, तब न्यौते को पहुँचाना अपने आप में एक बड़ी जिम्मेदारी और श्रमसाध्य कार्य होता था। सौंफ और सुपारी का प्रतीकात्मक महत्त्व- न्यौते के साथ सौंफ और सुपारी देना एक गहरी सांस्कृतिक परम्परा है। सौंफ को यहाँ शुभता, शी...

कुमाऊं में विवाह संस्कार

पुरातन काल से ही भारतीय हिन्दू समाज में विवाह को जीवन का एक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है। विवाह स्त्री-पुरुष का मिलन मात्र नहीं अपितु एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जहां से मानव वंश को आगे बढ़ाने, पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति करने और जीवन के विविध आयामों से जुड़ने की शुरुआत होती है। कुमाऊं अंचल में प्रचलित वैवाहिक प्रथा के सन्दर्भ में यदि हम बात करें, तो हम पाते हैं कि यहां सामाजिक वर्ण-व्यवस्था के अनुरुप वैवाहिक सम्बन्ध और विवाह पद्धतियां प्रचलित रही हैं और सामान्य अन्तर और विविधता के साथ कमोवेश आज भी चलन में हैं। यदि 1920 से पूर्व और उसके समकालीन समय की बात की जाय तो तत्कालीन कुमांऊ अंचल में परम्परागत तौर पर तीन तरह के वैवाहिक सम्बन्ध प्रचलित थे (पन्नालाल, आई.सी.एस, 1920, सरकारी अभिलेख)। जिनका विवरण नीचे दिया जा रहा है। (क) विवाह संस्कार वाली पत्नी लोगों के समक्ष जब किसी महिला को पत्नी बनाने के लिए अनुष्ठान, संस्कार तथा स्थानीय रीति-रिवाज के साथ विवाह किया जाता है उसे विवाह संस्कार द्वारा मान्य पत्नी का दर्जा दिया जाता है। कुमाऊं अंचल में इस तरह का वैवाहिक सम्बन्ध सर्वाधिक प्रचलन में ...

उत्तराखण्ड की लोक भाषा-मझ कुमैय्यां

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देवभूमि उत्तराखण्ड की लोकभाषाओं को कहने के लिए तो अनेक बोली भाषाओं में विभक्त किया है। लेकिन मूल रूप से ये सभी भाषा बोलियाँ उन्ही गढ़वाली और कुमाऊँनी भाषाओं की बोलियाँ हैं, जिन्हें जार्ज ग्रियर्सन ने भाषा विभेद तैयार करने के लिए अलग-अलग भाषाओं का नाम दिया। परन्तु ये दोनों भाषाएं मूल रूप से शौरसेनी अपभ्रंश से उत्पन्न हुई हैं। यह शौरसेनी अपभ्रंश भाषा भी उसी प्राकृत की पुत्री है, जिसका जन्म पाली से हुआ था। इस तरह पाली संस्कृत की पुत्री और संस्कृत वैदिक भाषा की पुत्री है। भाषा के इस विकास में कुमाउँनी और गढ़वाली दोनों ही भाषा का गोत्र और वंश एक ही है। इनकी एक ही प्रकृति और प्रवृत्ति है। एक जैसी बोलियाँ, एक जैसा वाक्य विन्यास और एक जैसी सहायक क्रियाएं फिर भी अंग्रेजों ने इन्हें क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग दो भाषाओं में विभाजित कर दिया। इन्ही दोनों संस्कृत पुत्रियों की एक बोली है। मझ कुमैय्यां या मांझ कुमैय्यां। इस बोली का बोलने का क्षेत्र है, गढ़वाल और कुमाऊँ का सीमावर्ती दुसान क्षेत्र, यह मूल रूप से गढ़वाली की बोली है लेकिन इसे कुमाऊँ में भी बोला जाता है। इसलिए इस मझ कुमैय्यां क...

मार्च्छा : समाज, संस्कृति और भाषा

चमोली जनपद के सबसे उत्तर में स्थित जोशीमठ के निकट विष्णुप्रयाग है जिसके पश्चिम की ओर से अलकनन्दा नदी और पूर्व की ओर से गौली नदी आकर संगम बनाती है। अलकनन्दा बद्रीनाथ धाम के उत्तर-पश्चिम में स्थित अलकापुरी बांक से निकलती है तथा धौली नदी का उद्‌गम नीति पास (गुठिंग ला) में मुचुकुन्द गुफा के निकट स्थित धौली पर्वत है। यह स्थान जोशीमठ से करीब 115 किमी की दूरी पर है। नीति पास (गुठिंग ला) पुराने भारत-तिब्बत व्यापरिक मार्ग पर स्थित है। 1961 तक नीति घाटी के लोग इसी मार्ग से तथा बड़ाहोती, डामज्यन पास से होकर व्यापार के लिए जाते थे। उन दिनों माणा घाटी तथा नीति घाटी के लोगों का मुख्य आजीविका का आधार तिब्बत व्यापार चा। माच्छा भाषा (रंग्फा काम्ची) नीति घाटी के तीन गांवों नीति, गमसाली व बाम्पा तथा माणा घाटी के सात गांवों में बोली जाती है। इसके अलावा जोशीमठ के निकट परसारी, मेरग आदि गांवों में भी बोली जाती है। इस भाषा को स्थानीय जन रंग्फा काम्ची के नाम से पुकारते हैं। सम्भवतः घाटी से बाहर के लोगों ने इस घाटी की बसासतों के आधार पर इसे मार्च्छा नाम दे दिया है। मेरा मानना है कि नीति घाटी के ऊपरी किनारे यानी...

मध्यकालीन गढ़वाल की संरक्षिका शासिकायें व उनकी राजनीतिक-कूटनीतिक गतिविधि

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सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में मध्य हिमालय क्षेत्र में अवस्थित लगभग 10,875 वर्ग कि.मी. पर्वतीय भू-प्रदेश की अनेक छोटी-बड़ी ठकुराइयों को विजित कर पंवारवंशीय राजा अजयपाल ने आरम्भ में चाँदपुर को अपना प्रशासनिक मुख्यालय बनाया। कालान्तर में कुछ समय के लिए देवलगढ़ को राजधानी के रूप में प्रयुक्त कया गया। तत्पश्चात् श्रीनगर (गढ़वाल) को राजधानी बनाया गया। गढ़ों की अधिकता के कारण यह पर्वतीय राज्य गढ़वाल कहलाया। सातवीं शताब्दी में इस पर्वतीय प्रदेश का भ्रमण करने वाले चीनी यात्री हवेन सांग ने हरिद्वार से ऊपर ब्रह्मपुर के उत्तर में स्त्री राज्यों का उल्लेख किया है। वह लिखता है कि यद्यपि इन राज्यों में राजा तो होते हैं, किन्तु वे केवल नाममात्र के ही राजा हैं, इन राजाओं में स्त्रियाँ ही प्रधान हैं।' वेन सांग के उक्त विवरण से प्रतीत होता है कि सातवीं शताब्दी में इस पर्वतीय अंचल में मातृ-मूलक अथवा मातृ-सत्तात्मक व्यवस्था थी, जिसके कारण इस क्षेत्र में स्त्रियों की प्रधानता थी और वे प्रशासनिक शक्तियों का उपभोग करती थीं। मध्यकाल तक आते-आते इस पर्वतीय अंचल में मातृ-सत्तात्मक व्यवस्था अप्रभावी...

कुमाऊँ के विभिन्न व्यापारिक केन्द्रः एक संक्षिप्त विवरण

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कुमाऊँ जनपद व्यापारिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इस जनपद में पर्वतीय, भावर एवं तराई तीन क्षेत्र पड़ते हैं। इन क्षेत्रों में अनेक व्यापारिक केन्द्र हैं जहाँ पर व्यापारी अपनी वस्तुओं का आदान-प्रदान करते हैं। इन केन्द्रों में निम्नलिखित मुख्य हैं.' (1) रामनगर -  प्राचीन समय में बस्ती चिलकिया में थी, तत्पश्चात् कोसी के किनारे रामजे साहब के नाम से सन् 1850 में रामनगर बसाया गया। यह एक अच्छी व्यापारिक मण्डी है, कोसी से नहर निकालकर करीब 8 किलोमीटर की भूमि आबाद की गई है। यहाँ थाना व छोटी तहसील थी। पहले यहाँ पर नोटीफाइड ऐरिया कमेटी भी है। रेल, तार, डाक आदि की व्यवस्था है। फल-फूल विशेषकर, पपीते के बगीचे काफी है। रामनगर ऊँचे टीले में बसा है। यहां से एक मोटर सड़क रानीखेत को जाती है। यहाँ लकड़ी का व्यापार काफी होता है। जंगलात का कार्यालय भी है। बद्रीनारायण के यात्री यहीं से होकर लौटते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों को जाने का यह प्राचीन मार्ग है। ब्रिटिश सेना ने इसी मार्ग से कुमाऊँ के ऊपर आक्रमण किया था। (2) हल्द्वानी भावर की मंडियों में सबसे बड़ी मण्डी हल्द्वानी है। यह कुमाऊँ जनपद ...

गढ़वाल के गोरखपंथी ग्रन्थ

'नौ नाथ और चौरासी सिद्धों वाली उक्ति के समर्थन में 'गोरक्ष-सिद्धांत संग्रह' में नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चन्द्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पट और मलयार्जुन इन नौ मार्ग प्रवर्तक नाथों के नाम गिने गये हैं। चित्रकार व कवि श्री मोलाराम (1740 से 1833 ई०) के 'श्रीनगर राज्य का इतिहास' के आधार पर स्व० भक्तदर्शन मानते हैं कि गढ़वाल में नाथपंथ के प्रवर्तक सत्यनाथ थे तथा गढ़वाल राज्य को सुदृढ़ बनाने में उन्होंने प्रमुखता से भाग लिया था। 'सिद्ध सत्यनाथ द्वारा अजयपाल को सवा सेर गेहूं का दाना देना और आश्विन के महीने में उसकी पूजा करते रहना' कथानक के बाद आपने आगे कहा है- 'सन् 1370 में जब महाराज अजयपाल अपनी राजधानी वहां (देवलगढ़) लाये, तो उन्होंने गुरू सत्यनाथ का मठ स्थापित करने के साथ-साथ अपनी कुलदेवी राजराजेश्वरी के मन्दिर की स्थापना भी वहां पर की। सत्यनाथ का मन्दिर पहले अनुमानतः एक गुफा के रूप में था। बाद में किन्हीं पीर हंसनाथ ने मन्दिर का निर्माण कराया। तद्नुसार 18 गते आषाढ़ संवत् 1683 वि० (जुलाई सन् 1626 ई०) को किन्हीं प्रभातनाथ ने मन्दिर का जीर्णोद्वार करवाया ...